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मुद्दों और समस्याओं के आरपारफर्क इन चुनावों काडा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवीहमारी लोकशाही के लिए यह गर्व की बात है कि हमने आजादी के बाद सबसे बड़ी प्राथमिकता संविधान बनाने को दी। 15 अगस्त को भारत स्वतंत्र हुआ और कुल मिलाकर दो वर्ष, तीन महीने एवं 11 दिन की अवधि में दुनिया का सबसे वृहत् संविधान सर्वसम्मति से तैयार हो गया। 26 नवम्बर, 1949 को संविधान के अंतिम निर्धारित प्रारूप पर हस्ताक्षर हुए और 26 जनवरी, 1950 को यह लागू हुआ। आधुनिक भारतीय इतिहास की यह श्रेष्ठ उपलब्धि चिरस्मरणीय है। संविधान ने जो आधारभूत मूल्य स्थापित एवं उद्घोषित किए, उनमें राष्ट्र की प्रभुसत्ता एवं गणतंत्रात्मक लोकशाही प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। बाद में समाजवाद और पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत जोड़े गए। संविधान में न्याय, समता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व, राज्य की पंथनिरपेक्षता, व्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता सप्तर्षिमंडल की तरह समाहित हैं और सर्वजनीन वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र ध्रुव नक्षत्र की भांति प्रदीप्त एवं सदा आलोकित है। राष्ट्र की लोकतंत्रात्मक आस्था की यह उद्घोषणा आज भी चौदहवें संसदीय आम चुनावों की दहलीज पर हमारी मानसिकता की बुनावट का हिस्सा है। संविधान निर्माण के कठिन दौर में हमारी आधारभूत आस्थाओं और वयस्क मताधिकार का यह निर्णय निष्ठाओं का तथा आशाओं और आकांक्षाओं की एक दूरदर्शी प्रतिज्ञा थी जिसने निरंतर हमारी लोकसत्तात्मक राज्य व्यवस्था में जीवंत प्राण-प्रतिष्ठा की है।1952 से लेकर 2004 में होने वाले संसदीय चुनावों की आबोहवा का मैं साक्षी हूं। बंगलादेश युद्ध के बाद श्रीमती इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में हुए चुनाव और श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में लड़े जा रहे इस चुनाव में एक ऐतिहासिक साम्य है, जो हमारे लोकतंत्र को समझने की एक कुंजी भी है और विश्लेषण का विषय भी। ये दोनों चुनाव इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि प्रधानमंत्री प्रणाली में चुनाव व्यक्ति केन्द्रित हुए बिना नहीं रहते। बंगलादेश युद्ध के बाद श्रीमती गांधी के नेतृत्व में हमारी संसदीय पद्धति में एक आमूलचूल परिवर्तन आया था। इंदिरा गांधी की लोकप्रियता बंगलादेश युद्ध में उनकी निजी संकल्पशक्ति पर आधारित थी। और श्री वाजपेयी की लोकप्रियता में भारत का सफल आणविक विस्फोट, कारगिल में हमारी विजय और अटल जी की शांति-प्रतिबद्धता की पृष्ठभूमि का जितना सुदृढ़ आधार है, उतना ही विकास की सुस्पष्ट गति और उसका विस्तार।परम्परा से मंत्रिमण्डल को संसद की एक विशिष्ट समिति माना गया है और तब संसदीय पद्धति में एक काबिना या मंत्रिमण्डल प्रणाली में प्रधानमंत्री का पद समकक्ष मंत्रियों के बीच प्रथम एवं वरिष्ठ कहा जाता है। किन्तु संसदीय प्रणाली जबसे प्रधानमंत्री-केन्द्रित संसदीय प्रणाली के रूप में आविर्भूत हुई, तब से राष्ट्रपति प्रणाली और परम्परागत संसदीय प्रणाली का फर्क बहुत कुछ मिट गया।प्रधानमंत्री प्रणाली के उभरते हुए इस मानचित्र को समझे बिना हम समकालीन संसदीय व्यवस्था के यथार्थ और मंत्रिमण्डल के भीतरी समीकरण को पूरी तरह व्याख्यायित नहीं कर सकते।पंडित नेहरू का व्यक्तित्व विराट था। वे उस समय भारतीय जनमानस के हृदय-सम्राट थे। उन्हीं के कार्यकाल में जब मैं लोकसभा में एक निर्दलीय सदस्य की हैसियत से चुनकर आया तब मैंने देखा जैसे आजकल संसद के दोनों सदन अटल जी को मंत्रमुग्ध होकर सुनते हैं वैसे ही, तब भी संसद के दोनों सदन पंडित नेहरू को मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। किन्तु पंडित नेहरू के समय में विपक्ष में बैठे हुए सांसदों की संख्या नगण्य सी थी। (गुणवत्ता की दृष्टि से यद्यपि उस समय का विपक्ष आज की तरह चाहे इतना प्रखर न रहा हो, किन्तु अधिक प्रबुद्ध एवं मुखर था और क्षमता की दृष्टि से भी अधिक सम्पन्न था)। वर्तमान विपक्ष संख्या की दृष्टि से लगभग समकक्ष है। किन्तु बात न संसद में संख्या की है, न प्रधानमंत्री पद की, बल्कि प्रधानमंत्री पद पर आसीन व्यक्ति के कद की है। यद्यपि पं. नेहरू के सुदर्शन चेहरे पर विषाद की जो रेखाएं मंैने उन दिनों देखी थीं, उन्हें भूलना मुश्किल है। पंडित नेहरू का कद चीन के साथ युद्ध के कई मोर्चों पर पराजय के बाद भी बना रहा। जबकि इन छ: वर्षों में रक्षा और विदेश नीति के संदर्भ में अटल जी का कद गगनचुंबी हो गया है। विकास की विराट योजनाओं और शांति के अथक प्रयत्नों ने अटल जी को व्यक्तित्व राजनीति का एक अचूक रामबाण बना दिया। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि भाजपा और राजग के लिए वे एक खेवनहार हैं।श्रीमती इन्दिरा गांधी के बाद श्री राजीव गांधी के समय में कमोबेश प्रधानमंत्री-प्रणाली विद्यमान रही। राजीव गांधी को आम चुनाव में सबसे अधिक बहुमत मिला था। उनकी स्वच्छ और सदाशयी छवि की अमित संभावनाएं पूर्णत: उदित होने से पहले ही श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के आरोपों से घिर गईं। उनके बाद श्री नरसिंहराव की सरकार अल्पमत पर आधारित थी, किन्तु उनके विवेक और संतुलन के कारण उनको उल्लेखनीय सफलताएं मिलीं और वे कई नई दिशाओं में नई पहल करने में सफल रहे। उनके बाद लोकतांत्रिक अस्थिरताओं की अराजकता का दौर चला। राजीव गांधी के बाद कोई प्रधानमंत्री जनमानस में प्रधानमंत्री-प्रणाली के अनुरूप सक्षम नेतृत्व की छवि नहीं बना पाया। श्री राव को भी अक्सर अपने ही दल में विरोध का सामना करना पड़ा। जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने प्रथम तेरह दिवसीय प्रधानमंत्रित्व के बाद 24 दलों के गठबंधन को लेकर प्रधानमंत्री पद पर आए तब राजनीतिक स्थिति विषम और विकट थी। उससे पूर्व एक के बाद एक सरकारें ताश के महल की तरह गिरती रहीं। देश का जनतांत्रिक भविष्य गंभीर खतरे में पड़ चुका था और उस समय श्री अटल बिहारी वाजपेयी की गठबंधन सरकार ने हमारे लोकतंत्र को बचाया। तब उनकी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया गया जो श्री गेमांग के अवैध मत से पारित तो हुआ किन्तु यह पराजय लोकसभा भंग होने पर श्री वाजपेयी की विजय बन कर आई। उनके अद्भुत व्यक्तित्व ने एवं उनकी सरकार की उपलब्धियों ने ज्योतिर्मय भारत और अच्छे अहसास की व्यापक अनुभूति दी, जिसके आधार पर भाजपा एवं गठबंधन में जुड़े राजनीतिक दल दूसरे मुद्दों और मसलों के परे और आर-पार विकास के मुद्दे को प्रमुखता दिलाने में समर्थ एवं सक्षम हुए हैं। यह चुनाव भारतीय लोकशाही में गठबंधन की सफलता का पहला चुनाव है, जो प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में श्री वाजपेयी को उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। इस चुनाव का अर्क और अन्य चुनावों से फर्क यही है कि हर मतदाता के सामने और मन में मतदान करते समय श्री वाजपेयी की छवि होगी।4
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