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मेरी काव्य यात्रा के डा. रामेश्वर…. ज्योति के हस्ताक्षरशिव ओम अम्बरशिव ओम अम्बरकविवर डा. रामेश्वर प्रसाद द्विवेदी “रामेश्वर” की जीवनभर की साधना का सुफल है, प्रभात-प्रशान्त प्रकाशन, क्रान्ति कुटीर पुखरायां, कानपुर देहात से प्रकाशित “मेरी काव्य यात्रा” (मूल्य 550 रु.)। जीवन के आठवें दशक की परिसमाप्ति की ओर अग्रसर रामेश्वर जी ने अपनी पहली कविता तब लिखी थी जब वे चतुर्थ कक्षा के छात्र थे। वह प्रभु के नाम लिखी एक बाल कवि की वन्दना थी। उम्र के इस पड़ाव पर आकर वह पुन: अपने आध्यात्मिक पथोपदेष्टा स्वामी श्याम की सन्निधि से सहज ऊर्जावन्त हो प्रभु को सम्बोधित कर रहे हैं, स्वयं को प्रबोधित कर रहे हैं। सन् 1951 में “अन्तज्र्वाला” के नाम से उनकी कविताओं का पहला संकलन प्रकाश में आया था। उस समय उन्होंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की ही थी। अपनी हर काव्य-पुस्तक को रामेश्वर जी एक पड़ाव की संज्ञा देते हैं और इस नव्यतम कृति के प्रकाशन से पूर्व उनकी काव्य चेतना बारह पड़ावों पर विश्राम कर पुन: “चरैवेति” के मंत्र का जाप करते हुए आगे को अग्रसर है। पंजाब विश्वविद्यालय के डा. जयप्रकाश ने उन्हें रस सिद्ध कवि, सुधी समीक्षक और सर्वतोमुखी गद्यकार कहकर उनके साहित्यिक व्यक्तित्व को निरुपित करने की चेष्टा की है, तो राष्ट्रकवि दिनकर ने “सरस कवि और बहुपठ विद्वान” तथा महीयसी महादेवी ने “भावुक कवि, मार्मिंक गीतकार, सुन्दर समीक्षक और निबन्धकार” कहकर उनकी अवदात साधना पर आशीषों के अक्षत बरसाये हैं।”मेरी काव्य यात्रा” की भूमिका के रूप में लिखी गई कवि की संघर्ष गाथा “जीवन जो काव्य में ढला” पढ़कर स्पष्ट हो जाता है कि अपनी कविता को ही आत्मकथा मानने वाले डा. रामेश्वर वस्तुत: भावतरलता से विनिर्मित वह वाद्य-यंत्र हैं, जिसके तारों पर किया गया हर आघात कविता की स्वर लहरियों को जन्म देता रहा है। अध्यापक के आसन से वह इस कविता में हर नवयुवक को उद्बोधन देते हुए कहते हैं-उठ तुझे मेरी शपथ है, चल तुझे मेरी शपथ हैआग अंगों से लपेटे, प्राण में पीड़ा समेटेदीप जैसे जल रहा है, जल तुझे मेरी शपथ है।इस कविता में बादल और सिन्धु के माध्यम से स्वयं को सर्वहित में न्योछावर कर देने का संदेश देता हुआ कवि जीवन की चरितार्थता का बीज-मंत्र प्रदान करता है। जैसे एक विराट वट वृक्ष के एक पत्र को माथे से लगाकर उसकी महत्ता को प्रणाम निवेदित किया जाए, इस महत काव्यपुरुष की एक ही रचना की कुछ और पंक्तियों को उद्धृत करते हुए उनके शतायु होने की कामना करता हूं-अभिव्यक्ति मुद्राएंशब्द तो शोर है तमाशा है,भाव के सिन्धु में बताशा है।मर्म की बात होंठ से न कहो,मौन ही भावना की भाषा है।-गोपालदास “नीरज”प्यास सागर की कभी मरती नहीं है,जिन्दगी संघर्ष से डरती नहीं है।आंसुओं की बूंद छलकाये बिना,गीत की गागर कभी भरती नहीं है।-आत्मप्रकाश शुक्लशब्द सरगम हुए, हुए न हुएगम कभी कम हुए, हुए न हुए।आज हैं तो जरा करीब रहेंकल यहां हम हुए, हुए न हुए।-ब्राजकिशोर सिंह “किशोर”(भूल मत भावुक अभागे)जिन्दगी का अर्थ जगनाजिन्दगी का अर्र्थ उठनाजिन्दगी का अर्थ चलनाजिन्दगी सोना नहीं हैजिन्दगी है कर्म की पावन त्रिवेणीइस त्रिवेणी के तटों पर बैठकर रोना नहीं है।पहाड़ के कपड़ेलगभग एक दशक के बाद पहाड़ की यात्रा का सुयोग बना। पहाड़ के प्रसिद्ध संस्कृति-पुरुष (स्व.) मोहन उप्रेती की पुण्यतिथि (6 जून) को मोहन उप्रेती लोक संस्कृति, कला एवं विज्ञान शोध समिति, अल्मोड़ा (उत्तरांचल) “रचना-दिवस” के रूप में मनाती है और इस दिन कुछ कलाकारों तथा साहित्यकारों का सम्मान करती है। पहाड़ की जागर शैली के संरक्षक श्री मनोहर लाल जी, होली गायकी के क्षेत्र के प्रतिष्ठित नाम श्री हेमचन्द्र पाण्डे, विणाई वादक श्री रामचरण जुयाल तथा सिनेमा एवं टी.वी. धारावाहिकों के लोकप्रिय हास्य अभिनेता श्री हेमन्त पाण्डे के साथ मुझे साहित्य-क्षेत्र के लिए इस बार सम्मानित किया गया। मुख्य अतिथि पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह ने अपने अभिभाषण में बड़े ही अनुराग के साथ मेरा उल्लेख कर मुझे अभिनन्दित किया तो अगले दिन उसी सभा कक्ष में हुई अल्मोड़े के साहित्यकारों और सुधीजनों की एक संगोष्ठी में सबने अपना अकुण्ठ स्नेह देकर मुझे अभिभूत ही कर दिया। पहाड़ी मिट्टी के साथ मेरे रक्त के रिश्ते ने उस दिन मुझे अद्भुत तृप्ति दी। कभी स्व. मोहन दा की शुभाशीष प्राप्त कर अल्मोड़े से ही मेरी कविता-यात्रा प्रारम्भ हुई थी। अब श्री हेमन्त जोशी के प्रयास से मैं पुन: कुछ घड़ियों के लिए वैसे ही पावन परिवेश को जी रहा था। कवि गोष्ठी की अध्यक्षता कुमाऊं विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की रीडर दिवा जी ने की। उनके द्वारा दी गई पुस्तक “अक्षरों का पुल” पढ़ते समय “पहाड़ के कपड़े” सामने आई और मैं चिहुंक सा गया-हल्द्वानी से अल्मोड़े की यात्रा के दौरान विगत दस वर्षों में और भी नंगे हो चले पहाड़ों को देखकर ऐसा ही तो मैं भी सोच रहा था, कहना चाह रहा था। आप भी इस कविता में आरेखित सत्य से संयुक्त हों-लगता है बूढ़ा हो गया है पहाड़उकडू बैठा है सिकुड़ करकहां चले गए पहाड़ के कपड़ेकैसे काटेगा ये जाड़े की रात?अपनी उम्र को गुणा करूं हजार बारउतनी उम्रों के हजार-हजारसपने लपेटूंदेह पर पहाड़ कीढकेगा तब भी नहींठिठुरता रहेगा यों ही।फिर एक दिनइसकी हड्डियों के स्मारक बनाएंगे लोगवही लोगजिन्होंने इसके कपड़े छीनेऔर कर दिया नंगा!हम नपुंसक हो गए हैं!एक निश्चित अन्तराल के बाद कश्मीर में धमाके होते रहते हैं और दिल्ली से सत्ता के प्रवक्ता इन्हें आतंकवादियों में छा रही हताशा के प्रतीक बताकर अपने दामन छुड़ा लेते हैं। जिन पिष्ट पोषित वक्तव्यों को सुन-सुनकर आम आदमी उकता गया है, उन्हीं को समाचार चैनलों के सामने पुन:-पुन: दोहराते हुए हमारे संवेदनाहीन सत्ता-पुरुषों को कोई लज्जा नहीं आती। कभी सुर्यभानु गुप्त जी ने लिखा था-जिन्दगी हम अदीबों की मजबूर है और मजबूर है सालहासाल से,जैसे कश्मीर फूलों का रिसता हुआ एक नासूर है सालहासाल से।आज जब अखबारों में निर्दोष नागरिकों के कश्मीर में हताहत होने का वर्णन पढ़ता हूं, मेरा मन होता है कि इन तमाम वक्तव्यदाता नेताओं के सामने जाकर आत्मदादा (आत्म प्रकाश शुक्ल जी) की इन दहकती पंक्तियों को उन्हें सुनाऊं-क्या कहा कुछ उग्रवादी लोग हिंसक हो गए हैं?आचरण अपने पड़ोसी के निरंकुश हो गए हैं?हुक्मरानो, बात ये कड़वी लगे तो माफ करना-वे नहीं हिंसक हुए हैं, हम नपुंसक हो गए हैं।NEWS
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