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तेलंगानाकांग्रेस की उम्मीदों का बेसुरा तरानाकांग्रेस पर इन दिनों एक साया मंडरा रहा है- पोट्टी श्रीमालु का साया। और यह देख-देखकर चन्द्रबाबू नायडू फूले नहीं समा रहे हैं। अपने गृह प्रदेश आंध्र के बाहर पोट्टी श्रीमालु लगभग भुलाए जा चुके थे, परन्तु उनकी विरासत अब भी भारतीय राजनीति पर प्रभाव डालती है। बात 1920 की है जब कांग्रेस ने अपने नागपुर अधिवेशन में आधिकारिक तौर पर भाषायी राज्यों का सिद्धान्त स्वीकारा था। बहरहाल, आजादी के बाद भारत सरकार ने इस नीति को लागू नहीं किया, क्योंकि लोगों को पांथिक आधार पर बंटे अभी बहुत समय नहीं बीता था। अत: भारत के नेता भाषा के नाम पर देश के और अनेक छोटे-छोटे हिस्से नहीं बनाना चाहते थे।पोट्टी श्रीमालु अगर शांत रहते तो वह मुद्दा वहीं खत्म हो गया होता। उन्होंने मद्रास से एक पृथक आंध्र के निर्माण की मांग पर आमरण अनशन शुरू कर दिया। आजकल के “आमरण” अनशनों से अलग पोट्टी श्रीमालु ने जो कहा, उसे यथार्थ कर दिखाया। उनकी मृत्यु से विरोध की ऐसी तेज लहर चली कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी उसका सामना नहीं कर पाए। रायलसीमा और तटीय आंध्र नवगठित आंध्र प्रदेश के केन्द्र-बिन्दु बन गए। 1956 में पुरानी हैदराबाद रियासत से अलग करके तेलंगाना को अन्य तेलुगु भाषी क्षेत्रों के साथ मिला दिया गया।वह कदम विवादास्पद था, क्योंकि तेलंगाना में काफी संख्या में लोग विलय के विरोधी थे। आगे, 1970 के दशक के शुरुआती समय तक, यह एक प्रमुख चुनावी मुद्दा था, लेकिन बाद में यह धीरे-धीरे समाप्त होता गया। पर अब लग रहा है कि वह समाप्त नहीं हुआ था बल्कि सतह के नीचे दबा हुआ था। तेलंगाना राष्ट्र समिति ने अलग तेलंगाना की मांग को बड़े पैमाने पर फिर से उभार दिया है। समिति को स्थानीय निकाय के पिछले चुनावों में खासी सफलता मिली थी। इतनी सफलता कि सोनिया गांधी ने नए दल के साथ चुनाव-पूर्व गठजोड़ करने का इरादा कर लिया।कांग्रेस, जिसने हमेशा आंध्र प्रदेश के निर्माण पर अपनी पीठ थपथपाई है, अब उसी दल के साथ गलबहियां डाले है जिसका एकमात्र लक्ष्य पृथक तेलंगाना का गठन है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा पृथक तेलंगाना के आह्वान के प्रति थोड़ी सहानुभूति दर्शाती दिखी है, हालांकि चन्द्रबाबू से भिन्न पार्टी का कोई आधिकारिक मत नहीं रहा है। (भाजपा के प्रमुख चुनाव प्रचारकों में से एक अभिनेत्री विजयाशांति- “लेडी अमिताभ”- ने सार्वजनिक रूप से इस मांग का समर्थन किया है।)तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ कांग्रेस के गठजोड़ ने चतुर मुख्यमंत्री को जाने-अनजाने में एक बड़ा मुद्दा सौंप दिया। तटीय आंध्र और रायलसीमा (जो मिलकर आंध्र प्रदेश का दो तिहाई भाग हैं) में कांग्रेस को फटकारने के लिए उनके हाथ एक बढ़िया मौका लग गया है। वे राज्यभर में दौरा करके सोनिया गांधी व उनकी पार्टी पर पोट्टी श्रीमालु और प्रखर मुख्यमंत्री, “आंध्र केसरी” टी. प्रकाशम के परिश्रम के साथ धोखा करने का आरोप लगा रहे हैं। अदम्य विजयाशांति की यदा-कदा टिप्पणियों के अलावा भाजपा का मौन नायडू को पैंतरे बदलने का पर्याप्त मौका दे रहा है।मुख्यमंत्री इस तथ्य का भी बहुत लाभ उठा रहे हैं कि नक्सलवादी- जिनका मुख्य केन्द्र तेलंगाना ही है- मुख्य रूप से तेलुगुदेशम पर निशाने साथ रहे हैं। (1950 से ही यह धुर वामपंथी गुट तेलंगाना आंदोलन का समर्थक रहा है।) यह स्थिति तेलंगाना के मतदाताओं को चिंतित किए हुए है, जो पृथक राज्य के विचार से भले ही सहमत हों पर पहले सुख, शांति चाहते हैं। इस मुद्दे पर भी तेलंगाना में कभी एकमत नहीं रहा है।कांग्रेस के पास चंद्रबाबू नायडू के प्रचार का तोड़ नजर नहीं आता। तेलंगाना राष्ट्र समिति की नाराजगी से बचने के लिए वह तेलंगाना की मांग को काट भी नहीं सकती। साथ ही, यह “तेलुगू आत्म-गौरवम” (तेलुगू स्वाभिमान) की यादों से भी भयभीत है। इसी युद्ध-घोष के साथ स्व. एन.टी.रामाराव ने राज्य में पहली गैरकांग्रेसी सरकार स्थापित की थी।प्रत्येक कांग्रेसी इस बात पर सहमत था कि भाजपा और तेलुगुदेशम का सामना करने के लिए सहयोगियों की आवश्यकता है। तेलंगाना राष्ट्र समिति सबसे बेहतर विकल्प था (वामपंथियों की ओर से कुछ छिटपुट समर्थन के साथ)। लेकिन तब और अच्छा होता जब इस कदम के असर का नाप-जोख कर लेने और उसके अनुसार तैयारी करने के लिए थोड़ा अधिक समय मिल जाता। आंध्र प्रदेश में दूसरे चरण का मतदान खत्म होने में 10 दिन भी नहीं बचे हैं, अत: अब बहुत देर हो चुकी है। 1999 में यहां 42 में से 5 सीटें जीतने वाली कांग्रेस का प्रदर्शन निश्चित तौर पर बेहतर होगा। लेकिन अगर राज्य का नियत्रंण हाथ में आने का कोई वास्तविक मौका था भी, तो तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ अफरा-तफरी में किए गए समझौते ने उसे प्रभावी रूप से खत्म कर दिया है। कांग्रेस की तुलना में चंद्रबाबू नायडू के पास कुछ बेहतर साथी हैं। 19.4.0416
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