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बंग-भंग से स्वदेशी तक-6छोटा विभाजन समाप्त बड़ा विभाजन शुरूदेवेन्द्र स्वरूपबंगाल में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कटुता और हिंसा की दीवार खड़ी करके व तथाकथित संविधानिक सुधार के नाम पर 1909 के भारत एक्ट में मुस्लिम पृथकतावाद के लिए संविधानिक रास्ता बनाकर 1910 के अंत में लार्ड मिंटो भारत से विदा हो गये। और उन्हीं के साथ भारत सचिव के पद से ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मोर्ले नामक उदारवादी चेहरा भी चला गया। अब वायसराय पद पर आये लार्ड हार्डिंग और भारत-सचिव बने लार्ड क्रेवे। लार्ड हार्डिंग ने जब कार्यभार संभाला तब लार्ड मिन्टो के दमनचक्र से घायल बंगाल मूÐच्छत-सा पड़ा था। बंगाल की इस मूÐच्छत दशा का वर्णन अरविन्द घोष के शब्दों में जानना ही अच्छा रहेगा। अलीपुर बम काण्ड के कारण एक वर्ष बंदीगृह में बिताकर जब श्री अरविन्द बाहर आये तो 30 मई, 1909 को अपने पहले भाषण में, जो उत्तरपाड़ा भाषण के नाम से प्रसिद्ध है, उन्होंने कहा था, “अब बाहर आकर देखता हूं कि सब कुछ बदल गया है। मेरे एक साथी, जो सदा मेरी बगल में बैठते थे, जो सदा मेरे काम में सहयोग दिया करते थे, आज बर्मा में कैद हैं, दूसरे सहयोगी संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में नजरबन्द होकर सड़ रहे हैं। जब मैं बाहर आया तो मैंने अपने चारों ओर देखा, जिनसे मैं मंत्रणा और प्रेरणा पाने का अभ्यस्त था, उन्हें खोजा । वे मुझे नहीं मिले। केवल इतना ही नहीं, इससे भी अधिक मैंने देखा। जब मैं जेल गया था तब सारा देश वंदेमातरम् की ध्वनि से गूंज रहा था, जब मैं जेल से बाहर गया तो मैंने इस ध्वनि को सुनने के लिए अपने कान खड़े किए, किन्तु इसके स्थान पर दिखाई दी निस्तब्धता। देश में निश्चेष्टता छा गई थी और लोग हक्के-बक्के से दिखाई दिये, क्योंकि हमारे सामने भविष्य की कल्पना से भरा ईश्वर का उज्ज्वल स्वर्ग था, उसके बदले हमारे सर पर काले बादलों से भरा आकाश था, जिससे मानवीय वज्र और बिजली की वर्षा हो रही थी। किसी को यह न दिखाई देता था कि किस ओर चलना चाहिए। चारों ओर से एक ही प्रश्न उठ रहा था, “अब क्या करें? हम क्या कर सकते हैं?”केवल बंगाल ही नहीं, पूरा देश नेतृत्वविहीन था। लोकमान्य तिलक मांडले जेल में बंद थे, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपत राय देश के बाहर निर्वासन भोग रहे थे। कांग्रेस टूट चुकी थी। उस पर ब्रिटिश भक्त नरमदलियों का एकछत्र प्रभुत्व था। लाल-बाल-पाल त्रिमूर्ति के राष्ट्रवादी अनुयायी वनवास की स्थिति में थे। अरविन्द भी बंगाल में सरकारी दमन के ताप से बचने के लिए कुछ समय के लिए पाण्डिचेरी की साधना गुफा में छिप गए थे। ऐसी नेतृत्वविहीन स्थिति में सब ओर सन्नाटा था। श्री अरविन्द के शब्दों में, “एक बात मैं जानता था कि ईश्वर की जिस महान शक्ति ने उस कोलाहल को जगाया था, उस आशा का संचार किया था, उसी शक्ति ने यह सन्नाटा भेजा है। जो ईश्वर उस कोलाहल और आन्दोलन में थे वे की इस कोलाहल और निस्तब्धता में भी हैं।” (उत्तरपाड़ा भाषण)।ऐसी मूर्छा और निस्तब्धता के वातावरण में क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि इंग्लैण्ड के सम्राट जार्ज पंचम और रानी मेरी ने स्वयं भारत यात्रा करके 12 दिसम्बर, 1911 को दिल्ली दरबार में खड़े होकर बंगाल विभाजन को निर्णय को निरस्त करने की घोषणा कर दी? इसे बंग-भंग के विरुद्ध पांच वर्ष लम्बे राष्ट्रीय आन्दोलन की विजय कहें या ब्रिटिश कूटनीति की? नए पुनर्गठन में बिहार, छोटा नागपुर और उड़ीसा को मिलाकर एक नया प्रान्त बनाया गया। असम को पुन: अलग प्रशासकीय इकाई बनाया गया और पुराने दोनों प्रान्तों के बंगाली भाषी क्षेत्रों को मिलाकर एक नए बंगलाभाषी प्रान्त का निर्माण किया गया। यही तो बंगाल की जनता पहले दिन से मांग कर रही थी। पुनर्गठन का यह रूप तो दिसम्बर, 1903 को रिस्ले योजना के तुरन्त बाद ही ब्रिटिश सरकार को सुझाया गया था। यदि इस सुझाव को ही मानना था तो इतने कोलाहल, दमनचक्र, खून-खच्चर की स्थिति पैदा करने की क्या आवश्यकता थी? एक प्रकार से यह राष्ट्रीय आन्दोलन की विजय थी और बंगाल को इस पर खुशियां मनानी चाहिए थी। किन्तु इस घोषणा के एक वर्ष बाद 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में लार्ड हार्डिंग के शाही जुलूस पर बंगाल के क्रांतिकारियों का जानलेवा हमला कह रहा था कि बंगाल का घायल मन अभी शान्त नहीं है, किसी वेदना से छटपटा रहा है।भय से किया पलायनक्या वह वेदना यह थी कि बंगाल के विभाजन को निरस्त करने के साथ-साथ भारत सरकार ने अपनी राजधानी को कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाने का निर्णय भी लिया था और 23 दिसम्बर, 1912 को वायसराय के नाते लार्ड हार्डिंग अपनी नई राजधानी दिल्ली में धूमधाम के साथ प्रवेश कर रहे थे। कलकत्ता शहर से देश की राजधानी का गौरव छिन जाने से आहत बंगाली मन ने सैकड़ों मील दूर आकर वायसराय पर हमला कर उन्हें यह अहसास कराने की कोशिश की कि भारत की युवा पीढ़ी की आकांक्षा मात्र बंग-भंग की समाप्ति तक सीमित नहीं है, वह पूरे भारत की मुक्ति का स्वप्न संजोये है और वह कहीं भी प्रहार करने में सक्षम है। इस हमले में लार्ड हार्डिंग का वह अंगरक्षक, जो उनके सर पर छतरी ताने चल रहा था, अपने प्राण खो बैठा। लार्ड हार्डिंग के प्राण तो बच गए पर वे काफी घायल हो गए। पर शायद राजधानी-परिवर्तन बंगाल की पीड़ा का मुख्य कारण नहीं था। विपिन पाल की प्रतिक्रिया इस निर्णय पर बहुत सटीक थी। उन्होंने कहा कि कलकत्ता में बंगाल का है क्या? कलकत्ता पूरी तरह अंग्रेजों की रचना थी। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण कलकत्ता कभी भी भारत की राजधानी बनने के लिए उपयुक्त नहीं था। यह तो महज इतिहास का संयोग है कि भारत में अंग्रेजों की उदीयमान सत्ता का कलकत्ता ही प्रथम केन्द्र बना। सम्राट युधिष्ठिर से लेकर पृथ्वीराज चौहान तक भारत की राजधानी दिल्ली थी, अत: भारत की राजधानी का कलकत्ता से दिल्ली के लिए प्रस्थान इतिहास के प्रति न्याय ही हुआ। यह भी सत्य है कि अंग्रेज उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में लार्ड विलियम बैंटिक के जमाने से ही राजधानी को कलकत्ता से आगरा ले जाने की दिशा में गंभीरता से सोचने लगे थे।किन्तु प्रश्न यह है कि राजधानी परिवर्तन के निर्णय को इसी समय बंग-भंग निरस्तीकरण के निर्णय के साथ क्यों जोड़ा गया? यह हम पहले बता चुके हैं कि बंगालियों की तीक्ष्ण मेधा शक्ति के सामने अंग्रेज हीनभावना से ग्रस्त थे। कलकत्ता में राजधानी के रहते बंगाली मस्तिष्क उस पर छाया हुआ था और जब वह मस्तिष्क पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध व सम्मोहन से मुक्त होकर राष्ट्रीय गौरव, स्वाभिमान एवं आदर्शों से अनुप्राणित हुआ तो अंग्रेज उसमें निहित भारतीय राष्ट्रवाद के उभार को अपने साम्राज्य के भविष्य के लिए खतरा देखने लगे थे। वस्तुत: बंगाल के विभाजन और ढाका को राजधानी बनाने के पीछे भी उनका यही भय काम कर रहा था। उनके गुप्तचर विभाग की रपटें उन्हें बता रही थीं कि मूÐच्छत बंगाल की यह ऊपरी शान्ति भ्रामक है और उसके नीचे सशस्त्र क्रांति की चिंगारियां सुलग रही हैं। अत: बंग-भंग के निरस्तीकरण के साथ ही कलकत्ता से राजधानी का स्थानान्तरण क्रांतिकारी बंगाल के भय से ब्रिटिश सत्ता का पलायन था।मजहब के आधार पर विभाजनभारतीय राष्ट्रवाद के लिए इस निर्णय के पीछे विद्यमान ब्रिटिश कूटनीति की दूरगामी योजनाएं अधिक चिन्ता का विषय थीं। मिंटो-मोर्ले जोड़ी ने अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों की ब्रिटिश प्रतिनिधित्व संविधानिक प्रणाली को पाने की भूख का लाभ उठाकर संविधानिक सुधार प्रक्रिया के नाम पर पहली बार 1909 के भारत एक्ट के माध्यम से भारत में निर्वाचन प्रणाली से प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त का बीज बोया, जिससे ब्रिटिश संसदीय प्रणाली से सम्मोहित नरमदली शिक्षित वर्ग गद्गद् होकर उसे लपकने के लिए दौड़ पड़ा। किन्तु निर्वाचन प्रणाली के आरोपण के साथ-साथ इस एक्ट में मुसलमानों को पृथक मताधिकार भी प्रदान किया गया। भारतीय समाज को मजहब के आधार पर संविधान में भी विभाजित कर दिया गया। भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध मजहबी पृथकतावाद को मैदान में उतारने का यह साम्राज्यवादी कुचक्र था। भूगोल की छाती पर से प्रशासनिक विभाजन की लकीरें भले ही मिटा दी गईं किन्तु राष्ट्रीयता की छाती पर साम्प्रदायिक विभाजन की दीवार खड़ी कर दी गई, जिसकी परिणति 1947 के देश-विभाजन में हुई।मजहब के आधार पर एक पृथक मताधिकार का यह संविधानिक निर्णय इतना खतरनाक था कि नरमदलीय कांग्रेस पार्टी ने भी दिसम्बर, 1909 में पं. मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में आयोजित अपने लाहौर अधिवेशन में इस निर्णय की कड़ी निन्दा की। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत करके विश्व के संविधानिक इतिहास में इसे एक अनहोनी घटना बताया। उन्होंने कहा कि एक विशिष्ट मजहब के अनुयायियों को अनुचित रूप से एवं बहुत अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को पारित करके 1909 के भारत एक्ट को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया और 1916 में लखनऊ पैक्ट होने तक इसे स्वीकार नहीं किया। कहने को तो अंग्रेज दावा कर रहे थे कि निर्वाचन के द्वारा प्रतिनिधित्व का अधिकार देकर वे सत्ता को भारतीयों को सौंपने की दिशा में कदम उठा रहे हैं किन्तु मालवीय जी ने लाहौर कांग्रेस के अध्यक्ष पद से कहा कि यह महज धोखा है क्योंकि गैर-सरकारी निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या सरकारी एवं सरकार द्वारा मनोनीत गैर-सरकारी प्रतिनिधियों की संयुक्त संख्या से बहुत कम है। सरकार द्वारा मनोनीत गैर-सरकारी प्रतिनिधि हमेशा सरकार के अंध-समर्थक रहेंगे। यह एक प्रकार से सत्ता का प्रलोभन दिखाकर नरमदली शिक्षितों को भी आपस में बांटने का प्रयास है। वायसराय की कार्यकारिणी में भी पहली बार एक भारतीय को मनोनीत किया गया था और वे थे बंगाल के नरमदलीय ब्रिटिश भक्त एडवोकेट सत्येन्द्र प्रसन्न सिन्हा।आश्चर्य की बात यह थी कि जहां अन्य सब प्रान्तों में गैर-सरकारी निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या सरकारी अधिकारियों एवं मनोनीत गैर सरकारी प्रतिनिधियों की तुलना में कम थी तो अकेले बंगाल में यह संख्या अधिक थी। इसका रहस्य क्या था? बंगाल में निर्वाचित प्रतिनिधियों में पृथक मताधिकार से चुने गए मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या बहुत अधिक थी और अंग्रेजों को पूर्ण विश्वास था कि यह मुस्लिम बहुमत राष्ट्रवादी प्रतिनिधियों के पैरों में बेड़ी का काम करेगा। वस्तुत: लार्ड मिन्टो ने भारत आगमन के साथ ही भारत राष्ट्रवाद के विरुद्ध “फूट डालो और राज करो” नीति का क्रियान्वयन प्रारम्भ कर दिया था। अंग्रेज प्रशासकों एवं चिन्तकों ने अपने सूक्ष्म अध्ययन से यह पहचान लिया था कि भारत में हिन्दू नाम से अभिहित समाज और इस्लाम मतावलम्बी समाजों की मानसिकता में कुछ मूलभूत अन्तर है। हिन्दू समाज जहां अपने को इस भूमि के पुत्र और भूमि को अपनी माता के रूप में देखता है, उसे अपने देश के प्राचीन इतिहास और संस्कृति पर गर्व है, मातृभूमि की विदेशी दासता से मुक्ति उसकी सहज स्वयंस्फूर्त आकांक्षा है, अत: वह हमारे प्रभुत्व को सहन नहीं कर सकता और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता रहेगा। जबकि भारत का मुस्लिम समाज मतान्तरितों का वंशज होने के बाद भी स्वयं को विदेशी आक्रमणकारियों का वंशज मानता है, स्वयं को इस देश के पुराने शासक और हिन्दुओं को अपने शासितों के रूप में देखता है, वह इस भूमि को माता नहीं मानता, वह मजहब को अपनी सामूहिक पहचान का आधार मानता है और भौगोलिक देशभक्ति की जगह स्वयं को वैश्विक इस्लामी उम्मा का अंग मानता है। कलकत्ता मदरसा के एक पिं्रसिपल कैप्टेन ली ने 1854 से 1858 तक मुस्लिम मानसिकता का गहरा अध्ययन करके 1858 में एक गुप्त नोट में ये सब बातें गवर्नर जनरल को सूचित कीं, यह दस्तावेज राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित है। फिर 1869 से 1872 तक वायसराय लार्ड मेयो भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद से समझौता करना ब्रिटिश हित में है। इस काम पर उन्होंने डब्ल्यू.डब्ल्यू. हंटर को लगाया, उन्होंने मुसलमानों के साथ संधि का पुल बनाने के लिए 1871 में “इंडियन मुसलमान” नामक पुस्तक प्रकाशित की। इधर अंग्रेजी शिक्षित राष्ट्रवादी हिन्दू ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र को पाने को आतुर थे तो सर सैयद अहमद, अमीर अली और अब्दुल लतीफ जैसे पढ़े-लिखे मुस्लिम नेता मुसलमानों को 1885 में स्थापित कांग्रेस से अलग रहने को उकसा रहे थे। सर सैयद ने अपने लखनऊ और मेरठ भाषणों में स्पष्ट कहा कि संसदीय लोकतंत्र को अपनाने का अर्थ होगा मुसलमानों पर हिन्दू बहुसंख्या का शासन जो हमें कदापि स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि हमारी रगों में भारत के पुराने विजेताओं और शासकों का खून है। हम लोकतंत्र की नहीं, तलवार की भाषा से निर्णय करेंगे। उन्होंने राष्ट्रवादी उभार के विरुद्ध ब्रिटिश शासन के साथ गठबंधन का मार्ग निकाला। इसी गठबंधन के प्रतीक स्वरूप 1877 में लार्ड लिटन और सर सैयद ने मिलकर अलीगढ़ में एंग्लो ओरियंटल कालेज की स्थापना की। इस कालेज का पिं्रसिपल हमेशा अंग्रेज होता था- कभी थियोडोर बेक तो कभी आर्चीबोल्ड। यह अंग्रेज पिं्रसिपल ही मुस्लिम नेतृत्व और ब्रिटिश सरकार के बीच सम्पर्क पुल का काम करते थे।बड़े विभाजन की तैयारीअत: लार्ड मिन्टो ने भारत पहुंचते ही इस पुल का सहारा लिया। उनके निजी सचिव कर्नल डनलप स्मिथ ने अलीगढ़ कालेज के पिं्रसिपल आर्चीबोल्ड की सहायता से सर आगा खां के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल की 1 अक्तूबर, 1906 को वायसराय लार्ड मिन्टो से शिमला में भेंट आयोजित की। इस प्रतिनिधिमंडल ने मिन्टो को अपनी मांगों का जो ज्ञापन भेंट किया उसके लिखने में भी आर्चीबोल्ड और डनलप की मुख्य भूमिका थी। इस ज्ञापन में ब्रिटिश सरकार को मुस्लिम वफादारी का भरोसा दिया गया, उनकी अलग अस्मिता का उल्लेख किया गया और हिन्दू बहुसंख्यक द्वारा उत्पन्न भय से बचने के लिए विशेष संविधानिक स्थिति एवं प्रतिनिधित्व की मांग रखी गई। यह ज्ञापन पहली बार हिन्दू समाज के अन्त्यज वर्ग को, जिसे दलित वर्ग कहा जाता था, हिन्दुओं से अलग करने का संकेत देता है। एक पूर्व निर्धारित नाटक में लार्ड मिन्टो ने बड़ी गंभीरता के साथ मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल को सुना, अपने ही निजी सचिव द्वारा लिखित ज्ञापन को पढ़ा और मुस्लिम आकांक्षाओं के साथ न्याय करने का वचन दिया। इधर ढाका के नवाब सलीमुद्दीन की अध्यक्षता में ढाका में दिसम्बर, 1906 में मुस्लिम लीग का जन्म ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादारी की शपथ के साथ हुआ, तो लार्ड मिन्टो के वचन की पूर्ति 1909 के भारत एक्ट में मुसलमानों को पृथक मताधिकार के रूप में की गयी। भारतीय राष्ट्रवाद छला गया, किन्तु ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र के सम्मोहन का बंदी बनकर आत्मघात के रास्ते पर आगे बढ़ चला। यद्यपि विपिन चन्द्र पाल जैसे भविष्यदृष्टा नेताओं ने उसी समय भारत के लिए ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की अनुपयुक्तता को रेखांकित कर दिया था। उसी समय गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में “हिन्द स्वराज” नामक पुस्तक में ब्रिटिश संसद को “वेश्या” तक लिख दिया था और भारत आने के बाद काउंसिल बहिष्कार को अपने असहयोग आन्दोलन का अंग बनाया था। किन्तु 1920 से 1947 तक राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास साक्षी है कि एक ओर गांधी जी जनान्दोलन के सृजन में लगे तो ब्रिटिश सरकार राष्ट्रीय नेतृत्व के एक वर्ग को संविधानिक प्रक्रिया में खींचने की कोशिश में लगी रही और इस प्रक्रिया के भीतर राष्ट्रवाद और मुस्लिम पृथकतावाद के बीच सौदेबाजी को आगे बढ़ाती रही। 1911 में छोटा विभाजन तो खत्म हो गया, पर बड़े विभाजन के बीज बोने के बाद।(24 जून, 2005)NEWS
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