RSS के 100 साल : विचार, कार्यक्रम और कार्यकर्ता-संगम
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ @100 : विचार, कार्यक्रम और कार्यकर्ता-संगम

संस्थाएं बनती और समय के साथ खत्म हो जाती हैं या उनका क्षरण हो जाता है। लेकिन 1925 में नागपुर में डॉ. हेडगेवार ने जिस रा.स्व. संघ की नींव रखी थी, आज वह वट वृक्ष बनकर अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है

by विजय कुमार
Jul 18, 2025, 05:34 am IST
in भारत, संघ
रा.स्व.संघ की सतत वृद्धि के पीछे इसके विचार का बल, कार्यक्रमों की प्रभावोत्पादकता और तपोनिष्ठ कार्यकर्ताओं का परिश्रम है

रा.स्व.संघ की सतत वृद्धि के पीछे इसके विचार का बल, कार्यक्रमों की प्रभावोत्पादकता और तपोनिष्ठ कार्यकर्ताओं का परिश्रम है

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दुनिया में हर साल लाखों सामाजिक संस्थाएं बनती हैं। इनका जीवन दो-चार साल से लेकर दो-चार सौ साल तक का हो सकता है। अधिकांश संस्थाएं अपने संस्थापकों की मृत्यु के बाद चमक खो देती हैं। कुछ संस्थापकों के बच्चों में बंट जाती हैं। कुछ भवन और कोष के मुकदमों में पड़कर चलती जैसी दिखाई देती हैं, पर काम के नाम पर वहां कुछ नहीं होता। कुछ संस्थाएं केवल देशी-विदेशी चंदे के लिए ही बनती हैं।

विजय कुमार
वरिष्ठ प्रचारक, रा.स्व.संघ

ऐसी संस्थाएं, संगठन, न्यास, फाउंडेशन आदि हर शहर में हजारों होते हैं, जिनका नाम अखबारों में छपने मात्र से उनके जीवित होने का पता लगता है। इसके विपरीत रा.स्व. संंघ का नाम और काम लगातार बढ़ता रहा है। संघ अपने जन्मशती वर्ष में पूरे साल कुछ विशेष कार्यक्रम करेगा, पर यहां यह जानना रुचिकर होगा कि एक संस्था और संगठन के रूप में संघ के इस सुगठन और वृद्धि का रहस्य क्या है? किसी भी सामाजिक संस्था की वृद्धि के तीन महत्वपूर्ण स्तम्भ होते हैं। इन्हें हम रिक्शे के तीन पहिये मान सकते हैं। अगला पहिया रिक्शे को दिशा देता है, तो शेष दो उसे गति देते हैं। संघ के संदर्भ में ये तीन पहिये हैं-विचार, कार्यक्रम और कार्यकर्ता। इनमें उचित समन्वय के चलते ही संघ आज यहां तक प्रगति कर सका है।

विचार

इसे हम संगठन का उद्देश्य या प्राण भी कह सकते हैं। संघ के संस्थापक डा. केशव बलिराम हेडगेवार प्रायः कहते थे कि भारत हिन्दू राष्ट्र है; संगठन में शक्ति है तथा शक्ति से सब संभव है। संघ की स्थापना के समय आजादी का आंदोलन चल रहा था। डा. हेडगेवार स्वयं दो बार जेल गये। उन्होंने देखा कि कांग्रेसी नेताओं के पास भाषण तो हैं; पर आजादी के बाद देश कैसे चलेगा, इसका कोई विचार नहीं है। उनके लिए आजादी ही अंतिम लक्ष्य था और इसके लिए वे मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक राह पर चल रहे थे। दूसरी ओर, डाॅ. हेडगेवार मानते थे कि भारत मूलतः एक हिन्दू देश है। यहां का दुख और सुख हिन्दुओं से जुड़ा है। देश की उन्नति से हिन्दू खुश होता है और अवनति से दुखी। यद्यपि हिन्दू की पहचान केवल पूजा पद्धति से नहीं होती। भारत को अपनी मातृ, पितृ, पुण्य और मोक्षभूमि मानने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है चाहे उसकी उपासना विधि कुछ भी हो। डाॅ. हेडगेवार के कई मुस्लिम मित्र थे, जो इन विचारों से सहमत थे।

संगठन में शक्ति की बात सर्वविदित है। पंचतंत्र में एक किसान के चार बेटों की कथा, झाड़ू और तिनकों की कथा, कबूतरों के जाल सहित उड़ने वाली कथा, ऐसी अनेक कथाएं प्रसिद्ध हैं। शक्ति का महत्व जगजाहिर है। यदि कहीं सफाइकर्मी, रिक्शाचालक या फल-सब्जी वाले हड़ताल कर दें तो जनजीवन ठप हो जाता है। डाॅ. हेडगेवार कहा करते थे कि समाज में अच्छे लोग अधिक हैं; पर वे बिखरे हुए हैं, जबकि खराब लोग कम होने पर भी संगठित होते हैं इसलिए वे हावी हो जाते हैं। डाॅ. साहब ने सज्जन शक्ति को संगठित किया। वे कहते थे कि जैसे स्वस्थ रहना व्यक्ति की जरूरत है, ऐसे ही संगठन भी देश और समाज की जरूरत है। संघ की स्थापना किसी के विरोध में नहीं, बल्कि देश की इस जरूरत को पूरी करने के लिए हुई।

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कार्यक्रम

हर संस्था अपने उद्देश्य के अनुरूप प्रदर्शन, कथा, प्रवचन, प्रतियोगिता, सेवा आदि कार्यक्रम अपनाती है। डाॅ. साहब युवाओं में अनुशासन और देशभक्ति के संस्कार भरना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एक घंटे की शाखा पद्धति का आविष्कार किया। यह स्वयं में अनोखी थी। इसलिए लोगों ने शुरू में इसका मजाक बनाया, पर इससे जो स्वयंसेवक और कार्यकर्ता बने, उन्होंने ही देश और विदेश में संघ के काम को फैलाया है। वे केवल संघ ही नहीं, सैकड़ों समविचारी संस्थाएं चला रहे हैं, जिसका प्रभाव सब ओर दिख रहा है।

शाखा में खेलकूद, समता, आसन, नियुद्ध और लाठी संचालन जैसे शारीरिक कार्यक्रम तथा गीत, चर्चा, कहानी, प्रश्नोत्तर आदि बौद्धिक कार्यक्रम होते हैं। कुछ शाखाओं में विद्यार्थी आते हैं, तो कुछ में वयस्क। विद्यार्थी शाखा में खेलकूद अधिक होते हैं, तो बड़ों की शाखा में आसन और प्राणायाम आदि। इसके साथ ही सहभोज, वन विहार, शिविर, प्रशिक्षण वर्ग आदि से स्वयंसेवक के मन में देश, धर्म और समाज के प्रति प्रेम के संस्कार पड़ते हैं, जो आजीवन उसके साथ रहते हैं। इसीलिए किसी घटना पर स्वयंसेवकों का व्यवहार एक जैसा दिखता है। समय के साथ संघ में सामाजिक समरसता, गोसेवा, पर्यावरण, परिवार प्रबोधन आदि नये आयाम जुड़े हैं। इनमें पुरुष-महिलाएं दोनों हैं।

कार्यकर्ता

किसी भी संस्था का तीसरा महत्वपूर्ण स्तम्भ होता है उसका कार्यकर्ता। संघ को शुरू से ही समर्पित कार्यकर्ता मिले। डाॅ. साहब ने अविवाहित रहते हुए पूरा समय इसमें लगाया। अतः उन जैसे हजारों कार्यकर्ता तैयार हुए। इन्हें प्रचारक कहते हैं; पर इसके अलावा लाखों गृहस्थ कार्यकर्ता भी हैं, जो प्रतिदिन दो-चार घंटे संघ को देते हैं। अब तो अवकाश प्राप्त वानप्रस्थी कार्यकर्ता भी पर्याप्त मात्रा में हैं। अन्य संस्थाओं में पदाधिकारी होते हैं, पर संघ में इसे जिम्मेदारी कहते हैं। अन्य जगह व्यक्ति कुर्सी से चिपका रहता है, जबकि संघ में लगातार नये कार्यकर्ता बनते रहते हैं। इसलिए हर 3-4 साल में नई टीम बनती है। पुराने कार्यकर्ता भी अपने स्वास्थ्य और रुचि के अनुसार काम करते रहते हैं और उन्हें पूरा सम्मान मिलता है।

संघ में कार्यकर्ता समय के साथ धन भी देता है। किसी शिविर या प्रशिक्षण वर्ग में वह अपने किराये से जाता है और वहां भोजन का शुल्क भी भरता है। संघ कार्य के संचालन में जो धन लगता है, उसे सभी स्वयंसेवक साल में एक बार होने वाले गुरुदक्षिणा कार्यक्रम में परम पवित्र भगवा ध्वज के सम्मुख अर्पित करते हैं। प्रचारक को हर 3-4 साल में दूसरी जगह भेजा जाता हैं। इससे उसे नये अनुभव मिलते हैं और उसकी योग्यता बढ़ती है। स्थानीय गृहस्थ कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियां भी बदलती रहती हैं।

संघ कार्य की वृद्धि के ये तीन महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं और इन्हीं के कारण आज संघ अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है।

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