वह पल जब चिन्नास्वामी स्टेडियम का उत्सव अचानक चीत्कारों में बदल गया, जब चमकते चेहरों पर मातम और जश्न के नारों की जगह चीखें गूंजने लगीं। …वह सिर्फ एक भगदड़ नहीं थी, वह उस व्यवस्था की क्रूर विफलता थी, जिसने मानवीय जीवन को प्राथमिकता देने से मना कर दिया। आईपीएल के भव्य समापन के बाद उमड़ी भीड़, जो केवल क्रिकेट प्रेम की अभिव्यक्ति कर रही थी, एक ऐसी त्रासदी का शिकार हुई जिसे टाला जा सकता था। मौके पर मौजूद लोगों की और सोशल मीडिया पर उमड़ते स्थानीय लोगों के बयान बता रहे हैं कि यह दुर्घटना टाली जा सकती थी यदि ज़िम्मेदारी, संवेदना और सतर्कता नाम की कोई चीज़ राज्यव्यवस्था में बची होती।

उन आहत करते दृश्य के बीच कुछ लोगों को यह कथन राजनीतिक रूप से अतिवादी लग सकते हैं, किंतु जरा ध्यान दीजिए-इस भीषण मानवीय संकट के बीच जो दृश्य सबसे अधिक भयावह है, वह है राजनीति का निष्ठुर मौन, और उससे भी बुरा है इस मौन के पीछे छिपी असंवेदनशीलता।
कर्नाटक की कांग्रेस सरकार और मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की प्रतिक्रिया इस त्रासदी के बाद केवल शर्मनाक नहीं, बल्कि अक्षम्य है। मुख्यमंत्री का यह कहना कि “ऐसे हादसे तो होते रहते हैं”, उस संवेदना की सार्वजनिक हत्या है, जिसकी अपेक्षा एक लोकतांत्रिक शासन में सबसे पहले की जाती है।
यह ठीक ही है कि किसी भी दुर्घटना के वक्त सबसे पहले ध्यान चोट पर मरहम लगाने का किया जाए। यह राजनीति का वक्त निश्चित ही नहीं होना चाहिए, किंतु कांग्रेस जब ऐसा कहती है तो वह विपक्षियों का सहज ही निशाना बन जाती है। इसके कारण भी हैं।
उरी सर्जिकल स्ट्राइक, कुंभ त्रासदी और पहलगाम हमले के दौरान भी कांग्रेस एकजुट राष्ट्र की भावना पर आघात करने से नहीं चूकी थी। जब देश शोकमग्न था, तब भी कांग्रेस के भिन्न-भिन्न नेताओं द्वारा बयानबाजी और राजनीतिक आरोपों का गंदा खेल खेला गया था।
देश के सबसे बुजुर्ग राजनीतिक दल की ओर से बारंबार होने वाली यह निष्ठुरता कोई अपवाद नहीं, बल्कि उसकी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है।
और जब हम चिन्नास्वामी त्रासदी की तहों में उतरते हैं, तो भीतरी सड़ांध साफ अनुभव होती है। स्टेडियम से केवल दो किलोमीटर दूर स्थित हाई ग्राउंड्स पुलिस स्टेशन (जोकि कब्बन पार्क पुलिस स्टेशन के साथ मिलकर चिन्नास्वामी स्टेडियम की व्यवस्था संभालता रहा है) पर स्थानीय लोग और मीडिया जन सरोकारों की बजाय राजनीति की कठपुतली के तौर पर कार्य करने के आरोप लगाते हैं।
आज पत्रकारों से लेकर स्थानीय जनता और राजनीतिक प्रवक्ता तक इस थाने और पुलिस पर प्रश्न उठा रहे हैं तो यह अकारण नहीं है। यह कर्नाटक का ऐसा थानाक्षेत्र है, जहां भीड़ को नियंत्रित करने या आवश्यक सुरक्षा तैनाती सुनिश्चित करने में असफलता प्रथम दृष्टया समझ आती है। साथ ही हाई ग्राउंड्स पुलिस थाना तो ऐसा है जो कांग्रेस पर उंगली उठाने वाले पत्रकारों को देशभर में उत्पीड़ित करने के लिए लगातार समय और संसाधन झोंक रहा है।
क्या यह असावधानी थी या जानबूझकर की गई उपेक्षा? सोशल मीडिया और स्वतंत्र रिपोर्ट स्पष्ट इशारा करती हैं कि सुरक्षा ‘इनपुट्स’ को किनारे करते हुए कार्यक्रम के आयोजन की स्वीकृति दी गई थी। सवाल यह भी है कि पुलिस और आयोजकों में समन्वय क्यों नहीं था? एंबुलेंस और मेडिकल रिस्पॉन्स कहां थे और जब जानें जा चुकी थीं, तब भी कार्यक्रम क्यों जारी रखा गया?
जब हम चिन्नास्वामी त्रासदी की तहों में उतरते हैं, तो भीतरी सड़ांध साफ अनुभव होती है। स्टेडियम से केवल दो किलोमीटर दूर स्थित हाई ग्राउंड्स पुलिस स्टेशन (जोकि कब्बन पार्क पुलिस स्टेशन के साथ मिलकर चिन्नास्वामी स्टेडियम की व्यवस्था संभालता रहा है) पर स्थानीय लोग और मीडिया जन सरोकारों की बजाय राजनीति की कठपुतली के तौर पर कार्य करने के आरोप लगाते हैं।
और फिर जो चित्र उभरता है वह केवल निष्ठुरता नहीं, सत्ता की कुटिलता का प्रमाण बन जाता है। हाई ग्राउंड्स पुलिस थाना, जो बीते एक वर्ष में कांग्रेस की राजनीतिक प्रतिहिंसा का केंद्र रहा है- अर्नब गोस्वामी, अजीत भारती जैसे पत्रकारों तथा अमित मालवीय, रवनीत सिंह बिट्टू और जेपी नड्डा जैसे ‘कांग्रेस विरोधी’ राजनीतिक दिग्गजों के विरुद्ध कार्यवाही करने वाला थाना रहा है। ऐसे में क्या इस घटना को अब भी सिर्फ ‘हादसा’ कहा जाएगा?
यह कोई फिल्मी कल्पना नहीं कि सत्ता और पुलिस के गठजोड़ से संगठित अपराध आकार ले, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षकार मानते हैं कि पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में यह विद्रूपता एक सत्य बनने की ओर अग्रसर है।
सत्ता और नायक जैसी फिल्मों में सत्ता-संरक्षित नेटवर्क के खतरों की जो झलक थी, वह आज कर्नाटक और बंगाल की सड़कों पर परछाइयों की तरह मंडरा रही है। पूर्व न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी की अध्यक्षता में गठित पुलिस सुधार आयोग और प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार (2006) के सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश स्पष्ट करते हैं कि राजनीति और पुलिस का गठजोड़ लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। इन सुधारों को लागू करने में राज्य सरकारों की लापरवाही पहले भी आलोचना का विषय बनी है।
परन्तु प्रश्न केवल यह नहीं है कि इतने लोग क्यों मरे? प्रश्न यह भी है कि राज्य ने क्या किया?
क्या सुरक्षा उपाय किए गए थे? अगर हां, तो वे क्यों फेल हुए? इस आयोजन को किसने अधिकृत किया और पूर्व मूल्यांकन किसके द्वारा किया गया था? आयोजकों और पुलिस के बीच समन्वय में कहां कमी थी? जब लोग भीड़ और भगदड़ में छटपटाने लगे, मौत मंडराने लगी, तब भी सम्मान समारोह क्यों चलता रहा? एम्बुलेंस और आपातकालीन चिकित्सा प्रबंधन कहां था? और सबसे बड़ा प्रश्न, उनींदी राज्य सरकार इस जनहानि की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेती?
इन सवालों का उत्तर ही सरकार की वैधता तय करेगा। लेकिन दुर्भाग्यवश, कांग्रेस सरकार दोष या तो भीड़ पर, या भाजपा पर या फिर आईपीएल टीम आरसीबी पर डालने की तैयारी में है। यह जनता की नहीं, अपराधियों की राजनीति है।
ऐसे में समय आ गया है जब न्यायपालिका को इस पर स्वतः संज्ञान लेना चाहिए। यदि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पुलिसिया अत्याचार, मीडिया की स्वतंत्रता जैसे विषयों पर सक्रिय रही है, तो यह मामला उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी के केंद्र में आता है। यह केवल प्रशासनिक विफलता नहीं है, यह सामाजिक रूप से संवेदनशील होने के साथ-साथ जनतंत्र की नब्ज को कुचलने का कृत्य है।
राजनीति को संवेदनशील और उत्तरदायी बनाना हमारा सामूहिक दायित्व है। जब राष्ट्र रो रहा हो, तब राजनीति को चुप नहीं रहना चाहिए। और जब पुलिस लोकतंत्र की रक्षा के बजाय सत्ता की चाकरी में लगी हो, तो उसे आईना दिखाना केवल विपक्ष का ही नहीं, हर नागरिक का कर्तव्य बन जाता है। पुलिस और प्रशासन को राजनीति का औजार नहीं बनने देना चाहिए।
क्योंकि जब भरोसा लहूलुहान होता है और खाकी तथा खादी चुप रहते हैं, तब न्याय की आखिरी आस केवल अदालतों से बचती है।
चिन्नास्वामी की चीखें इस बार केवल हादसे की नहीं हैं, वे लोकतंत्र की आत्मा को झकझोरती पुकार हैं।X@hiteshshankar
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