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सुनो कहानी

by
Jan 8, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jan 2004 00:00:00

वे मंदिर रक्षकवेदोनों अभी बालक ही थे। एक का नाम था छत्रसाल, जो बुंदेलखंड के राजा वीरवर चंपतराय के पुत्र थे। छत्रसाल के साथी थे जुझार सिंह, ये भी उन्हीं की आयु वाले किशोर थे। दोनों ने तलवार चलाना अच्छी तरह से सीखा था। प्रसिद्ध विन्ध्यवासिनी देवी के मंदिर पर हर वर्ष लगने वाला मेला लगा तो ये दोनों किशोर भी देवी के दर्शनार्थ चल पड़े। दर्शन से पहले उन दोनों ने नदी में स्नान किया और फूल लेने वन में दूर निकल गए। वह जमाना था औरंगजेब का। वह हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के लिए बदनाम था। औरंगजेब ने तय किया कि ठीक मेले के समय विन्ध्यवासिनी देवी का मंदिर भी तोड़ दिया जाए। इसके लिए उसने अपने एक मुगल सरदार असलम खां को सैनिकों सहित दिल्ली से बुंदेलखंड, जहां वह मंदिर था, के लिए रवाना किया। उसी दिन जब छत्रसाल और जुझार सिंह फूल लेकर लौट रहे थे तो उनके सभी साथी बिछुड़ चुके थे। इसी बीच रास्ते में असलम खां से इन दोनों का सामना हो गया। असलम खां ने छत्रसाल से विन्ध्यवासिनी देवी मंदिर का पता पूछा कि “वह बुतखाना कहां पर है- किधर?” असलम खां और उसके साथियों को देखकर छत्रसाल समझ गए कि ये मंदिर तोड़ने जा रहे हैं। छत्रसाल और जुझार सिंह ने अपनी तलवार म्यान से निकाली और गरजकर कहा- “तू देवी मंदिर तोड़ेगा?” और तत्क्षण दोनों भिड़ गए मुगलों से। कई मुगलों के सिर काटकर डाल दिए। ठीक उसी क्षण छत्रसाल के बिछुड़े सभी साथी भी उन्हें खोजते वहां आ मिले। वे सभी भी सशस्त्र थे। खूब तलवारें चलीं- मुगल सरदार असलम उन बालकों का शौर्य देखकर भौंचक था। तभी छत्रसाल ने उचककर असलम खां पर ऐसा वार किया कि उसका सिर कटकर जमीन पर गिर गया। अपने सरदार को गिरते देख बाकी मुगल सैनिक भाग खड़े हुए। छत्रसाल ने अपनी किशोरावस्था में यह पहला युद्ध लड़ा और विजयी हुए। यद्यपि उनके पिता चंपतराय भी खबर पाकर इसी ओर चल पड़े थे किन्तु पिता पुत्र की यह भेंट मंदिर मार्ग पर ही हो गई, क्योंकि छत्रसाल तो मोर्चा जीतकर प्रसन्नचित्त अब देवी-दर्शनार्थ पहुंचने को थे। पिता गर्वित हुए छत्रसाल के सत्साहस और शौर्य पर, क्योंकि उन्होंने उस दिन देवी मंदिर बचा लिया मुगलों द्वारा तोड़े जाने से। आगे यही छत्रसाल इतिहास में अपना नाम अमर कर गए। मानस त्रिपाठी26

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