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द डा. देवेन्द्र आर्य
दो कदम जब चल पड़े विश्वास जीकर
फूल हों या पंथ में कांटे बिछे हों।
ये भंवर-मझधार रोकें तो भला क्या
नाव तो उस पार जाने के लिए है,
डूबने भर की नियति से क्यूं बंधें हम
जीत की पतवार मांझी के लिए है।
मन-किनारों से बंधी मन्दाकिनी तो
लहर मृदु या पंथ में तूफां बिछे हों।
दर्द-दुख परछाइयां भर जिन्दगी की
मैं इन्हीं के पार तुमको ले चलूंगा,
हार मत बैठो, उठो, आगे बढ़ो तो
मैं तिमिर के द्वार सूरज सा जलूंगा।
चल पड़े कल के लिए संकल्प लेकर
खाइयां गहरी कि या पर्वत बिछे हों।
जिन्दगी अभिशाप है, मत सोच ऐसा
जगत के हित गरल हर शिव ने पिया है,
और छल से तुम भले पी लो सुधा रस
नाम कब इतिहास ने उसको दिया है?
आत्म को पर से जरा-सा बांध ले मन
फिर सफर में हास या आंसू बिछे हों।
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