नित नए पैतरों के साथ ईरान-इस्राएल संघर्ष तेजी से बढ़ रहा है। दोनों पक्ष एक दूसरे को ‘भारी नुकसान’ पहुंचाने के दावे कर रहे हैं। अमेरिका ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख को प्रभाव में लेकर ईरान के तीन न्यूक्लियर ठिकानों पर बमबारी की है और उन्हें गंभीर नुकसान पहुंचाया है, हालांकि ईरान का दावा है कि उसने वहां से परमाणु सामग्री पहले ही हटा ली थी इसलिए नुकसान केवल ढांचों को हुआ है। लेकिन इस सबके बीच रूस की भूमिका भी गौर से देखी जा रही है, विशेषकर मॉस्को से आई एक ताजा टिप्पणी के बाद, जिसमें उन्होंने युद्ध में अमेरिका की भूमिका को आड़े हाथों लिया है। मॉस्को से एक वरिष्ठ नेता ने संकेत दिया है कि संभवत: रूस ईरान को इस्राएल के खिलाफ लड़ने लायक हथियार उपलब्ध कराए। अगर ऐसा होता है तो तनाव कम होने की बजाय और गंभीर मोड़ ले लेगा और उसका व्याप कई गुना बढ़ भी जाएगा।
बेशक, ईरान—इस्राएल युद्ध की वजह से वैश्विक राजनीति में एक नया मोड़ लेती दिख रही है। मास्को की भूमिका, क्रेमलिन के संकेत और इसके साथ ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ईरानी राष्ट्रपति से फोन पर बातचीत—युद्ध के परिप्रेक्ष्य में इन तीनों पहलुओं को समझना ज़रूरी है। ये जानना जरूरी है कि दक्षिण-पश्चिम एशिया में शक्ति संतुलन किस दिशा में बढ़ रहा है।
वैसे, रूस और ईरान के बीच सैन्य सहयोग कोई नई बात नहीं है, लेकिन स्पष्ट है कि हाल के घटनाक्रमों ने इस रिश्ते को और गहरा कर दिया है। अमेरिकी हमलों के बाद ईरान के परमाणु ठिकानों को हुए नुकसान के जवाब में, रूस के पूर्व राष्ट्रपति और सुरक्षा परिषद के उपाध्यक्ष दिमित्री मेदवेदेव ने संकेत दिया कि ‘कई देश ईरान को सीधे परमाणु हथियार देने के लिए तैयार हैं।’ दिमित्री का यह बयान न केवल अमेरिका को चेतावनी के रूप में देखा जा सकता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि मास्को अब ईरान को सैन्य रूप से समर्थन देने के लिए तैयार होने जा रहा है।

हालांकि क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेसकोव ने सीधे तौर पर ईरान को हथियार आपूर्ति की पुष्टि नहीं की, लेकिन यह स्पष्ट कहा ‘ईरान पर हमला करके वाशिंगटन एक गंभीर गलती कर रहा है’। उन्होंने संकेत दिया कि रूस इस क्षेत्र में मध्यस्थता की भूमिका निभाना चाहता है। बेशक, यह दोतरफा संदेश है—एक ओर रूस खुद को शांति का पक्षधर दिखाने की कोशिश में है, तो दूसरी ओर वह ईरान के साथ खड़े होने का संकेत भी दे रहा है।
इधर क्रेमलिन की भाषा में बदलाव स्पष्ट रूप से देखा जा रहा है। पहले जहां रूस पश्चिमी देशों के साथ संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता रहा है, अब वह खुलकर अमेरिका और इस्राएल की आलोचना कर रहा है। पेसकोव ने कहा कि ‘ऐसे संघर्ष पूरे क्षेत्र को आग में झोंक सकते हैं।’ उनका यह बयान केवल चेतावनी नहीं है, बल्कि रूस की रणनीतिक स्थिति का संकेत है—साफ है कि रूस अब पश्चिमी सैन्य हस्तक्षेपों के खिलाफ एक वैकल्पिक ध्रुव बनना चाहता है।
इसके अलावा, रूस का यह भी कहना है कि वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम को ‘शांतिपूर्ण’ मानता है और उस पर हमले को अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन मानता है। यह रुख ईरान को नैतिक समर्थन देने के साथ-साथ आने वाले दिनों में सैन्य सहयोग की पृष्ठभूमि भी बन सकता है।

मोदी-पेजेशकियन वार्ता
इस पूरे परिदृश्य में भारत की भूमिका भी अहम बन जाती है। कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेजेशकियन से फोन पर बात की। यह बातचीत ऐसे समय में हुई जब ईरान और इस्राएल के बीच तनाव चरम पर है और अमेरिका की सैन्य भागीदारी की आशंका बढ़ रही है। भारत की चिंता स्पष्ट है—मध्य पूर्व में अस्थिरता का सीधा असर उसकी ऊर्जा सुरक्षा, प्रवासी भारतीयों और व्यापारिक हितों पर पड़ता है। मोदी की यह बातचीत भारत की मैत्रीपूर्ण रिश्तों और बातचीत से समस्या सुलझाने की नीति का ही हिस्सा थी, भारत सभी पक्षों से संवाद बनाए रखने का पक्षधर है। दोनों नेताओं की इस वार्ता से यह संदेश भी जाता है कि भारत केवल पश्चिमी ध्रुव का हिस्सा नहीं है, बल्कि वह रूस और ईरान जैसे देशों के साथ भी संवाद बनाए रखने में विश्वास रखता है।
रूस द्वारा ईरान को हथियार देने की संभावना, भले ही अभी केवल संकेतों तक सीमित हो, लेकिन यह वैश्विक शक्ति संतुलन को बदलने की क्षमता रखती है। यदि मास्को वास्तव में ईरान को सैन्य सहायता देता है, तो यह अमेरिका और इस्राएल के लिए एक रणनीतिक चुनौती हो सकती है। वहीं भारत की भूमिका एक संतुलनकारी शक्ति की बनती जा रही है, जो सभी पक्षों से संवाद बनाए रखने की वकालत करता रहा है।
ताजा वैश्विक घटनाक्रम जो तस्वीर सामने रख रहे हैं उनमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भूराजनीति अब बहुध्रुवीय होती दिख रही है, जहां केवल अमेरिका या चीन नहीं, बल्कि रूस, भारत और ईरान जैसे देश भी निर्णायक भूमिका में आते जा रहे हैं।
टिप्पणियाँ