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गत 23 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय में दलित ईसाइयों को आरक्षण का लाभ देने के मामले पर सुनवाई होने वाली थी। किन्तु भारत सरकार के महाधिवक्ता मिलन बनर्जी ने केन्द्र सरकार का पक्ष रखते हुए न्यायालय से आग्रह किया कि वह फिलहाल इस सुनवाई को कुछ समय के लिए स्थगित कर दे क्योंकि सरकार ने अन्य मत-पंथों में शामिल होने वाले हिन्दू दलितों की पहचान के लिए अलग से आयोग गठित करने का फैसला किया है और इस काम के लिए थोड़ा वक्त चाहिए। हालांकि केन्द्र सरकार ने आयोग गठित करने का निर्णय सुनवाई होने से एक दिन पूर्व ही लिया था, फिर भी न्यायालय ने इस अनुरोध को स्वीकार कर सुनवाई स्थगित कर दी। लेकिन महाधिवक्ता मिलन बनर्जी के कथित “धन्यवाद ज्ञापन” ने मानो अदालत की दु:खती रग पर ही हाथ रख दिया। महाधिवक्ता ने अपने धन्यवाद ज्ञापन में कहा, “इस मामले में जल्दबाजी न करने के लिए वे न्यायालय के शुक्रगुजार हैं।” फिर तो न्यायालय से उन्हें और उनके द्वारा सरकार को जो खरी-खरी सुनने को मिली, शायद न्यायपालिका ने अपने इतिहास में इससे पूर्व कभी भी किसी सरकार के विरुद्ध इतने कड़े शब्दों का प्रयोग नहीं किया होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ दिनों पूर्व “व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों में आरक्षण नीति” के सन्दर्भ में अपने द्वारा दिए गए निर्णय पर संसद में, राजनीतिक दलों व सरकार द्वारा की गई टिप्पणियों पर गम्भीर नाखुशी प्रकट की। उस पूरे प्रकरण से खिन्न सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमेश चन्द्र लाहोटी ने यहां तक कह दिया कि “किसी भी फैसले का बिना अध्ययन किए न्यायालय पर आरोप लगाया जा रहा है कि वह टकराव पर अमादा है। यदि सरकार का यही नजरिया है तो अदालतों को बन्द कर देना चाहिए।” सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी ने पुन: इस बहस को जन्म दे दिया है कि क्या सचमुच न्यायपालिका ने कार्यपालिका के अधिकारों का अतिक्रमण किया है या फिर सरकार ही अपनी नाकामियों को न्यायपालिका पर थोपकर पल्ला झाड़ना चाहती है। यहां प्रस्तुत हैं इस मुद्दे पर देश के प्रमुख विश्लेषकों, कानूनविदों से की गई बातचीत के मुख्य अंश-प्रस्तुति – आलोक गोस्वामीअदालत की अवमानना कांग्रेस की पुरानी परम्परा है-ए.सूर्यप्रकाशवरिष्ठ विश्लेषकन्यायपालिका, सरकार और संसद के बीच इस वक्त जो टकराव की स्थिति दिखाई दे रही है, वह कोई नई बात नहीं है। हां, यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है और इसे जितनी जल्दी सुलझा लिया जाए उतना ही अच्छा होगा। हमारे संविधान में न्यायपालिका की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। चूंकि उसे वह शक्ति संविधान से प्राप्त है, अत: सरकार चाहे किसी की हो, यह शक्ति नहीं छीन सकती। संविधान ने न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के दायित्व और अधिकार निर्धारित किए हुए हैं। यह संविधान के मूल ढांचे का अंग है, जिसे कोई बदल नहीं सकता।32 साल पहले भी, 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद मामले में एक निर्णय दिया था, जिसमें न्यायालय ने साफ शब्दों में कहा था कि संविधान संशोधन करते समय संविधान के बुनियादी स्वरूप में किसी प्रकार का फेरबदल नहीं होना चाहिए। उस समय श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। न्यायालय के इस निर्णय के तुरन्त बाद कांग्रेसियों ने सर्वोच्च न्यायालय और न्यायपालिका के खिलाफ एक तरह से हमला बोल दिया। उन्होंने कहना शुरू किया कि हमें “कमिटिड ज्यूडिशियरी” (समर्पित न्यायपालिका) चाहिए। “समर्पित” का यहां निहितार्थ था एक पार्टी (कांग्रेस) के प्रति समर्पित। आपातकाल के उन दिनों में हर कांग्रेसी की यही रट रहती थी। लेकिन हम भारतवासी भी समर्पित न्यायपालिका चाहते हैं- संविधान के प्रति समर्पित न्यायपालिका। परन्तु कांग्रेस का अब तक का इतिहास न्यायपालिका को स्वतंत्र नहीं, बल्कि अपने प्रति समर्पित ही चाहता रहा है। इसलिए जब आज की स्थिति देखता हूं तो किसी तरह का आश्चर्य नहीं होता।कांग्रेस की करतूतश्रीमती इंदिरा गांधी अपनी पार्टी के पक्ष में संविधान को पूरी तरह बदल देना चाहती थीं। वह परंपरा आज भी जारी है। उस समय संसद में ये लोग न्यायपालिका की ओर संकेत करते हुए धमकी भरी भाषा बोलते थे। न्यायपालिका के लिए इन लोगों ने जो बोला, वह संसद के रिकार्ड में आज भी सुरक्षित है। आपातकाल के समय सर्वोच्च न्यायालय में एक “हेबियस कार्पस” याचिका दायर हुई। उसमें न्यायालय के सामने सवाल उठा था कि क्या आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों के निलंबन का राष्ट्रपति का आदेश जायज था जिसमें किसी अदालत में जीने की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त करने की गुहार नहीं की जा सकती? सभी को जीने का अधिकार संविधान की धारा 21 के अंतर्गत प्रदत्त है। तब न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना व अन्य न्यायमूर्तियों ने महाधिवक्ता से पूछा कि अगर किसी पुलिस वाले ने किसी व्यक्ति की बेवजह पिटाई कर दी तो क्या उस व्यक्ति के घर वाले अदालत के सामने धारा-21 के अधीन प्राप्त अधिकारों की मांग करने नहीं आ सकते? इस पर महाधिवक्ता ने कहा, “जीने की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए आप अदालत में गुहार नहीं कर सकते।” यह सुनने के बाद उस 5 सदस्यीय खण्डपीठ के चार न्यायाधीशों ने सरकार के इस दृष्टिकोण को उचित ठहरा दिया, लेकिन न्यायमूर्ति खन्ना ने विरोध करते हुए कहा कि यह संभव ही नहीं कि किसी नागरिक से उसके जीने की स्वतंत्रता का अधिकार छीना जाए। यही कारण था कि वरिष्ठतम न्यायाधीश न्यायमूर्ति खन्ना को हाशिए पर रखकर कांग्रेस सरकार ने उनके कनिष्ठ को मुख्य न्यायाधीश बना दिया था। कांग्रेस की यही परम्परा है।आपातकाल की यादकांग्रेस द्वारा आपातकाल के दौरान एक के बाद एक ऐसे कार्य किए गए जो न्यायपालिका के प्रति बहुत रूखा रवैया झलकाते थे। इसी बीच सरकार संविधान का 38वां संशोधन लाई। इसमें एक बिन्दु यह था कि (उस समय लागू) आपातकाल की कोई न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती। दूसरे में कहा गया था कि न्यायपालिका मौलिक अधिकारों के निरस्त होने की जांच नहीं कर सकती। कांग्रेस का संसद में बहुमत था, अत: यह संशोधन आसानी से पारित भी हो गया। उस समय उसे भाकपा का भी पूरा समर्थन प्राप्त था।42 वें संशोधन में तो कांग्रेस द्वारा न्यायालय के खिलाफ जबरदस्त हमला बोल दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य ही न्यायपालिका के पर कतरना था। उसमें पहला बिन्दु था, संविधान के किसी भी संशोधन के खिलाफ किसी भी अदालत में सवाल नहीं उठाया जा सकता। दूसरा, संविधान में मौलिक अधिकारों के अध्याय में संशोधन न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं आएगा। यानी संसद मौलिक अधिकारों में कोई भी छेड़छाड़ करती है तो सर्वोच्च न्यायालय का उसमें किसी तरह का दखल नहीं होगा। तीसरे, संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति असीमित है। यानी हम जो चाहे करेंगे। चौथे, उसमें अगर संशोधन में किसी तरह की रद्दोबदल करनी पड़े तो राष्ट्रपति एक आदेश के जरिए ऐसा करने में समर्थ होंगे।हमारे संविधान में निहित तीनों अंगों में आपसी तालमेल और संतुलन, नियंत्रण की पूरी व्यवस्था है। और यही कारण है कि पिछले 10-15 वर्षों में अदालतों ने गजब के निर्णय लिए हैं। जो काम सरकार को करने चाहिए और वह नहीं करती तो अदालत को करवाने पड़े हैं। उदाहरण के लिए श्री एच.डी.शौरी की संस्था की ओर से एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए आय कर भरने की व्यवस्था की मांग की गई थी। अदालत सक्रिय हुई और आज सभी राजनीतिक दल आय कर भरते हैं। इसी तरह पर्यावरण सुधारने के लिए सी.एन.जी. को लागू करवाया। पाठक्रम में सुधार का रास्ता साफ किया। स्पष्ट रूप से मैं यही कहना चाहूंगा कि अदालत किसी सरकार या संसद ने नहीं बनाई है, संविधान ने बनाई है। हम भारत के नागरिकों ने उस संविधान को अंगीकार किया है। सरकार न तो अदालतों को बना सकती है, न हटा सकती है।NEWS
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