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जैन दर्शन का सारसुरेश सोनीसुरेश सोनीजैन दर्शन में सात मूलभूत प्रश्नों पर विचार किया गया है-दु:ख का अनुभव किसे हो रहा है?दु:ख किससे मिल रहा है?दु:ख का कारण क्या है?दु:ख बढ़ता क्यों है?दु:ख को रोका कैसे जाए?दु:ख कैसे दूर हो?दु:ख से मुक्त अवस्था कैसी है?इन सात प्रश्नों के मूल को ही जैन दर्शन में तत्व कहा गया है। इन तत्वों का ज्ञान ही मनुष्य को दु:खों से मुक्त करता है। ये सात तत्व हैं-जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।जीव चेतन सत्ता है और अजीव जड़ सत्ता है। दोनों के मेल से दु:ख होता है और दोनों के मेल का कारण आश्रव है। दोनों का मिल जाना बंध है। आश्रव के रोकने का नाम संवर है। कर्मों के झड़ने को निर्जरा कहते हैं तथा उनका पूर्व रूप से क्षय होना मोक्ष कहलाता है, जो जीव की स्वाभाविक अवस्था है।सम्पूर्ण विश्व जीव व अजीव का सम्मिश्रण है। जीव अनेक हैं। उनकी चेतन सत्ता है। चेतना मूल है। अत: आना-जाना, सुख-दु:ख की अनुभूति जीव को होती है। जैन मत के अनुसार अजीव के दो रूप हैं- एक रूपी दूसरा अरूपी। इसमें रूपी के दो भाग हैं- पुद्गल और स्कंध। पुद्गल पदार्थ की मूलभूत इकाई है। पुद्गल आज के परमाणु के समान नहीं है, क्योंकि परमाणु भी लगभग 200 कणों का पुंज है, पर पुद्गल वह इकाई है जिसका विभाजन नहीं हो सकता। कुछ पुद्गल मिलकर जटिल रचना बनती है जिसे स्कंध कहा गया और स्कंधों के पुंज से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आदि तत्व और सम्पूर्ण सृष्टि की रचना होती है। पुद्गल और स्कन्ध से बाह्र रचना होती है।अजीव का दूसरा रूप है अरूपी। इसके चार अंग हैं-धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इस प्रकार जीव और अजीव के संयोग से जड़ एवं चेतन सृष्टि बनती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जीव के शरीर व इन्द्रिय आदि पुद्गल के कारण बनते हैं। तथा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में आना-जाना धर्म, अधर्म, आकाश और काल के सहारे होता है। इस प्रकार सुख-दु:ख की अनुभूति जीव-अजीव के सम्पर्क के कारण होती है और यह संयोग ही दु:ख का कारण है। यहां यह विचार आ सकता है कि सृष्टि जीव और अजीव का संयोग है। पर यह संयोग क्यों होता है? इस पर जैन दर्शन का उत्तर है, कर्म के कारण उसका परिणाम मिलता है। कर्म समूह में से परिणाम देने की अवस्था में जो कर्म आते हैं, उनको आश्रव कहा जाता है। अर्थात् आश्रव वह दरवाजा है जिससे परिणामी कर्मों का आगमन होता है और इनके प्रभाव से जीव व पुद्गल, स्कंध के योग से जन्म होता है। जन्म होना बन्धन की अवस्था है। बन्धन की अवस्था में जीव सुख-दु:ख भोगता है, पर एक न एक दिन उसमें दु:खों से पूर्ण मुक्ति की इच्छा जगती है। इस इच्छा के कारण कर्मों के प्रवाह को रोकने का प्रयत्न करता है। कर्मों के प्रवाह को रोकना ही दु:खों को रोकना है। इसे संवर कहा गया तथा उसके बाद कर्मों को शुद्ध करने और उनसे मुक्त होने की साधना निर्जरा है। साधना करते-करते एक दिन सभी कर्मों का आत्यंतिक क्षय हो जाने पर जीव सब दु:खों से मुक्त हो जाता है। इस अवस्था को मोक्ष कहा गया है। यही प्रत्येक जीव का अन्तिम ध्येय है। मुक्त होने हेतु साधना के रूप में तीन बातों की साधना करने पर जैन मत में जोर दिया गया है-1. सम्यक् दर्शन 2. सम्यक् ज्ञान 3. सम्यक् आचार।इनमें सम्यक् दर्शन व ज्ञान प्राप्ति के लिए चिंतन, मनन तथा सम्यक् आचार के लिए पांच महाव्रतों का पालन अनिवार्य माना गया है-1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय 4. अपरिग्रह 5. ब्राह्मचर्य। पांच महाव्रतों की साधना गृहस्थों और मुनियों के लिए अलग-अलग हैं। उनका विस्तृत विवेचन जैन ग्रंथों में मिलता है।चिंतन और महाव्रतों की साधना से जीव मोक्षावस्था तक पहुंच सकता है। संक्षेप में यही जैन दर्शन का सार है। जैन मत में अनेक सम्प्रदाय बने-दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी, मन्दिर मार्गी आदि। इनमें परस्पर आचारगत भेद हैं, तत्वज्ञान की दृष्टि से कोई मतभेद नहीं है।(पाक्षिक स्तम्भ)(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार।)NEWS
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