|
हरियाया सावन
डा. दयाकृष्ण विजयवर्गीय “विजय”
जब प्रत्यक्ष छोड़ जीता है, सपनों में जन-मन,
तपता ज्येष्ठ मास भी लगता हरियाया सावन।
तड़की-तड़की शुष्क सरित भी दिखती बाढ़ भरी,
लम्बे रेतीले सागर में तिरती दिखे तरी;
नागफनी का वन भी लगता गंधाया उपवन।
तपता ज्येष्ठ मास भी लगता हरियाया सावन।
मिला शब्द से शब्द बोलते द्वार टंगे तोते,
झूठ-मूठ जागे भी कहते हम तो थे सोते;
जुड़कर शिल्प अलंकृत करता संवेदित भावन।
तपता ज्येष्ठ मास भी लगता हरियाया सावन।
27
टिप्पणियाँ