नक्सली माओवादी विद्रोह : वेश में घर के भेदी
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होम भारत

नक्सलवाद : भद्र वेश में घर के भेदी

जैसे दीमक अंदर ही अंदर लकड़ी को खोखला करती है, वैसे ही शहरी नक्सली अपनी हरकतों से भारत को कमजोर कर रहे हैं। बड़े-बड़े शहरों में दबे-छुपे तो कहीं खुलेआम रह रहे ये लोग विदेशी पैसे के बल पर नक्सलियों को हिंसा का खाद-पानी उपलब्ध कराते हैं और युवाओं को उकसाते हैं

by पंकज जगन्नाथ जयस्वाल
Jun 2, 2025, 12:08 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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शहरी नक्सली, एक ऐसा शब्द जो हाल के वर्षों में लोकप्रिय हुआ है। शहरी नक्सली माओवादी विद्रोह के साथ सहानुभूति रखते हैं, उसका समर्थन करते हैं या सक्रिय रूप से सहायता करते हैं। ये लोग भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं। ये खुद को शिक्षाविद् या मानवाधिकार कार्यकर्ता बताते हैं, लेकिन उनका असली कार्य है भोले—भाले युवाओं को भ्रमित करना। ये कथित सामाजिक न्याय के समर्थक बनकर विद्यार्थियों में कट्टरपंथी धारणाएं भरते हैं, उन्हें सरकार का विरोध करने तथा हिंसक, विद्रोही जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। नक्सली तत्ह बाहरी ताकतों की मदद से हर उस चीज को खारिज करते हैं जो राष्ट्र के पक्ष में है। ये जाति विवाद, कश्मीरी अलगाववाद और खालिस्तानी आंदोलन को हवा देते रहते हैं। बिहार में जाति विवाद, आंध्र प्रदेश में जमींदारों के प्रति दुश्मनी, जनजाति क्षेत्रों में वन कानूनों के प्रति असंतोष, युवा बेरोजगारी और ‘मुस्लिमों का दमन’ जैसे मुद्दे सुलगाने का प्रयास करते हैं।

भारत विरोधी नारे और हिंसा भी हमें शिक्षा परिसरों में दिखती है। वह काफी हद तक शहरी नक्सलियों द्वारा छात्रों को प्रभावित करने का परिणाम है। लोगों को यह सोचना पड़ रहा है कि कुछ छात्र भारत विरोधी कैसे हो गए? कुछ शिक्षण संस्थान अचानक हंगामे का केंद्र क्यों बन गए? शहरी नक्सली आज भी अंग्रेजों कें दिमाग का हिस्सा बने हुए हैं, जिनके पास उत्कृष्ट शिक्षा है, लेकिन सामाजिक जागरूकता बहुत कम है। उनके पास एक पश्चिमी दृष्टिकोण है, और हर घरेलू मुद्दे को पश्चिमी समाज के दृष्टिकोण से देखते हैं। उनकी अंतिम रणनीति समाज की निराशाजनक तस्वीर प्रस्तुत करना है। वे केवल भावनाओं में विश्वास करते हैं। उन्हें आंकड़ों और तथ्यों से लेना-देना नहीं है।

वे भारत को ध्वस्त करना चाहते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि चीन और पश्चिमी सभ्यता एक आदर्श दुनिया का प्रतिनिधित्व करती है। ये शहरी नक्सली वैचारिक तर्क और रसद सहायता देकर नक्सली संगठनों के लिए भर्ती को बढ़ावा देते हैं। हालांकि शहरी नक्सली सशस्त्र युद्ध में सक्रिय रूप से शामिल नहीं हैं, लेकिन उनकी हरकतें हिंसा, दंगे और नागरिक अशांति को भड़काती हैं, जिससे महानगरीय क्षेत्र अस्थिर होते हैं। शहरी नक्सलियों के इर्द-गिर्द होने वाला विमर्श राजनीतिक ध्रुवीकरण को गहरा करता है, जिससे सामाजिक विभाजन होता है और संभावित रूप से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से समझौता होता है।

ये लोग पकड़े गए नक्सलियों को कानूनी सहायता प्रदान करते हैं। इसके अलावा, मानवाधिकारों की आड़ में व्यवस्था को मजबूर किया जाता है। झूठे विमर्श फैलाकर नए लोगों को आकर्षित करते हैं। इनकी रणनीति के तहत सोच है कि ट्रेड यूनियनों और शैक्षणिक संस्थानों के सदस्यों को नक्सल आंदोलन में शामिल होने के लिए आसानी से बहकाया जा सकता है।

पश्चिमी शिक्षा प्राप्त ये शहरी नक्सली मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओ की विचारधाराओं का समर्थन करते हैं। ये लगातार भारत की संप्रभुता और राज्य के दर्जे को कमज़ोर करने के लिए काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र पुलिस में पूर्व महानिदेशक (विशेष अभियान) जयंत उमरानीकर के अनुसार, ”शहरी नक्सल आंदोलन पारंपरिक नक्सलियों से अधिक खतरनाक है। ये नक्सली युवा दिमागों को सरकारी मशीनरी के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए उकसाते हैं और यह अधिक हानिकारक है।”

Topics: पाञ्चजन्य विशेषनक्सली माओवादी विद्रोहनक्सल आंदोलनमुस्लिमों का दमनयुवा बेरोजगारीकश्मीरी अलगाववादखालिस्तानी आंदोलनभारत की संप्रभुतानक्सलवाद
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