ध्रांगध्रा, सुरेंद्रनगर (गुजरात) । हजारों वर्षों से भारतीय शिक्षा का मूल आधार रही गुरुकुल परंपरा को पुनर्जनन देने के उद्देश्य से पाञ्चजन्य ने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली पर अब तक के सबसे बड़े संवाद सम्मेलन Panchjanya Gurukulam का आयोजन किया है। यह कार्यक्रम आज 6 मार्च को सुबह 10 बजे से श्री स्वामीनारायण संस्कारधाम गुरुकुल, ध्रांगध्रा, सुरेंद्रनगर, गुजरात में शुरू हो रहा है। इस सम्मेलन में भारतीय ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति के पुनरुत्थान जैसे विषयों पर गंभीर चर्चा और चिंतन होगा।
इस आयोजन में कई विशिष्ट अतिथि शामिल होंगे, जिनमें श्री इंद्र विजयसिंह जडेजा (शिक्षाविद् एवं पूर्व कैबिनेट मंत्री, गुजरात सरकार), डॉ. प्रतापानंद झा (निदेशक, सांस्कृतिक संचार, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली), श्री ए.बी. शुक्ल (सेवानिवृत्त IAS, विभागाध्यक्ष, भारत विद्या प्रयोजना, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली), आचार्य श्री देवव्रत जी (माननीय राज्यपाल, गुजरात), पूज्य स्वामी परमात्मानंद सरस्वती जी (संस्थापक, आर्ष विद्या मंदिर, राजकोट एवं महासचिव, हिंदू धर्म आचार्य सभा), विश्व जयेशभाई वोरा जी (मुहूर्त शास्त्री, ज्योतिष शास्त्री, वास्तुकार और अंकशास्त्री) तथा डॉ. मेहुल भाई आचार्य (संचालक, संस्कृति आर्य गुरुकुलम्, राजकोट) शामिल हैं।
कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने कहा, “आज जब इस कार्यक्रम की संकल्पना की बात आई, तो आपने देखा होगा कि देश में मीडिया संस्थान बहुत सारे इवेंट आयोजित करते हैं। हमने भी हाल ही में गांधी नगर में राज्य के यशस्वी मुख्यमंत्री जी के साथ लीला होटल में एक आयोजन किया था। वहां सितारा होटल में राजनीति और सुशासन की बातें हुई थीं। दिल्ली, मुंबई, गुजरात, गोवा, मध्य प्रदेश में इस तरह के आयोजन होते हैं। हम बड़े स्तर पर आयोजन करते हैं, विदेशों में भी करते हैं। लेकिन यह आयोजन विलक्षण है। यह भारतीय विचार को समाज के सामने रखने का अपने आप में एक विशिष्ट प्रयास है। जब भारत की बात होती है, तो किसी भूगोल की बात नहीं होती। भारत की बात करना यानी भारतीयता की बात करना, ज्ञान की बात करना है। और यदि भारतीय ज्ञान की बात है, तो उसका आधार गुरु-शिष्य परंपरा और गुरुकुल परंपरा है।”
उन्होंने आगे कहा, “बहुत सारी बातें हो सकती हैं कि भारत ने विश्व को क्या दिया – धातु कर्म में क्या दिया, गणित में शून्य दिया, रसायन शास्त्र में अनंत चीजें हैं। ‘हिंदू केमिस्ट्री’ जैसी पुस्तक लिखी गई है, जिसमें शुभ सूत्र की बात होती है। लेकिन मुझे लगता है कि एक-एक बिंदु को देखने से पूरा चित्र समझ में नहीं आता। ये छोटे-छोटे बिंदु हैं। इसके आधार को समझना है तो चार महत्वपूर्ण चीजें समझ में आती हैं। पहली, भारतीय ज्ञान समग्रता की बात करता है। आयुर्वेद की बात करता है तो उसके साथ पथ्य-पेट की बात करता है, ऋतुचर्या की बात करता है, आहार-विहार की बात करता है, तन और मन आत्मा के सम्मेलन की बात करता है। एक समग्रता दिखाई देती है। जब योग की बात आती है, तो यह शारीरिक कसरत मात्र नहीं है। उसके साथ योग, ध्यान, प्राणायाम और साधना तक की यात्रा है। समग्रता की बात होती है। यह समुद्र यानी हॉलिस्टिक अप्रोच, ज्ञान परंपरा की पहली महत्वपूर्ण बात है।”
“दूसरी बात, भारत का ज्ञान अनुभवजन्य है। बाकी लोगों के लिए बहुत सारी चीजें अनुभव से परे होती हैं, जो महसूस नहीं की जा सकतीं, उसे पढ़ा जाता है। लेकिन भारत में जब वेद का ऋषि गहन ध्यान में उतरता है, आत्मिक प्रेरणा के साथ, तो वह जो अनुभव लाता है, वह सबकी आंखें खोलने वाला होता है। तीसरी बात, जो अनुभूत है, उसे जगत के सामने रखना। चौथी बात, जिज्ञासा को दबाया नहीं जाता। जिज्ञासा अगर बहुत कठिन स्थिति में भी हो, तब भी युधिष्ठिर यक्ष के प्रश्नों के उत्तर देते हैं। जब मृत्यु से साक्षात्कार होता है, तो नचिकेता यमराज से सहज ही पूछता है कि मृत्यु के बाद इस आत्मा का होता क्या है। और पांचवीं चीज, ज्ञान अनंत में है। यानी मैंने जो कहा, वह आखिरी बात नहीं है। ‘माय वे और हायवे’ जैसी बात भारत नहीं करता। यह एक सतत प्रक्रिया है। यह सनातन का गुण है। ज्ञान भी आपके पास है, नया है, तो उसका परिमार्जन होगा, तो आगे बढ़ेंगे।”
हितेश शंकर ने भारतीय ज्ञान परंपरा की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए कुछ पंक्तियां भी उद्धृत कीं:
“सील सत्य संयम मर्यादा, शुद्ध विशुद्ध रहा व्यवहार।
करुणा प्रेम सहज सा झलके, सेवा तप ही जीवन सार।
अमर तत्व के अमर पुजारी, विष पीकर भी नहीं मारा गौरवशाली परंपरा।
सकल ध्यान एकाग्र ज्योति से किया गहन अनुसंधान,
कला शिल्प संगीत रसायन, गणित और आयुर्विज्ञान,
सभी विद्याएं आलोकित कर सभी महिमामय में भूगोल बरा, गौरवशाली परंपरा।”
उन्होंने अंत में कहा, “तो आज यह जो गुरुकुल की परंपरा, गौरवशाली परंपरा है, भारतीय ज्ञान परंपरा का व्याप सबने देखा है। अब पूरे देश में और विदेश में भी अब ऐसे आयोजनों के लिए पाञ्चजन्य अपनी कमर कस चुका है। अपने इसी संक्षिप्त भाव प्रतिवेदन के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देता हूं। क्योंकि आज सुनने को बहुत कुछ है, मंथन करने को बहुत कुछ है। धन्यवाद।”
टिप्पणियाँ