बांग्लादेश में 1971 युद्ध के मुक्ति संग्राम की याद दिलाने वाले स्मारक को भी आखिरकार मजहबी कट्टरपंथियों की बनाई अंतरिम सरकार ने ध्वस्त कर दिया। यह स्मारक न सिर्फ जिन्ना के आतताई देश से आजादी दिलाने वाले संग्राम की याद में बना था बल्कि यह उस युद्ध में पाकिस्तान की मदद करने वाले बर्बर जमातियों के दमन को भी याद रखने और उन्हें सजा दिलाने की याद दिलाता था। यूनुस की सरकार बनते ही इसे कपड़े से ढक दिया गया था, लेकिन अब उसे बुलडोजर से रौंद डाला गया है। उसकी जगह अब मोहम्मद यूनुस की सरकार एक नया स्मारक बनाएगी जो पिछले साल के छात्र आंदोलन की याद दिलाएगा। कहना न होगा कि यूनुस की सरकार धीरे धीरे देश की वास्तविक पहचान और इतिहास को मटियामेट करने पर उतारू है।
मुक्ति संग्राम स्मारक के ध्वस्तीकरण और उसकी जगह छात्र आंदोलन के स्मारक की योजना ने उस इस्लामी देश में अपनी माटी की राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान को लेकर गहरी बहस छेड़ दी है। यह घटना न केवल इतिहास को मजहबी कट्टरता के नजरिए से पुनर्लेखन की प्रवृत्ति की ओर संकेत करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि नई अंतरिम सरकार किस प्रकार से राष्ट्र की स्मृति और प्रतीकों को मजहब में गहरे लपेटकर पुनर्परिभाषित कर रही है।
इसमें संदेह नहीं है कि मुक्ति संग्राम स्मारक, विशेष रूप से लालमोनिरहाट जिले में स्थित पत्थर पर तराशे चित्र, बांग्लादेश की आज़ादी की कहानी को बयां करते थे। इसमें 1950 के दशक के भाषा आंदोलन, 7 मार्च के ऐतिहासिक भाषण, मुजीब सरकार के गठन, 1971 के नरसंहार और बर्बर पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण जैसे महत्वपूर्ण क्षण दर्शाए गए थे। यह स्मारक न केवल एक अनूठी कलाकृति था, बल्कि बांग्लादेशी राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संग्राम की सामूहिक स्मृति का प्रतीक भी था।

साल 2024 के अगस्त माह में शेख हसीना सरकार के पतन के बाद, मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार ने कई और कदम उठाए हैं, जो पूर्ववर्ती सरकार की विरासत को मिटाने की दिशा में हैं। लालमोनिरहाट में बनी पाषाण कलाकृति की बात करें तो पहले उसे कपड़े से ढका गया और फिर स्थानीय प्रशासन के निर्देश पर मजदूर लगाकर ध्वस्त करा दिया गया। यह कार्रवाई छात्र संगठन SAD की मांग पर की गई थे, जिन्होंने इसे “जुलाई क्रांति की भावना के विपरीत” बताया था।
उल्लेखनीय है कि यूनुस सरकार अपने ऐसे कामों पर गर्व महसूस कर रही है और तथाकथित छात्र इसे अपनी जीत बता रहे हैं। अब मुक्ति संग्राम स्मारक की जगह पिछले साल के छात्र आंदोलन का स्मारक बनने के बाद, उसे एक ‘ऐतिहासिक यादगार’ का दर्जा देकर पूजा जाएगा। छात्र आंदोलन के ही परिणामस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना को इस्तीफा देकर देश छोड़ना पड़ा था। यूनुस की अगुआई वाली अंतरिम सरकार इतिहास के प्रतीकों को ध्वस्त करके मजहबी उन्मादियों के हौंसले ही नहीं बढ़ा रही है बल्कि उन्हें प्रसन्न करके उनके बूते सत्ता बनाए रखना चाहती है। कह सकते हैं इस “स्मृति युद्ध” में यह तय किया जा रहा है कि आने वाली पीढ़ियों को देश के इतिहास और संस्कृति से जुड़ी कैसी कहानियां सुनाई जाएंगी।
हालांकि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल बांग्लादेश और स्थानीय नागरिक समितियों ने सरकार के इस कदम की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने इसे बंगाली राष्ट्र के इतिहास में ‘बेशर्म हस्तक्षेप’ करार दिया है। कई समझदार लोगों और इतिहासकारों का मानना है कि इस तरह के काम समाज का ध्रुवीकरण और राष्ट्रीय एकता को कमजोर कर सकते हैं।
1971 के मुक्ति संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला पड़ोसी देश भारत बांग्लादेश में चल रहे ऐसे कृत्यों से आहत भी है और चिंतित भी। वहां पीढ़ियों से एक बड़ा हिन्दू समुदाय निवास करता है। ढाका सहित कई शहरों में प्राचीन मंदिर हैं जिन्हें अब तक सामाजिक उद्धार के केन्द्र मानकर सर्वसमाज द्वारा पूजा जाता रहा था, लेकिन अब उन सब पर मजहबी उन्मादियों की कुदृष्टि है, उन्हें एक एक कर तोड़ा या दूषित किया जा रहा है।
भारत-बांग्लादेश संबंधों में उस देश के विभिन्न ऐतिहासिक स्मारकों का विशेष महत्व रहा है, उन्हें ध्वस्त करने की कार्रवाई द्विपक्षीय संबंधों में काफी तनाव पैदा कर सकती है। इसमें एक आयाम चीन का भी है जो उस इस्लामी देश को अपने शिकंजे में जकड़ने को तैयार बैठा है और चाहता है कि भारत या हिन्दू समाज का कैसा भी प्रभाव वहां शेष न रहे।
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