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हिन्दू भूमि
सुरेश सोनी
दर्शन
साधारणत: दर्शन के लिए अंग्रेजी के “फिलासफी” शब्द का प्रयोग होता है। परन्तु दर्शन और “फिलासफी” में मूलभूत अंतर है। “फिलासफी” लैटिन शब्द है। यह दो शब्दों के योग से बना है। “फिलास” का अर्थ है प्रेम तथा “सोफिया” का अर्थ है बुद्धि। इस प्रकार “फिलासफी” का अर्थ हुआ-बुद्धिप्रेम।
जब हम विचार करते हैं कि बुद्धि का कार्य क्या है तो ध्यान में आता है कि विश्लेषण करना और निष्कर्ष निकालना। अत: यूरोप के जितने भी तत्व चिंतक-सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, हीगल, माक्र्स, फ्रायड, मिल, कांच, युंग आदि हुए, सभी ने मनुष्य का, जगत का बौद्धिक विश्लेषण किया था। अत: बुद्धि से आगे सत्य की अनुभूति का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता है।
दर्शन का अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाय और जो कुछ देखा जाय वह दर्शन है। इस प्रकार दर्शन में मात्र बौद्धिक धरातल पर विश्लेषण मात्र ही नहीं, प्रत्यक्ष अनुभूति का मार्ग भी उसमें है।
अत: भारत में दर्शनों का तात्विक विश्लेषण किया गया। अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क करते हुए दर्शन की यात्रा आगे बढ़ी। पर भारतीय चिन्तक मात्र इतने से सन्तुष्ट नहीं हुए। वे प्रत्यक्ष अनुभूति करना चाहते थे इसलिए विभिन्न साधना पद्धतियां विकसित हुईं।
बुद्धि की मर्यादा- पश्चिमी जगत में अंतिम सत्य की खोज की यात्रा अधूरी-सी दिखाई देती है। इसका कारण एक घटना से स्पष्ट हो सकता है- “एक बार वर्तमान युग के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन से किसी ने पूछा कि हम अंतिम सत्य को क्यों नहीं जान पाते?” इस पर आइंस्टीन ने कहा, “इसका कारण है कि हम अपनी इन्द्रियों और बुद्धि के उपकरण से सत्य जानने का प्रयत्न कर रहे हैं और यह दिक्, काल तथा निमित्त की परिधि से बाहर नहीं जा सकती।”
लिंकन बारनेट ने “दी यूनिवर्स एण्ड डाक्टर आइंस्टीन” नामक एक सुन्दर पुस्तक लिखी है। इसमें वह कहता है, “अंतिम सत्य जानने में मनुष्य के समक्ष सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि वह उस संसार का हिस्सा है जिसका वह उद्घाटन करना चाहता है। उसका शरीर और गर्वीला मस्तिष्क उन्हीं तत्वों से निर्मित है जिनसे अन्त: नक्षत्रीय दिक् के मेघों का सृजन हुआ है। अन्तत: वह मौलिक दिक्, काल, क्षेत्र की ही एक क्षणभंगुर अभिव्यक्ति है।”
मनुष्य में निहित इस न्यूनता के बाद भी मनुष्य की विलक्षण विशेषता का उल्लेख करते हुए लिंकन बारनेट कहता है, “क्या वह अपनी श्रेष्ठतम और विलक्षण विशेषता को जानता है? वह विशेषता है स्वयं को लांघकर स्वयं को प्रत्यक्ष अनुभूति के द्वारा देखना। इसी कारण आइंस्टीन ने कहा, “यदि सत्य जानना है तो अपनी बुद्धि के परे छलांग लगाओ।” परन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि पश्चिम के पास वह मार्ग नहीं है जिससे बुद्धि के परे छलांग लगाई जाय। यहीं पर भारतीय दर्शन और पश्चिमी “फिलासफी” का अंतर प्रारम्भ होता है। भारतीय दर्शन यात्रा में भी कोई दार्शनिक एकदम अंतिम सत्य के निकट नहीं पहुंचा। इस संदर्भ में श्वेताश्वतर उपनिषद् वर्णन करता है कि एक बार अनेक तत्वज्ञ आपस में मिले और चर्चा करने लगे-
किं कारणं ब्राह्म कुत: स्म जाता, जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा:।
अधिष्ठाता केन सुखेतरेषु, वर्तामहे ब्राह्मविदो व्यवस्थाम।।
(श्वेताश्वतर 1-1)
अर्थात् हे ज्ञानी जनो! इस जगत् का मुख्य कारण ब्राह्म कौन है? हम लोग किससे उत्पन्न होते हैं? हम किसमें जी रहे हैं? हम किसमें सम्यक् प्रकार से स्थित हैं? किसके अधीन निश्चित व्यवस्था के अनुसार सुख-दु:ख का अनुभव करते हैं? (पाक्षिक स्तम्भ)
(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार)
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