गत दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के आवास पर गणेश पूजन किया था। इसके बाद कई सेकुलर नेताओं ने इस पर अंगुली उठाई। इस विषय पर राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह कहते हैं कि सवाल यह है कि क्या भारतीय संविधान में इस बात की मनाही है कि देश का मुख्य न्यायाधीश पूजा नहीं कर सकता या फिर धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो सकता? न्यायाधीशों और न्यायपालिका से संबंधों को लेकर प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौर का इतिहास सनसनीखेज और विवादास्पद किस्सों से भरा रहा है।
उन्होंने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल में इफ्तार पार्टी करते थे और उसमें मुख्य न्यायाधीशों को भी आमंत्रित करते थे, लेकिन कभी इस पर सवाल नहीं उठा और न ही विवाद हुआ। अब फिर सवाल उठता है कि क्या संवैधानिक मर्यादा का यह तकाजा है कि देश का प्रधानमंत्री न तो मुख्य न्यायाधीश से कोई निजी मुलाकात करे और न ही मुख्य न्यायाधीश कभी प्रधानमंत्री के घर पर निजी तौर पर जाए और धार्मिक कार्यक्रमों में तो बिल्कुल ही नहीं! क्या संविधान इस बात की मनाही करता है कि सेकुलर होने के नाम पर न्यायाधीश खास तौर मुख्य न्यायाधीश धार्मिक कार्यक्रमों से दूर रहें? क्या देश का प्रधानमंत्री मुख्य न्यायाधीश से निजी सलाह-मशविरा भी नहीं ले सकते?
यहां वे एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि जवाहरलाल नेहरू के जमाने में मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हुए न्यायमूर्ति पी.बी. गजेंद्रगड़कर की आत्मकथा है- ‘To The Best of My Memory’ . इसके अनुसार नेहरू ने न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर को मुख्य न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त किया था। परंपरा के अनुसार तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश बी.पी. सिन्हा की सेवानिवृत्ति के बाद वरिष्ठता क्रम में न्यायमूर्ति सैय्यद जफर इमाम को मुख्य न्यायाधीश बनना चाहिए था। लेकिन नेहरू ने न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर को मुख्य न्यायाधीश बनाया। वे चाहकर भी न्यायमूर्ति इमाम को मुख्य न्यायाधीश नहीं बना पाए। डॉक्टर की एक रपट के अनुसार, ‘न्यायमूर्ति इमाम की मानसिक हालत ठीक नहीं थी। वे किसी मामले की सुनवाई करते-करते सो जाते थे।
वे कुछ याद भी नहीं रख पाते थे।’ ऐसे में न्यायमूर्ति सिन्हा की अनुशंसा पर न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की तरह न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर भी मराठी और धार्मिक थे। बतौर मुख्य न्यायाधीश उन्होंने तिरुपति के दर्शन भी किए थे और महाराष्ट्र में विठोबा मंदिर के कार्यक्रम में भी शामिल हुए थे। उन्होंने भारतीय संविधान में निहित सेकुलरवाद और अपनी धार्मिकता के बारे में कोई विरोधाभास नहीं पाया था। उनका कहना था कि पश्चिम में सेकुलरवाद को जिस तरह से लिया जाता है वह मूल तौर पर धर्म विरोधी, ईश्वर विरोधी और चर्च विरोधी है, जबकि दूसरी तरफ हमारा संविधान साफ तौर पर यह कहता है कि पंथनिरपेक्षता का अर्थ है सभी मत-पंथों का सम्मान करना।
हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों में धर्म से जुड़े अधिकार हैं, हमारा संविधान यह भी कहता है कि भले कुछ लोगों की धर्म में बिल्कुल आस्था न हो, तब भी वे नागरिकता के अधिकारी हैं और जो धर्म में आस्था रखते हैं, उनके भी नागरिक अधिकारों को कोई हानि नहीं पहुंच सकती। कुछ लोगों को लगता है कि सेकुलरवाद का अर्थ होता है पंथ-विरोधी होना, लेकिन मेरे हिसाब से यह भारतीय संविधान के सेकुलरवाद की व्याख्या के विरुद्ध है। आप विधर्मी हो सकते हैं, अधार्मिक हो सकते हैं, धार्मिक हो सकते हैं, फिर भी आप नागरिक हैं। नागरिक के नाते तमाम अधिकार आपके पास हैं और आपको हर किस्म के कर्तव्य का पालन करना है। भारतीय संविधान में धर्म नामक संस्था और भारतीय संस्कारों, जीवन-पद्धति को उच्च स्थान दिया गया है।
हरिवंश कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी और न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की आलोचना करने वालों को कम से कम न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर जैसे दार्शनिक न्यायाधीश की बात को ध्यान से समझना चाहिए। अगर वे ऐसा करेंगे तो न तो उन्हें न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ में कोई गलती दिखेगी और न ही प्रधानमंत्री मोदी में।
न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर ने अपनी आत्मकथा में जिक्र किया है कि नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बने लालबहादुर शास्त्री, जिनकी नैतिकता और सार्वजनिक जीवन में शुचिता की भावना पर शायद ही कोई सवाल उठा सके, भी तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर को अपने घर पर बुलाते थे। न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि एक बार शास्त्री जी ने कहा कि वे उनके साथ घर में बैठकर भोजन करना चाहते हैं, अपनी पत्नी के साथ बिना किसी औपचारिकता के। कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर बात करने के लिए गजेंद्रगड़कर ने हां भरी और शास्त्री जी के साथ भोजन किया। क्या इसे ‘सत्ता के पृथक्करण’ का उल्लंघन माना जाए? यही नहीं, शास्त्री जी ने मुख्य न्यायाधीश रहते हुए न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर को सेवानिवृत्ति के बाद ब्रिटेन में भारत का उच्चायुक्त बनाने का प्रस्ताव रखा था।
तो क्या वे उन्हें प्रभावित करने की कोशिश कर रहे थे? गजेंद्रगड़कर लिखते हैं कि उस दौर में तत्कालीन गृहमंत्री उनके घर पर नियमित तौर पर आते थे। मुख्य न्यायाधीश के आसन पर बैठे न्यायमूर्ति गजेंद्रगड़कर रात के अंधेरे में तत्कालीन प्रधानमंत्री शास्त्री जी के घर पर जाते थे, ताकि आराम से बैठकर महत्वपूर्ण विषयों पर बातचीत कर सकें। कल्पना करें कि आज के दौर में यदि केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के घर जाएं या फिर चंद्रचूड़ रात में प्रधानमंत्री मोदी से मिलने जाएं तो विपक्ष या फिर कथित सामाजिक कार्यकर्ता जैसे लोग आसमान को किस हद तक अपने सर पर उठा लेंगे? किस तरह उन्हें दाल में कुछ काला नहीं, बल्कि पूरी दाल ही काली नजर आएगी।
उन्होंने कहा कि भारतीय न्यायपालिका और सर्वोच्च न्यायालय पर करीब पांच दशक तक शोध करने वाले अमेरिकी प्रोफेसर जॉर्ज एच. गडब्वा की पुस्तक और डायरी में तो ऐसे हजारों किस्से दर्ज हैं, जिन्हें जानकर आप चौंक जाएंगे। भला कौन भूल सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में पहली बार तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों -न्यायमूर्ति शेलत, न्यायमूर्ति हेगड़े और न्यायमूर्ति ग्रोवर-की अनदेखी कर न्यायमूर्ति ए. एन. रे को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुख्य न्यायाधीश बनाने का फैसला किया था? उसका कारण यह था कि इन तीनों न्यायाधीशों ने सरकार के रुख के खिलाफ जाकर फैसला दिया था।
इंदिरा गांधी के इस घनघोर अनैतिक कृत्य को संसद में पूरी ढिटाई के साथ न्यायोचित ठहराते हुए उनके करीबी सहयोगी और इस्पात व खनिज राज्यमंत्री रहे एस. मोहन कुमार मंगलम ने कहा था, ‘‘जिस तरह से गोलकनाथ से लेकर बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीवी पर्स और केशवानंद भारती मामले में न्यायपालिका सरकार के साथ टकराव का रास्ता अख्तियार किए हुए थी, उसमें न्यायमूर्ति रे से उम्मीद की जाती है कि वे टकराव का यह रास्ता बंद करेंगे।’’ न्यायमूर्ति रे ने एक ‘आज्ञाकारी बच्चे’ की तरह पूरी तन्मयता के साथ इंदिरा गांधी और उनकी सरकार का साथ दिया, यहां तक कि ‘बेसिक स्ट्रक्चर जजमेंट’ की समीक्षा करने के लिए बिना किसी मांग के एक बड़ी संवैधानिक पीठ के गठन का फैसला भी कर लिया जिसे साथी न्यायाधीशों के विरोध के कारण तुरंत भंग करना पड़ा।
हरिवंश कहते हैं कि न्यायमूर्ति बहारुल इस्लाम का किस्सा राजनीति और न्यायपालिका के बीच के अनैतिक गठजोड़ और निजी रिश्ते को न्यायिक निष्पक्षता पर तरजीह देने का सबसे विवादास्पद उदाहरण है। गुवाहाटी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनने से पहले ये कांग्रेस में कई पदों पर रह चुके थे। बाद में वे सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बने। यहां से सेवानिवृत्त होने के बाद वे फिर से कांग्रेस में गए और 1952 से 1972 के बीच असम कांग्रेस में लगातार बड़ी भूमिका निभाते रहे।
अप्रैल, 1962 में वे कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा गए। 1967 में असम विधानसभा का चुनाव लड़ा और हार के बाद 1968 में दोबारा राज्यसभा भेजे गए। जनवरी, 1972 में उन्हें इंदिरा गांधी ने राज्यसभा से इस्तीफा दिलवाकर गुवाहाटी उच्च न्यायालय का पहला मुस्लिम न्यायाधीश बना दिया और फिर उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश भी। मार्च, 1980 में उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें कांग्रेस ने राज्यसभा में भेजने की कोशिश की, जब उसमें सफलता नहीं मिली, तो उन्हें सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया गया। इस तरह कांग्रेस ने बहारुल इस्लाम के बहाने सर्वोच्च न्यायालय में एक नया कीर्तिमान बनवाया सबसे अधिक उम्र में किसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनाने का।
4 दिसंबर, 1980 को जब इस्लाम न्यायाधीश बने तो उनकी उम्र थी करीब 63 साल। खुद इस्लाम ने यह बात कबूल की थी कि इंदिरा गांधी सरकार के तत्कालीन कानून मंत्री पी. शिवशंकर की कृपा से वे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने। हद तो यह हुई कि अपनी सेवानिवृत्ति से ठीक छह महीने पहले इस्लाम ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और बारपेटा लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार बन गए। सेवानिवृत्ति से ठीक पहले इस्लाम ने उस संविधान पीठ में सहभागिता की थी, जिसने बिहार के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को फर्जीगिरी के एक मामले में राहत दी थी।
जब बारपेटा में अशांति के कारण चुनाव नहीं हो पाया तो कांग्रेस ने उन्हें जून, 1983 में राज्यसभा भेज दिया। ‘सत्ता के पृथक्करण’ का मुद्दा उठाकर जो लोग प्रधानमंत्री मोदी और न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की मुलाकात पर सवाल उठाते हैं, उन्हें यह किस्सा याद कर लेना चाहिए। ऐसे सैकड़ों किस्से हैं, जो ये बताते हैं कि निजी निष्ठा संबंध, वोट बैंक आदि के आधार पर कांग्रेस की तत्कालीन सरकारों ने सर्वोच्च न्यायालय तक में न्यायाधीशों को नियुक्त किया था।
हरिवंश ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी और न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ उसी परंपरा का पालन कर रहे हैं, जो पहले से चली आ रही है कि भारतीय संविधान कहीं से भी यह नहीं कहता कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के प्रमुख एक-दूसरे से नहीं मिलेंगे, एक-दूसरे के घर नहीं जाएंगे। सिर्फ विरोध के नाम पर विरोध करने वाले अपनी प्रामाणिकता को ही गिरा रहे हैं।
(यह लेख संसद टी.वी. के वरिष्ठ पत्रकार-एंकर मनोज वर्मा के साथ ‘संवाद कार्यक्रम’ में राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह के साथ हुई बातचीत पर आधारित है)
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