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मुलायम के हाथ कमान
द विजय कुमार
गत 29 अगस्त को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने तीसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की कमान संभाल ली। बहुजन समाज पार्टी को तोड़कर उन्होंने सरकार बनाने लायक बहुमत तो जुटा लिया है, पर उनकी सरकार की स्थिरता पर अभी भी सन्देह है, क्योंकि इनके खेमे में आए बसपा के बागी 13 विधायकों पर दल-बदल कानून की तलवार लटकी हुई है। लेकिन उत्तर प्रदेश में विगत कुछ सालों में सरकार बनाने-गिराने के लिए जो कुछ हुआ है, उसे देखते हुए कुछ नहीं कहा जा सकता। गत वर्ष मई में जब बसपा-भाजपा की गठंबधन सरकार बनी थी, तभी से मुलायम सिंह इस सरकार को पचा नहीं पा रहे थे। इसलिए अब वे अपनी सरकार बचाने के लिए हर तरह के दांव-पेंच खेल सकते हैं।
सरकार जाने के बाद मायावती को अब भय सता रहा है। चूंकि 27 अगस्त को उनके प्रमुख सचिव रहे पी.एल. पुनिया से सी.बी. आई. ने ताज गलियारा मामले में पूछताछ की है। जो अधिकारी कल तक मायावती के गलहार थे, अब वे ही उनके विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामले उजागर करने की तैयारी करवा रहे हैं।
मायावती भीतर से बहुत भयभीत हो गयी हैं। इसका ही प्रमाण है कि उन्होंने विधानसभा की सदस्यता छोड़ दी है। यह मायावती की दूसरी भयानक भूल है। इससे अब बसपा विधायक दल नेतृत्वविहीन हो जाएगा और उसमें भगदड़ मच जाएगी। एक तिहाई से भी अधिक बसपा विधायक अब निश्चित ही पाला बदल लेंगे। इससे बसपा विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल का स्थान भी खो देगी।
बहरहाल, मुलायम की सरकार भाजपा के आन्तरिक सहयोग से बनी है, इसकी चर्चा आम है। भाजपा इस समय कूटनीति से काम कर रही है। मायावती ने अपनी राजनीतिक हठधर्मी से यह सिद्ध कर दिया है कि वह किसी भी दल के लिए वि·श्वसनीय साथी सिद्ध नहीं हो सकतीं।
यूं तो उ.प्र. का राजनीतिक वातावरण पिछले साल बसपा-भाजपा की गठबंधन सरकार बनते समय से ही गर्म रहा था। यह तो किसी को भी विश्वास नहीं था कि यह सरकार पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा कर पाएगी, लेकिन अपनी-अपनी मजबूरी के कारण सब एक-दूसरे के साथ चल रहे थे। परन्तु गत 25 अगस्त को एक बार फिर मायावती ने भाजपा से हाथ छुड़ा लिया।
इस सारे प्रकरण में प्रारम्भ में तो मायावती का हाथ ही ऊंचा दिख रहा था, पर 26 अगस्त को त्यागपत्र देते समय वे स्वयं अपने जाल में फंसी दिखीं। बेचैनी उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी। उनकी इच्छा कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनकर अगले चुनाव तक निष्कंटक राज करने की थी, पर उनकी एक भूल यह रही कि वह 25 अगस्त की मंत्रिमण्डल बैठक के बाद अपने दफ्तर में जाकर कुछ महत्वपूर्ण फाइलें निबटाने लगीं, इसी बीच मायावती की चाल भांपकर सावधानीवश श्री लालजी टंडन राज्यपाल के पास जाकर सरकार से भाजपा के समर्थन वापसी का पत्र दे आए। इससे सरकार अल्पमत में आ गयी। यदि मायावती सीधे राज्यपाल के पास चली जातीं, तो राज्यपाल के सम्मुख बहुमत की सरकार का विधानसभा भंग करने सम्बंधी निर्णय मानने की संवैधानिक बाध्यता हो जाती।
इस सारे घटनाक्रम के पीछे असली मुद्दा क्या है, यह तो मायावती से अच्छा शायद कांशीराम भी नहीं जानते होंगे, पर राजनीतिक विश्लेषक ताज गलियारा प्रकरण में मायावती का स्वयं फंसा होना और उन पर सी.बी.आई. जांच की तलवार लटकने को कारण मानते हैं। दो दिन पूर्व सी.बी.आई ने जिस तरह मायावती सरकार के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री नसीमुद्दीन से पूछताछ की, उससे मायावती चौंक गयीं। संभवत: तभी उन्होंने सरकार को भंग करने का निर्णय ले लिया था। वैसे तीन माह पूर्व जब अजीत सिंह ने सरकार से समर्थन वापस लिया था, उसके बाद ही सरकार अल्पमत में आ गयी थी। 28 अगस्त को विधानसभा का सत्र बुलाने की संवैधानिक बाध्यता थी। मायावती ने विधानसभा में हारने से पहले ही त्यागपत्र देना उचित समझा।
मायावती ने भाजपा नेतृत्व को अंतिम समय तक धोखे में रखा। उन्होंने दो दिन पूर्व ही पत्रकारों को कहा था कि वे बसपा के कार्यकर्ता सम्मेलन में कुछ धमाकेदार खबर देंगी, इसलिए सभी दूरदर्शन वाहिनियों से उन्होंने इसका सीधा प्रसारण करने का आग्रह किया था। पर इस बारे में उन्होंने भाजपा नेतृत्व से कोई चर्चा नहीं की। इतना ही नहीं उन्होंने घोषणा की कि 25 अगस्त को बसपा के अखिल भारतीय कार्यकर्ता सम्मेलन के बाद अटल जी से मिलने दिल्ली जाएंगी। इसी प्रकार उन्होंने 26 और 27 तारीख को बैठकें भी घोषित कीं।
यद्यपि दो दिन पूर्व से मायावती ने जिस तरह आनन-फानन में अनेक महत्वपूर्ण फाइलों को निबटाया, उससे भाजपा नेतृत्व को सावधान हो जाना चाहिए था। इसी प्रकार मंत्रिमंडल की बैठक में उन्होंने अपने त्यागपत्र के साथ विधानसभा भंग करने का प्रस्ताव रखा, पर राजभवन में केवल विधानसभा भंग करने का पत्र दिया। उल्लेखनीय है कि मंत्रिमंडल की बैठक में विधानसभा भंग करने वाला प्रस्ताव रखने से पूर्व उन्होंने अम्बेडकर संग्रहालय के लिए 77 करोड़ रुपए की परियोजना को स्वीकृत कराया तथा उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद यह योजना धन के अभाव में कहीं दम न तोड़ दे, इसके लिए आकस्मिकता निधि से लगभग 28 करोड़ रुपए जारी भी कर दिए।
सच तो यह है कि मई, 2003 में शासन संभालने के बाद से ही मायावती ने अपनी मनमानी प्रारम्भ कर दी थी। भाजपा अब तटस्थ रहना चाहती है, जिससे मायावती और मुलायम सिंह के बीच ही नहीं उनके जमीनी कार्यकर्ताओं के बीच की दूरियां भी खूब चौड़ी हो जाएं। मायावती ने कार्यकर्ता सम्मेलन में दिए गए अपने भाषण में कांग्रेस, सपा और भाजपा सभी में फूट डालने का प्रयास किया।
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