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डा. जोशी को भारतीय प्रबंधन संस्थानों का
शुल्क क्यों नहीं घटाना चाहिए था!
-राजेश मोहन
मैं भाजपा का समर्थक रहा हूं। जब भाजपा कहती है कि दूसरे राजनीतिक दल पंथनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों का तुष्टीकरण कर रहे हैं, तो मैं उससे सहमत होता हूं। मैं भाजपा के समान आचार संहिता लागू करने, धारा 370 समाप्त करने एवं मतान्तरण रोकने के विचार से भी सहमत हूं। भाजपानीत सरकार के शासनकाल में ही सन् 1998 में हुए परमाणु परीक्षणों ने राष्ट्रीय अस्मिता का बोध कराया। मैं इस बात से भी सहमत हूं कि भारत में सभी उच्च संवैधानिक पदों पर केवल भारतीय ही आसीन होने चाहिए।
राजग सरकार के खाते में बहुत-सी उपब्लधियां हैं। इसके बावजूद मुझे राजग सरकार के एक विशेष निर्णय से बहुत निराशा हुई। वह था भारतीय प्रबंधन संस्थानों (आई.आई.एम.) में शुल्क घटाने का मुद्दा। मैंने पिछले वर्ष अमदाबाद के भारतीय प्रबंधन संस्थान से उपाधि प्राप्त की है। डा. मुरली मनोहर जोशी का भारतीय प्रबंधन संस्थानों के साथ व्यवहार पूरी तरह असंगत होने के साथ लोकतांत्रिक परम्पराओं के भी विरुद्ध था। डा. मुरली मनोहर जोशी के अंध समर्थन में पाञ्चजन्य (22 फरवरी, 2004) के दिशादर्शन स्तम्भ में और उसके बाद 31 मई के इकोनोमिक टाइम्स में श्री तरुण विजय के लेख में कहा गया था कि संस्थान के प्राध्यापकों का रवैया अभिमानपूर्ण है। इससे बढ़कर कोई अपमान नहीं हो सकता। भारतीय प्रबंधन संस्थान, अमदाबाद में पढ़ाने वाले प्राध्यापक देश के सर्वाधिक ईमानदार और प्रतिभाशाली लोगों में से हैं। इनमें से अनेक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और भारतीय प्रबंधन संस्थानों से स्नातक हैं। उनमें से अनेक ने हार्वर्ड और स्टेनफोर्ड जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। अमरीका का कोई भी बड़ा विश्वविद्यालय या बहुराष्ट्रीय कम्पनी उन्हें अपने यहां नियुक्त कर गौरवान्वित होती। इसके बावजूद उन्होंने भारत वापस आकर देश के युवा प्रबंधकों को प्रशिक्षित करने का निर्णय लिया। वे विदेश में रहकर लाखों डालर कमा सकते थे लेकिन उन्होंने सरकारी वेतन आयोगों द्वारा निश्चित कम वेतन पर काम करना स्वीकार किया।
यह भी उल्लेखनीय है कि भारत में जमीनी स्तर पर आविष्कारों के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए राजग सरकार द्वारा भारतीय प्रबंधन संस्थान, अमदाबाद के श्री अनिल गुप्ता को पद्मश्री सम्मान प्रदान किया गया था। उनके गैरसरकारी संगठन ने देश के सैकड़ों ग्रामीणों को उनके आविष्कारों का व्यवसायीकरण कर उन्हें उद्यमी बनाया। यह भी उल्लेखनीय है कि “सेबी” (स्टाक एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया) के सदस्य के रूप में भारत में वित्तीय सुधारों के क्षेत्र में महती भूमिका निभाने वाले प्रोफेसर जे.आर.वर्मा भारतीय प्रबंधन संस्थान, अमदाबाद के ही हैं। क्या आप तिरुपति मंदिर में भगवान वेंकेटेश्वर के दर्शन के दौरान तीर्थयात्रियों के लिए पंक्ति की सुखद व्यवस्था की परिकल्पना करनेे वाले व्यक्ति को जानते हैं? वे हैं भारतीय प्रबंधन संस्थान के प्रोफेसर जी.रघुनाथन। आप भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर, आंध्र प्रदेश के पूर्व राज्यपाल और मौजूदा 12वें वित्तीय आयोग के अध्यक्ष डा. सी. रंगराजन से परिचित होंगे। वित्त जगत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से एक डा. रंगराजन एक दशक से भी अधिक समय तक भारतीय प्रबंधन संस्थान, अमदाबाद में प्राध्यापक रहे।
ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं जहां इन संस्थानों के प्राध्यापकों ने न केवल अध्यापन के माध्यम से बल्कि अनुसंधान, परामर्श और सामाजिक दायित्व के रूप में देश की सेवा की है। गुजरात में इस संस्थान के प्राध्यापकों ने प्रदेश की अर्थव्यवस्था, ढांचागत और औद्योगिक विकास से संबंधित कई सरकारी समितियों और कार्यदलों में भागीदारी की। यही बात केन्द्र सरकार पर भी लागू होती है। इन्हीं संस्थानों के प्राध्यापकों ने रेल, बिजली और दूरसंचार जैसे प्रमुख ढांचागत क्षेत्रों के नीतिगत विकास में योगदान दिया है। भा.प्र.संस्थान, बंगलौर में सार्वजनिक नीति के लिए एक विशेष केन्द्र है, जो कि सार्वजनिक नीति प्रंबधन में एक स्नातकोत्तर कार्यक्रम चलाता है। भा.प्र.संस्थान, अमदाबाद में एक कृषि अनुसंधान केन्द्र भी है, जो कृषि क्षेत्र के लिए स्नातकोत्तर कार्यक्रम चलाता है। यह संस्थान राजग सरकार द्वारा नदियों को जोड़ने के लिए गठित कार्यदल के कार्यक्रम से भी जुड़ा हुआ है।
कांग्रेसी सरकारों द्वारा दशकों तक अपनाई गई लाइसेंस राज की नीतियों के कारण भारत में निजी क्षेत्र को पनपने का मौका कभी नहीं मिला। सार्वजनिक क्षेत्र में अत्याधिक निवेश के बावजूद राजनीतिक और नौकरशाही के हस्तक्षेप से पेशेवरों की आवाज बेअसर रही। इस तरह के वातावरण में भी भारतीय प्रबंधन संस्थान श्रेष्ठता के प्रतीक के रूप में उभरे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वे स्वायत्तशासी और व्यावसायिक तरीके से चलाए जा रहे हैं। प्राध्यापकों को कम वेतनमानों के बावजूद वहां बेहतर कामकाजी माहौल, व्यावसायिक स्वतंत्रता और समानता के कारण उच्च श्रेणी के विद्धतजनों को आकर्षित करने में ये संस्थान सफल रहे।
भारतीय प्रबंधन संस्थानों का पाठ्यक्रम बहुत परिश्रम की मांग करता है। छात्र को एक घंटे की कक्षा के लिए पहले कम से कम दो से पांच घंटे की तैयारी करनी पड़ती है। केवल इतना ही नहीं, निर्धारित कार्य और परियोजना रपट भी प्रस्तुत करनी होती है। छात्रावासों में सामूहिक बैठकें शाम को चार बजे तक चलती हैं और छात्रों को सुबह की कक्षा के लिए तैयार भी होना होता है। प्राध्यापकों पर भी कोई कम बोझ नहीं है। बदली आवश्यकताओं के हिसाब से पाठक्रमों को लगातार संशोधित करना पड़ता है। प्रत्येक पाठ्यक्रम, अध्याय-विशेष की तैयारी और चयन के रूप में कड़ी मेहनत अपेक्षित होती है। अधिकतर पाठ्यक्रमों के लिए पुस्तकें निश्चित न होने के कारण प्राध्यापकों को शैक्षिक सामग्री भी तैयार करनी पड़ती है। इन संस्थानों में शिक्षा का स्तर पूरी तरह से प्राध्यापकों, उद्योग जगत, सरकार और दूसरे शैक्षणिक संस्थानों से आदान-प्रदान पर निर्भर है।
यह कहना पूरी तरह गलत होगा कि ये संस्थान केवल धनाठ्यों को ही सेवाएं देते हैं। मेरे पिता एक बीमार सार्वजनिक कंपनी में “इंजीनियर” थे, जो कि अब बंद होने की कगार पर है। आज से सात वर्ष पहले अपनी सेवानिवृत्ति के समय वे मात्र दस हजार रुपया मासिक कमा रहे थे और मैं इंजीनियरिंग में दूसरे वर्ष का छात्र था। मेरी एक छोटी बहन भी है, जिसकी उच्च शिक्षा अभी शुरू भी नहीं हुई थी। मुझे पता था कि मेरा परिवार इस संस्थान का शुल्क चुकाने की स्थिति में नहीं होगा, पर मुझे यह भी मालूम था कि शुल्क के लिए धन जुटाना कठिन नहीं होगा। इस संस्थान में प्रवेश लेने के बाद बैंक ऋण प्राप्त करने के लिए मुझे सिर्फ अपना परिचय पत्र दिखाना पड़ा। वह ऋण मैं अब चुका रहा हूं। मेरा आंशिक कक्षा शुल्क भी माफ कर दिया गया था। अधिकतर छात्र ऋणों के आसानी से उपलब्ध होने के कारण छात्रवृत्तियों के लिए आवेदन भी नहीं करते हैं।
मेरे करीबी मित्रों में से कोई भी संपन्न पृष्ठभूमि से नहीं था। इनमें स्कूल अध्यापकों और कनिष्ठ स्तर के सरकारी कर्मचारियों के परिवार से थे। भारतीय प्रबंधन संस्थानों की घोषित नीति है कि धन की कमी के कारण कोई भी छात्र संस्थान की शिक्षा से वंचित नहीं होगा। इन संस्थानों में दाखिले का आकांक्षी यह बात जानता है कि अगर उसमें प्रवेश परीक्षा को पास करने की क्षमता है तो धन की कमी कोई बाधा नहीं होगी।
हर छात्र जानता है कि इन संस्थानों से मिलने वाली शिक्षा के मूल्य की तुलना में यहां का शिक्षा शुल्क नगण्य है। इन संस्थानों में छात्रों का असली निवेश पैसा न होकर समय और परिश्रम है। प्रत्येक छात्र जानता है कि भारतीय प्रबंधन संस्थानों की वित्तीय स्वतंत्रता के समाप्त होने से निश्चित रूप से इनकी प्रतिष्ठा में कमी होगी और प्राध्यापकों का मनोबल टूटेगा। जिसकी परिणति इन संस्थानों की शिक्षा के मूल्य में गिरावट के रूप में होगी। इसी कारण एक छात्र ने उच्चतम न्यायालय में शुल्क कटौती के विरुद्ध जनहित याचिका दायर की थी।
गरीब छात्रों की सहायता प्रदान करने का उद्देश्य निश्चित रूप से सराहनीय है, पर डा. जोशी के मानव संधाधन विकास मंत्रालय द्वारा अपनाया गया तरीका अनुचित था। दरअसल, गरीब छात्रों के लिए धन की व्यवस्था किसी भी भारतीय प्रबंधन संस्थान में कभी समस्या नहीं रही। इसके बजाय मंत्रालय ने एकतरफा निर्णय लिया, संस्थान के निदेशकों के चयन में हस्तक्षेप किया, सरकारी बोर्ड में तदर्थ बदलाव किए, संयुक्त प्रवेश परीक्षा समाप्त करने की धमकी दी और निदेशकों को धमकाने के लिए एक नौकरशाह को भेजा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यू.आर राव समिति की रपट का हवाला तो दिया पर उस रपट को सार्वजनिक नहीं किया। डा. राव ने स्वयं कहा था कि उनकी रपट का भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों और भारतीय प्रबंधन संस्थानों से कोई लेना-देना नहीं था। मानव संसाधन विकास मंत्रालय जिस व्यय सुधार आयोग की रपट के आधार पर भारतीय प्रबंधन संस्थानों के साथ समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करना चाहता था, उसने भी स्वायत्तशासी संस्थानों को उनके द्वारा प्रदत्त सेवाओं के लिए पूरी कीमत लेने की सिफारिश की है। यहां तक कि आयोग ने भारतीय प्रबंधन संस्थान और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान को सरकारी कानूनों और नियमों से मुक्त करके और अधिक स्वतंत्रता देनी की भी सिफारिश की। पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय प्रबंधन संस्थानों को सरकार पर और अधिक निर्भर बनाने का ठीक उलटा काम किया। कुरियन समिति ने भी भारतीय प्रबंधन संस्थानों की कार्यकारी परिषदों को और सुदृढ़ करके अधिक स्वायत्तता प्रदान करने की अनुशंसा की थी।
आधुनिक लोकतंत्र में संस्थानों की स्वतंत्रता एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। भारतीय प्रबंधन संस्थानों को विश्वविद्यालय प्रणाली से बाहर स्वायत्तशासी समितियों में उनकी स्वतंत्रता को बनाए रखने के उद्देश्य से ही स्थापित किया गया था। भारतीय प्रबंधन संस्थान केन्द्र सरकार के संस्थान नहीं हैं। उनकी स्थापना केन्द्र और राज्य सरकारों के निजी क्षेत्र और फोर्ड फाउण्डेशन जैसे अन्तरराष्ट्रीय संगठनों के सामूहिक प्रयासों के कारण हुई। डा.जोशी ने भारतीय प्रबंधन संस्थानों की स्वायत्तता को कम करने की कोशिश करके आधुनिक भारत के महानतम संस्थानों में से एक को हानि पहुंचाई है। भारतीय प्रबंधन संस्थान प्राध्यापकों और छात्रों के चार दशकों के खून-पसीने और त्याग के कारण आज इस स्थिति में हैं। किसी भी सरकार को वर्षों की अथक परिश्रम के बाद निर्मित इन संस्थानों की साख खत्म करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
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