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संविधान समीक्षा आवश्यक है

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Feb 4, 2000, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Feb 2000 00:00:00

द न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना

पूर्व न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय

भारतीय गणतन्त्र के पचास वर्ष पूरे होने के बाद संविधान समीक्षा का विचार अनुचित नहीं कहा जा सकता। किसी भी गतिशील समाज में व्यवस्था के नियमों की समय-समय पर समीक्षा की जानी चाहिए। वर्तमान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन सरकार द्वारा संविधान समीक्षा का निर्णय लिया जाना सर्वथा उचित है। जो लोग या राजनीतिक दल इसका विरोध कर रहे हैं वे केवल विरोध की राजनीति कर रहे हैं। उन्हें सकारात्मक रुख अपनाते हुए सरकार के साथ सहयोग करना चाहिए। वैसे भी संविधान समीक्षा समिति संविधान में कुछ आवश्यक परिवर्तनों के लिए सुझाव ही प्रस्तुत करेगी। उसके बाद संसद में इस पर चर्चा होगी। इन सुझावों को मानना या न मानना संसद पर निर्भर करेगा। संसद चाहे तो सुझावों को निरस्त कर सकती है।

संविधान समीक्षा करते समय समिति को दो बिन्दुओं पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। पहला, धारा 356। धारा 356 का प्रावधान इसलिए किया गया था कि यदि किसी राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाए और राज्य सरकार कानून व्यवस्था को संभाल पाने में असमर्थ हो तो राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सके। लेकिन पिछले पचास वर्षों में यह देखा गया कि केन्द्र सरकार ने इसका राजनीतिक दुरुपयोग अधिक किया है। राज्यों की विरोधी दलों की सरकारों को गिराने में इसका दुरुपयोग किया गया। इस गलत परम्परा को रोकने के लिए कारगर उपाय किए जाने चाहिएं, जिनसे किसी राज्य सरकार को राजनीतिक विरोध के कारण न गिराए जाए। लेकिन धारा 356 को समाप्त नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इसे पूरी तरह समाप्त करने पर राज्य निरंकुश हो सकते हैं। राज्यों पर थोड़ा-बहुत केन्द्र का दबाव होना ही चाहिए। दूसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु है, राज्यों के वित्तीय अधिकार। राज्यों के पास उत्तरदायित्व बहुत अधिक हैं, लेकिन उनकी आय के स्रोत कम हैं। राज्यों को वित्तीय आवश्यकताओं के लिए केन्द्र की ओर देखना पड़ता है। वित्त आयोग से मिलने वाली राशि भी अधिक नहीं होती है। फिर इसके बाद योजना आयोग है, जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। तो कुल मिलाकर स्थिति यही बनती है कि राज्य और केन्द्र सरकार के बीच राजस्व आय का उचित वितरण हो। राज्यों को अधिक वित्तीय अधिकार दिए जाएं।

इसके अतिरिक्त संविधान समीक्षा के समय किसी भी स्थिति में संविधान के मूल ढांचे और उसकी प्रकृति में परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए। भारत के संविधान की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं, जैसे पंथनिरपेक्षता, संसदीय व्यवस्था, कानून का शासन इत्यादि। भारतीय परिवेश और सांस्कृतिक बहुलता को देखते हुए संविधान के मूल ढांचे में कोई भी फेरबदल संभव नहीं हो सकता।

अमरीका और फ्रांस में अध्यक्षीय शासन प्रणाली बहुत सफल रही है। ये दोनों ही देश आज वि·श्व की महाशक्ति हैं। लेकिन अनुभव यह भी रहा है कि अफ्रीका और एशिया में अध्यक्षीय शासन प्रणाली सफल नहीं हुई है। जहां कहीं भी ऐसा रहा है वहां तानाशाही का शासन हुआ। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि संसदीय प्रणाली की ऐसी कोई बुराई नहीं है जो अध्यक्षीय शासन पद्धति में न हो। मूल प्रश्न व्यक्तिगत चरित्र का है। शासन प्रणाली नहीं, लोग बदलने चाहिए।

संविधान समीक्षा करते समय धारा 370, जिसमें जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया है, को बिल्कुल भी नहीं छेड़ना चाहिए, क्योंकि कश्मीर पहले से ही जल रहा है। ऐसी स्थिति में यदि धारा 370 को हटाने या बदलने की कोशिश की गई तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है। सरकार द्वारा गठित संविधान समीक्षा समिति में बहुत ही सुलझे हुए और योग्य व्यक्ति हैं। आशा है कि वे भारतीय परिस्थितियों को समझते हुए संविधान की मूलभावना के अनुरूप ही सुझाव देंगे।

(बातचीत परआधारित)

जो विरोध कर रहे हैं उन्होंने ही संशोधन किए संविधान में

प्रधानमंत्री…………………….संशोधनों की संख्या

जवाहरलाल नेहरू…………………………….16

गुलजारीलाल नंदा……………………………..1

इंदिरा गांधी…………………………………..32

मोरारजी देसाई…………………………………2

राजीव गांधी…………………………………..10

वी.पी. सिंह…………………………………….6

चन्द्रशेखर……………………………………..1

नरसिंह राव…………………………………..10

——————————————————————————–

जबकि संविधान समीक्षा करवाने वाली सरकार में मात्र एक संशोधन हुआ

अटल बिहारी वाजपेयी…………………………1

16

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