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पुस्तक समीक्षा

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Jan 8, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 08 Jan 2004 00:00:00

नयी आंच के गीतपुस्तक परिचयपुस्तक का नाम : मैं उगते सूरज का साथी(गीत संग्रह)कवि : डा. देवेन्द्र आर्यपृष्ठ संख्या : 143मूल्य : 150 रुपएप्रकाशक : साहित्य सहकार29/62-बी, गली नं. 11,विश्वासनगर, दिल्ली-110032हांलाकि यह जरूरी नहीं कि कविता छंद में ही लिखी जाए। छंद का बंधन और तुकबन्दी की अनिवार्यता के कारण कविता में कई बार सार्थक तरीके से अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। विरले ही छंदबद्धता में भी सार्थकता को साध पाते हैं। गजलों में भी इसका अनुशासन है और वह गीतों से भी बहुत कड़ा है। इस कारण अधिकांश लोग गजल कह तो लेते हैं लेकिन उसमें से गजलियत गायब रहती है। कविता में “लयात्मकता” अहम बात है। इसका अगर कवि ध्यान रखता है तो चाहे वह किसी भी शिल्प में कविता करे, उसमें कविताई के तत्व मौजूद रहते हैं। फिर भी, अगर कसे हुए, चुस्त-दुरुस्त छन्द में कोई सार्थक बात सामने आती है तो उस कविता का जवाब ही नहीं। वही कविता याद भी रह जाती है और समय के फेर में देर तक टिकने का माद्दा रखती है। इसी कारण कविता में छंद फिर से लौटने लगा है। इसका “स्वीकार” भी बढ़ रहा है।पिछले दिनों डा. देवेन्द्र आर्य का एक अच्छा गीत संग्रह- “मैं उगते सूरज का साथी” प्रकाश में आया है। इस संग्रह में 51 गीत संग्रहीत हैं। अधिकांश गीत स्तरीय और चुस्त-दुरुस्त छन्दों में पूरे प्रभाव के साथ प्रकट हुए हैं। लेकिन 143 पृष्ठों के इस संग्रह में 40 पृष्ठों में फैली भिन्न-भिन्न समीक्षकों की भूमिकाएं अथवा समीक्षाएं समझ से परे हैं। अपनी आत्मानुशंसा में एक साथ इतने लोगों की और इतनी अधिक मात्रा में टिप्पणियां, डा. देवेन्द्र आर्य जैसे वरिष्ठ और प्रतिष्ठत गीतकार के लिए स्वयं में एक टिप्पणी जैसी बात है, उन्हें इससे बचना चाहिए था।बहरहाल, अनेक दोहा-सतसइयों और गीत-संग्रहों के रचयिता डा.देवेन्द्र आर्य का यह संग्रह कई मायनों में विशिष्ट कहा जा सकता है। नयी आंच में पगे इन गीतों के माध्यम से उकेरी गई सामाजिकता अथवा राजनीति आधुनिक बोध के साथ परिलक्षित होती है। इनमें आए पौराणिक और आधुनिक बिम्ब-प्रतीक इतने मारक ढंग से अपनी बात कहते लगते हैं कि बरबस कबीर की याद आ जाती है। उनकी साफगोई कविता की ताकत बन गई है-“सत्य की मीनार अब ऊंची नहीं,झूठ कद्दावर हुआ पर्वत शिखर,न्याय का दरबार शकुनी हो गया,भीष्म पर हावी शिखंडी की नजर,अब शहादत की कहां है आरजू,देश गिरवी रख रहा है आदमी,नीति, कुल्टा अब नगर भर की वधूदस्यु के सपने हुए संसद भवन।””घोंसला फिर-फिर बुना है”, “बहुत हरा है”, “जिन्दगी पतझर नहीं मधुमास है”, “एक पहर ही तो बाकी है”, “दुनिया बड़ी है” जैसे गीत इस संग्रह को स्तर प्रदान करते हैं और कवि की काव्ययात्रा की सार्थकता को रेखांकित करते हैं। संग्रह के अधिकांश गीत अंधेरों में उजालों का जिक्र करते हैं। दु:ख का रोना नहीं रोते बल्कि दु:खों से ही सुखों का मार्ग खोजने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ उर्दू के शब्दों का प्रयोग कहीं-कहीं अखरता है…. जैसे- “क्यों रहें मुहताज पर की रोशनी से यूं”…. यहां मुहताज और रोशनी जैसे शब्दों के बीच “पर” (गैर) शब्द का संस्कृतनिष्ठ रूप अटपटा- सा लगता है। हालांकि ऐसी चूक बहुत अधिक नहीं है, फिर भी इन बारीकियों पर ध्यान तो देना ही चाहिए।कुल मिलाकर कहें तो डा. देवेन्द्र आर्य का यह गीत संग्रह नई तेजस्विता के उजास का सूर्य-रूप है, जिसके आलोक में हम अपने समय के अंधेरों को न केवल पहचान सकते हैं बल्कि उनसे लड़ने-भिड़ने का अपार साहस और सामथ्र्य भी जुटा सकते हैं। नरेश शांडिल्य29

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