राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने कहा कि अध्यात्म एवं विज्ञान में कोई विरोध नहीं है। विज्ञान और अध्यात्म के प्रति श्रद्धावान व्यक्ति को ही न्याय मिलता है। जिनके पास अपने साधन और ज्ञान का अहंकार होता है, उन्हें यह नहीं मिलता। श्रद्धा में अंधत्व का कोई स्थान नहीं है। जानो और मानो, यही श्रद्धा है, परिश्रमपूर्वक मन में धारण की हुई श्रद्धा। सरसंघचालक ने 26 नवंबर को नई दिल्ली में आई व्यू इंटरप्राइजेज द्वारा प्रकाशित मुकुल कानिटकर की हिंदू जीवन मूल्यों पर आधारित पुस्तक ‘बनाएं जीवन प्राणवान’ के विमोचन के अवसर पर ये बातें कहीं।
उन्होंने आगे कहा कि गत 2000 वर्ष से विश्व अहंकार के प्रभाव में चला गया है। अपनी ज्ञानेंद्रियों से मैं जो ज्ञान प्राप्त करता हूं, वही सही है और उसके परे कुछ भी नहीं है, इस सोच के साथ मानव तब से चला है जब से विज्ञान आया है। परंतु यही सब कुछ नहीं है। विज्ञान का भी एक दायरा है, एक मर्यादा है। उसके आगे कुछ नहीं है, यह मानना गलत है। उन्होंने कहा कि यह भारतीय सनातन संस्कृति की विशेषता है कि हमने बाहर देखने के साथ-साथ अंदर देखना भी प्रारंभ किया। हमने अंदर तह तक जाकर जीवन के सत्य को जान लिया। इसका और विज्ञान का विरोध होने का कोई कारण नहीं है। जानो तब मानो। अध्यात्म में भी यही पद्धति है। साधन अलग है। अध्यात्म में साधन मन है।
मन की ऊर्जा प्राण से आती है। यह प्राण की शक्ति जितनी प्रबल होती है, उतना ही उसे पथ पर आगे जाने के लिए आदमी समर्थ होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में आयोजित इस पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के तौर पर पंचदशनाम जूना अखाड़ा के आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. योगेश सिंह उपस्थित थे। इस अवसर पर अवधेशानंद गिरि जी महाराज ने कहा कि प्राण का आधार परमात्मा है, जो सर्वत्र है। प्राण की सत्ता परमात्मा से ही है, उसमें स्पंदन है, उसी से चेतना है, उसी से अभिव्यक्ति है, उसी से रस संचार है और वही जीवन है। प्राण चैतन्य होता है।
पुस्तक के लेखक श्री मुकुल कानिटकर ने कहा कि भारतीय संस्कृति में सब कुछ वैज्ञानिक है। आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, स्थापत्य के साथ दिनचर्या और ऋतुचर्या के सभी नियम भी बिना कारण नहीं हैं। वही प्राणविद्या है। सारी सृष्टि में प्राण आप्लावित है। उसकी मात्रा और सत्व-रज-तम गुणों के अनुसार ही भारत में जीवन चलता है। लेकिन हजार वर्ष के संघर्षकाल में इस शास्त्र का मूल तत्व विस्मृत हो गया। इस पुस्तक में विभिन्न ग्रंथों में दिए गए तत्वों को सहज भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, जो नई पीढ़ी के मन में आने वाले सामान्य संदेहों को दूर करने में सहायक होगी। कार्यक्रम में मुकुल कानिटकर ने उपस्थित जन को मुद्राभ्यास द्वारा व्यान प्राण की अनुभूति करवाई।
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