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गलत निर्णय के खिलाफ हक है बोलने का-प्रशांत भूषणवरिष्ठ अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालयअगर विधायिका न्यायपालिका की किसी बात पर आपत्ति जताती है तो मुझे इसमें कुछ गलत नहीं दिखता। इस ताजा प्रकरण को ही देखें, न्यायालय ने गैरसहायता प्राप्त निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की बात पर सरकार से यही कहा था कि अगर वह उनमें आरक्षण चाहती है तो कानून बनाकर ऐसा कर सकती है। लेकिन कानून तो बनाया नहीं और न्यायालय पर अंगुली उठाकर कहने लगे कि यह कैसे कह दिया आपने, हम तो वहां भी आरक्षण करेंगे, आदि। न्यायालय ने कानून के अनुसार इस मसले में उचित ही फैसला दिया था कि आप कानून बनाकर आरक्षण लागू करना चाहें तो कर लें।जहां तक विधायिका द्वारा न्यायपालिका पर टीका-टिप्पणी की बात है तो मैं इसे एक हद तक जायज मानता हूं। उदाहरण के लिए, आई.एम.डी.टी. कानून पर अदालत ने जो फैसला दिया है और उसे निरस्त कर दिया है, यह बिल्कुल बेतुका निर्णय था। हमने इस मामले में बहस के दौरान इसका विरोध किया था। अपनी बहस में हमने कहा था कि संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून (इस संदर्भ में आई.एम.डी.टी.) केवल दो आधारों पर निरस्त किया जा सकता है। एक, यदि वह कानून संविधान के खिलाफ हो; और दो, वह कानून विधायी तौर पर अयोग्य हो। लेकिन आई.एम.डी.टी. कानून में विधायी अयोग्यता जैसी कोई बात ही नहीं थी। परन्तु अदालत ने कहा कि यह संविधान की धारा 355 के खिलाफ है, क्योंकि यह धारा कहती है- राज्य को बाहरी आक्रमण से बचाना सरकार का कर्तव्य है। अदालत ने कहा कि क्योंकि यह कानून बंगलादेशियों को भारत में आने दे रहा है, इसलिए यह जनसांख्यिकी आक्रमण जैसा है। यह संविधान की कैसी अनर्गल व्याख्या है, इस पर क्या कहा जाए? मैं यह नहीं कहता कि अदालत के सभी फैसलों पर टीका-टिप्पणी होनी चाहिए। ज्यादातर फैसले ठीक होते हैं, पर सत्तारूढ़ सरकार चीजों को अपने नजरिए से देखकर आलोचना करती है। न्यायपालिका का कोई भी फैसला सरकार के खिलाफ आता है तो उसकी आलोचना की जाती है। लोकतंत्र में अदालत के फैसलों की कोई भी आलोचना कर सकता है। मैंने खुद आई.एम.डी.टी. कानून निरस्त किए जाने पर एक लेख लिखा था। न्यायपालिका की आलोचना करना तो लोकतांत्रिक अधिकार है। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति लाहोटी ने शायद किसी बात पर आवेश के कारण ऐसा बोला कि अदालतें बंद कर दें। न तो सरकार ऐसा कर सकती है, न अदालत ऐसी किसी बात को स्वीकार कर सकती है।NEWS
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