टी.वी.आर. शेनाय
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टी.वी.आर. शेनाय

by
Nov 7, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Nov 2004 00:00:00

कोई मोहलत नहींउंगली की स्याही छूटने तक….”तब तक उंगली मत उठाओ, जब तक कि उस पर लगी स्याही छूट नहीं जाती।” यह भारतीय राजनीति की अनलिखी परम्परा रही है।इसका अर्थ है कि विपक्ष को सत्तारूढ़ दल को कम से कम तब तक तो मोहलत देनी ही चाहिए जब तक कि तर्जनी उंगली पर लगी अमिट स्याही (जो मतदान के समय लगायी जाती है) हट नहीं जाती। लेकिन लगता है अब यह “हनीमून पीरियड” वाली अवधारणा भी खत्म होती जा रही है। चौदहवीं लोकसभा में नए चुने हुए सदस्यों के शपथ लेते ही हंगामा शुरू हो गया। अगर राष्ट्रपति के अभिभाषण और लोकसभा अध्यक्ष व उपाध्यक्ष के चुनाव के समय की शांति को छोड़ दें तो लोकसभा का पहला सत्र खूब हंगामाखेज रहा। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मौका मिला और उन्होंने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के मंत्रिमंडल में दागी सांसदों को शामिल किए जाने के मुद्दे पर जमकर हंगामा करने का मौका हाथ से जाने नहीं दिया।जब तक यह लेख आपके सामने होगा, बजट सत्र भी शुरू हो चुका होगा। मैं आगे और हंगामे की भविष्यवाणी करता हूं। अगर आर्थिक, विशेष रूप से पेट्रोल आदि की बढ़ी हुई कीमतों के मुद्दे को नहीं उठाया तो निश्चित रूप से राज्यपालों को हटाने का मुद्दा तो अवश्य ही उठाया जाएगा। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार विभिन्न राज्यों के राजभवनों में अपने लोगों को बैठाने पर दृढ़संकल्पित दिखाई दे रही है, भले ही वे स्थान खाली न हों।वस्तुत:, राज्यपालों को हटाना, राज्य सरकारों को बर्खास्त करने की पुरानी परम्परा से तो शायद बेहतर है। इंदिरा गांधी मानती थीं कि लोकसभा चुनाव में उनकी जीत का अर्थ है कि वह राज्य में गैरकांग्रेसी सरकारों को इस आधार पर बर्खास्त कर सकती हैं कि वे सरकारें अपना जनाधार खो बैठी हैं। 1977 में जब जनता दल की साझा सरकार केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई तो केन्द्रीय गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कई कांग्रेसी मंत्रिमण्डलों को बर्खास्त कर वही उदाहरण पेश किया। (यह तर्क भी दिया गया कि मंत्रिमंडलों की अवधि समाप्त हो चुकी है। ये 1972 में चुने गए थे और जिस 42वें संशोधन के द्वारा इनकी अवधि बढ़ायी गई थी, वह पूरी तरह असंवैधानिक था।) 1980 में एक बार फिर इंदिरा गांधी जब दोबारा सत्ता में आयीं तो उन्होंने जनता सरकार के मंत्रिमण्डलों का बोरिया-बिस्तरा बंधवा दिया।प्रतिशोध की यह नीति 1984 में खत्म होती दिखाई दी। कर्नाटक, जहां कि जनता पार्टी की सरकार थी, में आम चुनावों में कांग्रेस (आई) को अप्रत्याशित सफलता मिली। अनेक कांग्रेसियों ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी से अपील की कि वे राज्य में सत्तारूढ़ रामकृष्ण हेगड़े सरकार को बर्खास्त कर दें। राजीव गांधी ने यह कहते हुए ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया कि ऐसा कोई फैसला लेना मुख्यमंत्री की मर्जी पर निर्भर करता है। पर हेगड़े ने इस पर विचार किया और अपने मंत्रिमंडल के त्यागपत्र के कागज पेश कर दिए। (वह संभवत: भारतीय जनता पार्टी के बाहरी समर्थन से लगभग दो साल तक अल्पमत सरकार चलाते रहे।) लेकिन मतदाताओं ने हेगड़े को एक बार फिर भारी मतों से जिताकर सबको हैरत में डाल दिया और हेगड़े सरकार की पुन: वापसी हुई।राजनीतिक दल यह कहते रहे हैं कि अगर राज्य में सत्तारूढ़ दल लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं करता तो उसे सत्ता छोड़ देनी चाहिए, लेकिन मुझे खुशी है कि संघीय सरकार इस मामले में कुछ दकियानूसी रही है। सच तो यह है कि विधानसभा और लोकसभा चुनावों में बहुत थोड़ा सा संबंध है। इसके अनूठे उदाहरण थे 1998 के विधानसभा चुनाव, जो 1998 और 1999 के आम चुनावों के बीच हुए थे।1998 में भाजपा ने मध्य प्रदेश में 40 में 30 और दिल्ली में 7 में से 6 संसदीय क्षेत्रों में विजय प्राप्त की थी। लोकसभा चुनावों में जैसी जीत हुई थी, उसी साल सर्दियों में हुए विधानसभा चुनावों में उसे वैसी ही हार का सामना करना पड़ा। 1999 में पुन: भाजपा को मध्य प्रदेश में 29 स्थान तथा दिल्ली में सातों स्थानों पर विजय मिली। अगर हम यह सोचते हैं कि मतदाता दोनों चुनावों (लोकसभा-विधानसभा) में अंतर नहीं समझता तो यह उसके विवेक को कम करके आंकना होगा।राज्य सरकारों के साथ छेड़छाड़ न करने की स्वस्थ परम्परा स्थापित करने के बाद यह शर्मनाक है कि राज्यपालों को उसी तरह अछूता नहीं छोड़ सकते। वैसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को इस बात का श्रेय देना चाहिए। वाजपेयी मंत्रिमण्डल ने अधिकांश राज्यपालों को उनके पूर्व कार्यालयों में ही रहने दिया। (वे अपवाद हैं, जिन्हें इन्द्र कुमार गुजराल की कार्यवाहक सरकार ने नियुक्त किया था) मैंने इतना सब कुछ इसलिए कहा, क्योंकि मेरे पास संभावित सुधारों के दो विचार हैं।पहला, यह सुनिश्चित किया जाए कि राजभवनों में सिर्फ गैरराजनीतिक व्यक्ति ही भेजे जाएंगे। (कोठारी आयोग ने भी ऐसी ही सिफारिश की थी।) एक और विकल्प है, क्या बेहतरी इसमें नहीं है कि राज्यपाल का पद ही समाप्त कर दिया जाए?आखिरकार ज्यादातर राज्यपाल करते ही क्या हैं? वे मंत्रियों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलवाते हैं, यह काम तो स्थानीय मुख्य न्यायाधीश भी कर सकते हैं। वे उद्घाटन करते हैं और भाषण देते हैं, निर्विवाद रूप से यह काम तो मंत्री भी कर सकते हैं। राज्यपाल सही अर्थों में तो अपना काम राष्ट्रपति शासन के दौरान ही करते हैं, इस अवधि के लिए विशेष नियुक्तियां हो सकती हैं।करदाता के ऊपर वैसे भी बहुत बोझ है। क्यों राज्यपाल जैसे सिर्फ तामझाम वाले बनावटी पद को बरकरार रखा जाए? 30.06.0429

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