पाकिस्तान ने अपनी आस्तीन में कई आतंकी संगठन छिपा रखे हैं, जो उसके लिए राजनीतिक-कूटनीतिक उद्देश्यों को पाने के औजार हैं। आतंकवाद की इस नर्सरी का कभी अपने हित साधने के लिए प्रयोग करने वाले अमेरिका से लेकर भारत और दुनिया के विभिन्न देशों ने इन औजारों की मार झेली है। अब इसमें एक और औजार शामिल हो गया है। वह है कुख्यात आतंकी संगठन आईएसआईएस की खुरासान शाखा आईएसके।
बलूचिस्तान की पहाड़ियों में अपने शिविर बनाए आईएसके ने हाल ही में एक वीभत्स वीडियो जारी कर बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए), बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट (बीएलएफ) से लेकर आम बलूचों तक को प्रदर्शन आदि में भाग लेने के प्रति चेताया है। वीडियो में लोगों का गला काटते हुए दिखाया गया है। आईएसके ने कहा है कि अब बलूच लड़ाके खास तौर पर उसके निशाने पर होंगे। ऐसे में पहले से ही अशांत बलूचिस्तान में एक और घातक आयाम जुड़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन पाकिस्तान इसका इस्तेमाल इसी मोर्चे पर नहीं, बल्कि अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को अस्थिर करने के लिए भी करेगा। यानी पूरे इलाके के लिए एक और बड़ी समस्या खड़ी होने वाली है।
खलीफा राज का सपना
जहां भी शरिया तर्ज पर इस्लामी सत्ता कायम करने का संघर्ष चल रहा है, उसमें एक बड़ा कारक यह होता है कि कौन, किस हद तक शरिया के पालन को सही मानता है। इसी ऊहापोह के कारण आईएसके यानी इस्लामी स्टेट खुरासान वजूद में आया। तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी), अफगान तालिबान और अलकायदा के कई सदस्य इस बात से नाराज थे कि अफगानिस्तान की तालिबान सरकार शरिया का उस हद तक पालन नहीं कर रही, जितना किया जाना चाहिए। इसी कारण इन आतंकी संगठनों ने पूरी तरह शरिया पर चलने वाले खलीफा राज की स्थापना के लिए हर हद पार करने वाले आईएसआईएस में आशा की किरण देखी। मोटे तौर पर आईएसके बनने की प्रक्रिया 2014 में शुरू हुई। उस समय टीटीपी का प्रवक्ता शहीदुल्लाह शाहिद था, जिसका असली नाम शेख मकबूल ओरकजई था।
उसने अक्तूबर 2014 में आईएसआईएस के सरगना अबु बकर अल-बगदादी के प्रति निष्ठा जताई तो टीटीपी ने उसे संगठन से निकाल दिया। जनवरी 2015 में आईएसके की औपचारिक घोषणा हुई। इसका काम था ऐतिहासिक क्षेत्र खुरासान (अफगानिस्तान, ईरान और मध्य एशिया के कुछ हिस्से) में शरिया पर चलने वाले खलीफा राज की स्थापना के लिए काम करना। टीटीपी के पूर्व कमांडर हाफिज खान सईद को अल-बगदादी ने आईएसके का पहला अमीर नियुक्त किया, जिसने पाकिस्तान के कबाइली इलाकों में अपने नेटवर्क का लाभ उठाकर आतंकियों की भर्ती शुरू की। इसके बाद 2016-2017 के दौरान अफगानिस्तान के जलालाबाद से लेकर बलूचिस्तान में क्वेटा व मस्तुंग में कई हमले हुए, जिसकी जिम्मेदारी आईएसआईएस ने ली। अब सवाल यह उठता है कि इन सबमें बलूच कहां से आ गए?
आईएसके के निशाने पर बलूच क्यों?
36 मिनट के उस वीडियो को आईएसके के मीडिया सेल अल-अजाइम फाउंडेशन ने जारी किया। इसमें दावा किया गया है कि बीएलए और बीएलएफ ने दो माह पहले मस्तुंग में उसके कैंप पर हमला किया था। इसलिए वह बलूचों को अपना दुश्मन मानता है। दरअसल, पाकिस्तान ने बलूचिस्तान की धरती पर चौसर की बिसात बिछा दी है, जिस पर आतंकवाद को मोहरे के तौर पर प्रयोग कर रहा है। पूरे इलाके की शांति-सुरक्षा पर इसका असर तो पड़ेगा ही, इसकी गूंज आने वाले समय में दुनियाभर में सुनी जाएगी। वीडियो संदेश में आईएसके ने साफ कहा है कि मस्तुंग सहित बलूचिस्तान के पहाड़ों में उसके प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं। इसका मतलब?
पाकिस्तान लंबे समय से बलूचिस्तान में जोर-जबर्दस्ती कर रहा है, लोगों को गायब कर रहा है और उन्हें मारकर कभी सामूहिक कब्रों में दफना देता है तो कभी शवों को ठिकाने लगाने के लिए अस्पतालों को सौंप देता है। लगातार वर्षों के अभियान के बाद दुनिया को अब बलूचिस्तान में होने वाले मानवाधिकार हनन पर भरोसा होने लगा है और जगह-जगह नागरिक समाज से लेकर राजनीति से जुड़े लोग इस पर सवाल उठा रहे हैं। यानी पाकिस्तान का यह अभियान कुछ हद तक सिरे नहीं चढ़ पाया कि बलूचिस्तान की समस्या पर आतंकवाद का लेबल चस्पा कर दिया जाए।
ऐसा कई बार हुआ कि आईएसके ने क्वेटा और मस्तुंग जैसे इलाकों में हमले कर इसकी जिम्मेदारी ली, लेकिन इसकी ज्यादा चर्चा नहीं हुई। ताजा वीडियो के बाद आईएसके चर्चा में आया और इसके साथ यह बात भी कि बलूचिस्तान की धरती पर आतंकियों ने ठिकाना बना रखा है। इसके अलावा आईएसके व बलूच लड़ाकों के बीच कथित खूनी जंग में अगर पाकिस्तान बड़ी सैन्य कार्रवाई करता है तो संभवतः अंतरराष्ट्रीय जगत में न उसकी उतनी आलोचना नहीं होगी, न ही उसकी कार्रवाई को मानवाधिकार हनन के तौर पर देखा जाएगा।
यह संयोग तो नहीं
आईएसके ने दावा किया है कि इस साल मार्च में बीएलए और बीएलएफ ने उसके एक कैंप पर धावा बोला, जिसमें कई गैर-पाकिस्तानियों सहित 30 लड़ाके मारे गए। पहली बात, बीएलए या बीएलएफ हमला करता है तो बयान जारी कर उसकी जिम्मेदारी लेता है। कई बार तो ऑपरेशन के बीच में भी बयान जारी किए हैं। आईएसके के कैंप पर बलूच लड़ाकों के हमले की बात सबसे पहले अफगानिस्तान मूल के अमेरिकी राजनयिक जल्मे खालिजाद ने एक्स पर अपने पोस्ट में की थी। इसके बाद आईएसके ने वीडियो जारी किया। लेकिन यह दावा काफी हद तक एकतरफा लगता है।
दूसरी बात, आम बलूचों को आईएसके की चेतावनी कि वे बलूच संगठनों द्वारा आयोजित प्रदर्शन आदि में भाग न लें, क्योंकि इस तरह की भीड़-भाड़ उसके ‘प्राथमिक निशाने’ होंगे। जरा सोचिए, बलूचिस्तान में रैलियां कौन निकाल रहा है? बलूच यकजेहती कमेटी (बीवाईसी) की नेता मेहरंग बलोच जेल में बंद हैं। हाल के बरसों में मेहरंग बलूचिस्तान में मानवाधिकार हनन के खिलाफ मजबूत आवाज के रूप में स्थापित हो चुकी हैं। आईएसके के दावे से मात्र दो दिन पहले पाकिस्तानी सेना के मीडिया विंग इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) द्वारा बयान जारी कर बीवाईसी को ‘आतंकी संगठन’ करार देना क्या संयोग था? जबकि बीवाईसी विशुद्ध रूप से शांतिपूर्ण प्रदर्शन करती है और उसका सशस्त्र आंदोलन से कोई संबंध नहीं। साफ है कि आईएसपीआर और आईएसके दोनों एक ही भाषा बोल रहे हैं। यानी पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान और आतंकी संगठन का किसी उद्देश्य से मिल-जुलकर काम करने का एक और उदाहरण।
बलूचों का रुख
अगर आईएसके अपनी धमकी पर अमल करता है तो आम बलूचों से लेकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे लोगों और उनके परिवारों तक को कीमत चुकानी पड़ सकती है। ऐसे में बलूच क्या सोचते हैं? बलूच नेशनल मूवमेंट (बीएनएम) के वरिष्ठ संयुक्त सचिव कमाल बलोच कहते हैं, “अपनी आजादी की लड़ाई में बलूच बहुत केंद्रित रहे हैं। आम लोगों या दूसरे असंबद्ध लोगों को कभी निशाना नहीं बनाया गया। हमें पता है कि हमारा दुश्मन कौन है और हमने कभी इसे नहीं छिपाया। बलूचों ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे आंदोलन गुमराह हो जाए।” लेकिन यह भी सच है कि यदि आने वाले समय में पाकिस्तान के इशारे पर आईएसके ने बलूचों पर दुश्मनी थोप दी तो शायद बलूचों के सामने उसका जवाब देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा।
इसके अलावा, आईएसके ने एक और ऐसी बात कही है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उसके अनुसार, मस्तुंग में बलूच लड़ाकों के कथित हमले के बाद बलूचों के साथ ‘हमला न करने की सहमति’ का कोई मतलब नहीं रह जाता। इसमें दो बातें हैं। पहली, यह सही है कि आजादी के लिए बीएलए और बीएलएफ जैसे सशस्त्र गुट घातक हमलों को अंजाम देते हैं, लेकिन इन सबका लक्ष्य एक है-पाकिस्तान से आजादी। दूसरी बात, इन गुटों की खैबर पख्तूनख्वा और सिंध में सक्रिय गुटों के साथ निकटता के पीछे एक साझा उद्देश्य है। आईएसआईएस के साथ बलूचों की सहमति क्यों होगी, इसका कोई कारण नहीं दिखता। दोनों में बुनियादी अंतर है। आईएसआईएस की संकीर्ण दृष्टि उसे शरिया से बाहर देखने नहीं देती, जबकि कबाइली रीति-रिवाजों पर चलने वाला बलूच समाज उदार है, वह मजहब के लिए मारकाट नहीं मचाता।
बीएनएम के सूचना सचिव काजीदाद मोहम्मद रेहान कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि बलूचों की आईएसके के साथ कभी इस तरह की कोई सहमति रही। इस समूह की कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं, वह मुख्य तौर पर हिंसा पर चलने वाला समूह है और ऐसे किसी संगठन के साथ कोई भी सहमति असंभव है।” ऐसा तो नहीं कि आईएसके के कैंप पर हमला पाकिस्तान ने किया या उसके इशारे पर किसी संगठन ने जैसे बलूचिस्तान में वह डेथ स्क्वॉयड के जरिये कराता है!
‘आतंकिस्तान’ की बाजीगरी
पाकिस्तान की सेना, उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई की इस बात के लिए दाद देनी होगी कि आखिर वे कैसे आतंकियों को पालते-पोसते हैं, उनका इस्तेमाल करते हैं, उनसे तरह-तरह के ‘ऑपरेशन’ को अंजाम दिलाते हैं और ‘समय’ आने पर बड़ी ताकतों को साथ उनका ही सौदा कर लेते हैं। इतना कुछ होने के बाद भी आतंकियों के साथ उनकी गलबहियां जारी रहती है!
जिस ओसामा बिन लादेन की तलाश में अमेरिका ने आकाश-पाताल एक कर दिया था, वह आखिर में पाकिस्तान के एबटाबाद में मिला। यह उदाहरण पाकिस्तान और आतंकवाद के परस्पर रिश्तों की बात करते हुए अक्सर दिया जाता है, लेकिन इसके कुछ और उदाहरणों पर भी गौर करना चाहिए। अफगानिस्तान में तालिबान सरकार (1996-2001) के दौरान पाकिस्तान में अफगान राजदूत थे-अब्दुल सलाम जईफ। 2002 में पाकिस्तान ने अब्दुल को गिरफ्तार कर अमेरिका को सौंप दिया था। इसके बाद भी वह तालिबान को समर्थन देता रहता है। दुनिया को झांसे में रखने के लिए वह शब्द उछालता है- ‘अच्छा तालिबान’ और ‘बुरा तालिबान’। यानी जो तालिबान खलीफा के नाम पर अफगानिस्तान में हिंसक हमले करे वह ‘अच्छा तालिबान’ और जो पाकिस्तानी सेना को निशाना बनाए, वह ‘बुरा तालिबान’।
आईएसके भी अछूता नहीं
आपको याद होगा, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दूसरी बार राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभालने के बाद पाकिस्तान का सार्वजनिक रूप से धन्यवाद किया था। यह धन्यवाद इसलिए कि पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के साथ पाकिस्तानी सुरक्षाबलों ने संयुक्त ऑपरेशन में आईएसके के खूंखार आतंकी मोहम्मद शरीफुल्लाह को गिरफ्तार किया। 5 मार्च को उसे अमेरिकी अदालत में पेश किया गया। उसी दिन कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए ट्रंप ने पाकिस्तान को धन्यवाद दिया। यह शरीफुल्लाह वही है, जिसने 26 अगस्त, 2021 को काबुल हवाईअड्डे पर घातक हमले को अंजाम दिया था, जिसमें 13 अमेरिकी सैनिक और करीब 170 लोग मारे गए थे। शरीफुल्लाह ने बाद में एफबीआई के सामने कबूल किया कि 2024 में मास्को के क्रॉकस सिटी हॉल पर हुए हमले में भी उसका हाथ था, जिसमें 130 लोग मारे गए थे। इसके बाद भी अगर आईएसके पाकिस्तान की भाषा बोल रहा है, तो यह इस बात का सबूत है कि आतंकवादी शतरंज के खेल में दोनों ओर से खुद चाल चलने में पाकिस्तान ने महारत हासिल कर ली है।
असली निशाना है अफगानिस्तान
अगर आईएसके के गठन में पाकिस्तान की कोई भूमिका न भी हो तो कम से कम इतना तो है ही कि अफगानिस्तान की मौजूदा तालिबान सरकार से दोनों खफा हैं। आईएसके की नाराजगी का हमने ऊपर जिक्र किया है, अब आते हैं पाकिस्तान की खुंदक पर। 1980 के दशक में शीत युद्ध के दौरान जब तत्कालीन सोवियत संघ की सेना को अफगानिस्तान से निकाल बाहर करने के लिए अमेरिका ने ऑपरेशन शुरू किया तो पाकिस्तान ने इसमें अहम भूमिका निभाई और इसके बदले अमेरिका से खूब मदद ऐंठी। सोवियत संघ को अफगानिस्तान छोड़कर जाना पड़ा और पाकिस्तान ने इसे अपनी जीत माना। उसके बाद जब अमेरिका ने भी अफगानिस्तान से जाने का मन बना लिया तो अफगानिस्तान को पांचवां सूबा समझने वाले पाकिस्तान ने काबुल को अपने इशारे पर नचाने की कोशिश की।
अफगानिस्तान ने अपने हितों को पाकिस्तान के हितों के आगे कुर्बान करने से इनकार कर दिया और उसके बाद दोनों देशों में सैन्य झड़प होने लगी। ऐसे में आईएसके उसके लिए एक नायाब औजार बन गया है। इसका इस्तेमाल वह बलूचिस्तान से लेकर अफगानिस्तान तक करेगा। इसलिए आने वाले समय में दुनिया को पाकिस्तान और आईएसके के संयुक्त कारनामे के कई उदाहरण मिलने वाले हैं। खास तौर पर अफगानिस्तान और क्षेत्रीय शांति-सुरक्षा की दृष्टि से यह एक घातक गठजोड़ है।
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