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चुनाव : बस एक मनोरंजक कार्यक्रमदीनानाथ मिश्रमनोरंजन की भूख आदिमानव में भी रही होगी। और आज तो यह भूख इस कदर बढ़ गई है कि इसका जलवा आप टेलीविजन के पर्दे पर रोजाना देख सकते हैं। 19वीं शताब्दी में अर्थात् हाल-हाल तक ब्रिटेन के एक मनोरंजक उत्सव का नाम “रैटिंग” था। इसमें महीनों तक चूहों को बड़े प्यार से खिला-पिला कर पाला-पोसा जाता था। बड़े-बड़े चूहे दो-दो किलो तक के हो जाते थे। जो सलूक चूहों के साथ होता था वैसा ही कुछ कुत्तों के साथ भी होता था। फिर निर्धारित दिन बड़ी संख्या में लोग जुटते और “रैटिंग” शुरू हो जाती। लगभग तीन फीट का गड्ढा खोदकर 40-50 चूहों को गड्ढे में फेंक दिया जाता था। साथ ही एक कुत्ते को भी छोड़ देते। बाड़ के बाहर से लोग इस मनोरंजक दृश्य को देखते थे। कुत्ता गड्ढे में से निकलने वाले चूहों को मार डालता। चूहे भागते जाते, कुत्ता उन्हें मारता जाता। लेकिन पन्द्रह-बीस चूहों के मरने के बाद बचे हुए चूहे अपने नुकीले दांतों से कुत्ते के पिछले भागों को नोच लेते। कुत्ता भी लहूलुहान होता जाता। कई बार घायल हो जाता। चूहे उसे नोच-फाड़कर पेट तक में घुस जाते। कुत्ता बेबस होकर तड़पता मगर कुछ कर नहीं पाता। अलबत्ता दर्शकों का मनोरंजन होता रहता। “रैटिंग” का यह खेल समाज का वार्षिक मनोरंजक कार्यक्रम था। दुनियाभर में तरह-तरह के ऐसे खेल प्रचलित थे। टांग में छुरी बांधकर मुर्गों की लड़ाई। ऊंट पर बच्चे को बांधकर ऊंट की दौड़ जैसे सैकड़ों मनोरंजक कार्यक्रम भी प्रचलित रहे हैं।आपने कभी कुश्ती भी देखी होगी। मैं अखाड़े वाली कुश्ती की बात नहीं कर रहा। अमरीकी कुश्ती की बात कर रहा हूं। बाÏक्सग वाली कुश्ती। दो विशालकाय पहलवान अपनी मांसपेशियों को तानकर, समझिए अपने डोलों के जरिए दैत्याकार आकृति बना लेते हैं। सामने वाले पहलवान पर आंखें कुछ इस तरह तरेरते हैं मानो वह उसका भुरता बना देंगे। अगला वाला भी वैसी ही मुद्रा में आता है और घमण्ड को चकनाचूर कर डालने की चुनौती दे डालता है। बाÏक्सग वाली यह कुश्ती बड़े नाटकीय अंदाज में चालू होती है। होती यह नूराकुश्ती है लेकिन असली कुश्ती का मजा दे जाती है। कभी-कभी पहलवान लहूलुहान भी हो जाते हैं। हर क्षण बड़ा रोमांचक होता है। ऐसी कुश्तियों में एकाध बार किसी पहलवान के मरने का भी हादसा हुआ है। कई बार निर्णायक तक की धुनाई हो जाती है। दर्शकों की तो बस मनोरंजन में ही दिलचस्पी होती है। कई बार पिटने वाले के साथ सहानुभूति हो जाती है और दर्शक चाहते हैं कि अब वह साहस जुटाए और पलटवार करके अपने सामने वाले पहलवान की जमकर धुनाई कर दे। कुश्ती के इस खेल के हित में उत्तेजना को आगे बढ़ाने के लिए पीटने वाले की भूमिका पिटने वाले में बदल जाती है। तालियों की गड़गड़ाहट और दर्शकों की ओर से प्रेरक ललकार के बीच कुश्ती का पलड़ा कभी इधर तो कभी उधर झुकता नजर आता है।अखबारों और चैनलों में चुनाव भी एक तरह की कुश्ती ही है। या कह लीजिए कि क्रिकेट का मैच है। मीडिया के लिए यह चुनाव सब कुछ है। बाजार है, मुनाफा है, मनोरंजन है, प्रहसन है, व्यंग्य है, सब कुछ है। नहीं है तो बस गम्भीर और देश की तकदीर बनाने-बिगाड़ने वाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। यह तो आप जरूर जानते होंगे कि चुनाव के दिनों में अखबारों की बिक्री बढ़ जाती है। ठीक वैसे ही जैसे, क्रिकेट मैच के दिनों में टी.वी. की बिक्री बढ़ जाती है। आज का नजारा देखिए। टेलीविजन चैनल वाले चुनावी समाचारों को नए से नए अंदाज में पेश कर रहे हैं। एक से एक मनोरंजक। कोई राजनेताओं के मुखौटे लगाकर चुनावी चर्चा को हास्य व्यंग्य में बदल रहा है। कोई नेताओं, पार्टियों और चुनावों तक को प्रहसन का विषय बना रहा है। ढाबा जंक्शन वाले सज्जन भी चुनावी भट्टी में कूद पड़े हैं। चैनलों के लिए कुल मिलाकर ऐसे कार्यक्रम दर्शकों को धर-दबोचने की होड़ के हथियार बन गए हैं। चैनल वाले अपनी-अपनी अक्ल को खींच-खींचकर चुनाव को मनोरंजक कार्यक्रम बनाने पर तुले हैं। अमरीकी बाÏक्सग की तरह चुनावों को मनोरंजक बनाए रखने के लिए कभी किसी का पलड़ा भारी, तो कभी किसी का पलड़ा भारी करते रहते हैं ताकि चुनावी कार्यक्रमों की दिलचस्पी परिणामों तक बढ़ती ही जाए। और ऊपर से मजा यह कि सारी बात कह देने के बाद यह जरूर कहेंगे- यह तो मतगणना होने के बाद ही पता चलेगा। अरे भाई, अभी आप जो पलड़ा ऊपर-नीचे कर रहे थे, वो क्या था?19
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