छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग के अंतर्गत सात जिले आते हैं। इसका भू-भाग केरल से भी अधिक विस्तारित है। बस्तर और उसके आसपास 1980 से आरंभ हुआ (वैसे, नक्सलवाद का आरंभ 1960 के दशक के शुरू में नक्सलबाड़ी (प. बंगाल) में हुआ) नक्सलवाद यहां गिद्ध की तरह अपने डैने पसारता रहा है। इसने क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया है। हथियारों से लैस नक्सलियों की अराजकता, नृशंसता और नरसंहार के आगे ‘अर्बन नक्सली’ ढाल बन कर खड़े होते रहे हैं। उन्होंने लगातार यह प्रयास किया कि माओवादियों के विरुद्ध लड़ाई कमजोर हो और सुरक्षाबलों और सरकार को बदनाम कर उन्हें दबाव में रखा जाए।
वस्तुत: वामपंथ और ‘डीप स्टेट’ का ईकोसिस्टम इतना गहरा है कि उन्होंने अनेक तरह के ‘विक्टिम कार्ड’ खेले। तरह-तरह के हथकंडे अपना माओवाद को क्रांति सिद्ध करने का प्रयास किया। यही कारण है कि ‘अर्बन नक्सलियों’ ने नक्सल प्रभावितों-पीड़ितों को न तो कभी सार्वजनिक मंचों पर आने दिया और न ही उन्हें मुख्यधारा का विमर्श बनने दिया।
पहली बार बस्तर संभाग के विभिन्न जिलों से नक्सल प्रताड़ित व प्रभावित 55 बच्चे, जवान, बुजुर्ग और महिलाएं दिल्ली पहुंचे। उन्होंने जंतर-मंतर पर मौन धरना देकर राजधानी के सन्नाटे को झकझोरना चाहा। वे कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में मीडिया से मिले। उन्होंने देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों के सामने अपनी बात रखी। वे मीडिया संस्थानों के कार्यक्रमों में सहभागी बनकर अपनी बात कहते रहे। यही नहीं, उन्होंने देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू तथा गृह मंत्री अमित शाह से भी मुलाकात कर अपनी व्यथा सुनाई।
यह देश नक्सलवाद को तो जानता है, लेकिन नक्सल प्रभावितों-पीड़ितों को नहीं जानता। क्यों? बस्तर संभाग के नक्सल प्रभावित जिलों में लगभग रोज ही किसी न किसी को मुखबिर बताकर संदेह के आधार पर नक्सली उसका गला रेत कर मार रहे हैं। क्या ऐसे लोगों के भी मानवाधिकार होते हैं? नक्सली जिस निर्ममता से हत्या को अंजाम देते हैं, क्यों इस विषय पर मानवाधिकार का कोई ठेकेदार नहीं बोला? क्यों नहीं कोई मोमबत्ती लेकर खड़ा हुआ या खड़ा दिखा?
क्यों नक्सलियों की नृशंसता पर कभी कोई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सेमिनार नहीं हुआ? दिल्ली आने वाले नक्सल पीड़ितों में कई तो बैसाखियों के सहारे चलते हैं। किसी का एक पैर या दोनों ही पैर नक्सलियों द्वारा बिछाए गए आईईडी विस्फोट में उड़ गए। किसी का एक हाथ नहीं है, किसी ने विस्फोट में अपनी आंखें गवां दीं तो कोई पूरी तरह लाचार हो गया। नक्सलियों ने बच्चों तक को नहीं बख्शा। एक बच्ची, जिसके चेहरे पर बम के छर्रों के दर्जनों निशान थे, एक आंख से ठीक से देख नहीं पाती। प्रदर्शन स्थल पर वह आते-जाते लोगों को तख्ती दिखा कर मानो पूछ रही थी कि बताओ, मेरा क्या कसूर है?
सिकुड़ते नक्सली क्षेत्र
6 अगस्त, 2024 को लोकसभा में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय के दिए बयान के अनुसार, वर्तमान में देश के कुल 38 जिले वामपंथी आतंकवाद से प्रभावित हैं। अकेले छत्तीसगढ़ में ही नक्सल प्रभावित 15 जिले हैं, जो नक्सलियों के विशेष प्रभाव वाले बस्तर संभाग के अंतर्गत आते हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2010 से 2024 की तुलना में नक्सली घटनाओं और हिंसा में 73 प्रतिशत की कमी आई है। 2013 तक देश के 10 राज्यों के 126 जिले नक्सल प्रभावित थे। लेकिन अब उनका प्रभाव क्षेत्र 9 राज्यों के केवल 38 जिलों तक सिमट कर रह गया है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के सफाये के लिए अनेक जन कल्याणकारी कदम उठाए गए हैं। एक ओर सुरक्षाबलों के शिविरों की संख्या लगातार बढ़ाई जा रही है, वहीं नक्सलियों के आखिरी गढ़ अबूझमाड़परिक्षेत्र को चारों ओर से घेर लिया गया है।
दूसरी ओर, बस्तर संभाग में नियद नेल्ला नार (आपका अच्छा गांव) योजना के विस्तार और क्रियान्वयन से सरकार सामाजिक-आर्थिक स्तर पर बेहतर कार्य कर रही है। गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक नक्सलियों के सफाये की बात कही है। माओवाद के ताबूत में आखिरी कील तभी संभव है, जब जमीनी स्तर पर अभियान चले और जमीनी सच्चाइयों से देश को अवगत भी कराया जाए ताकि लोग कथित क्रांति के इन छद्म पुरोधाओं के सच को जान सकें।नक्सलवाद को अनेक स्तरों पर उत्तर देना आवश्यक है।
बंदूक का उत्तर तो देश के जवान दे ही रहे हैं, लेकिन कलम का उत्तर कलम से नहीं दिया जाता। भीमा कोरेगांव प्रकरण इसका एक उदाहरण है कि ‘शहरी माओवादी’ देश को गृहयुद्ध की आग में झोंक देना चाहते हैं। एक सामान्य प्रवृत्ति है कि यदि आग अपने घर में नहीं लगी हो तो हम यह चिंता नहीं करते कि हवा का रुख किस ओर है और कोई चिनगारी हमारा भी सब कुछ नष्ट कर सकती है। देश का बुद्धिजीवी वर्ग ‘सिलेक्टिव’ हो गया है। वह अपनी सुविधा टटोलता है, फिर बोलता है। हमेशा से ही यह परिपाटी रही है कि प्यासा ही कुएं के पास जाता है, लेकिन इस बार नक्सल पीड़ितों ने दिल्ली आकर कहा कि हम भी इसी देश के नागरिक हैं, हमारी व्यथा-कथा को भी मीडिया में जगह मिले। मानव अधिकार की परिभाषा क्या है, इसे स्पष्टत: नक्सल पीड़ितों ने बताया व यह प्रश्न रखा कि उनकी परिस्थितियों पर संवेदनहीनता क्यों है?
जीवन लीलता माओवाद
माओवाद कैसे बस्तर के युवाओं के जीवन को बर्बाद कर रहा है, इसका उदाहरण है गुड्डूराम लेकाम और अवलम मारा। ये दोनों नक्सलियों के आईईडी विस्फोट में अपने अंग गंवा चुके हैं। कल्पना कीजिए ऐसे स्थान की, जहां आपका रखा अगला कदम आपकी जान ले सकता है या जीवन भर के लिए विकलांग बना सकता है। क्या सचमुच माओवादियों ने जल, जंगल और जमीन पर गुड्डूराम और अवलम का अधिकार रहने दिया है? कभी आईईडी का फटना, कभी बीजीएल में विस्फोट तो कभी प्रेशर बम का धमाका, बस्तर के नक्सली इलाके में ये रोजमर्रा की घटनाएं हैं। अंतर केवल इतना है कि इन्हें समाचार-संचार माध्यमों में सही स्थान नहीं मिलता, इसलिए देश अनभिज्ञ है।
इन घटनाओं के शिकार केवल युवक और बुजुर्ग ही नहीं होते, अपितु विस्फोटक लगाने के तरीके ऐसे हैं जिन्होंने बच्चों के जीवन को भी नष्ट किया है। 2013 में नारायणपुर जिले के ग्राम कोंगेरा की तीन वर्षीया बच्ची राधा सलाम अपने पांच वर्षीय चचेरे भाई के साथ आंगनवाड़ी जा रही थी। रास्ते में चमकदार वस्तु दिखाई दी और बालक ने उसे उठा लिया। इसके बाद भयावह धमाके ने बच्चों को जीवन भर के लिए विकलांग बना दिया। आज राधा एक आंख से देख नहीं पाती।
वसूली करते नक्सली
छत्तीसगढ़ के वन प्रदेश में तेंदूपत्ता और महुआ वनवासियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण वनोपज है। माओवादी तेंदूपत्ता और महुआ संग्राहकों, ठेकेदारों और धान की खेती करने वाले किसानों से मोटी रकम वसूलते हैं। एक अनुमान के अनुसार, बस्तर संभाग में तेंदूपत्ता संग्रह कार्य से ही नक्सली सालाना 500 करोड़ रुपये की वसूली करते हैं। यही नहीं, वे विभिन्न सरकारी परियोजनाओं से जुड़े ठेकेदारों, परिवहन क्षेत्र से जुड़े लोगों से भी धन उगाही करते हैं। डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने तेंदूपत्ता संग्रह का कार्य ठेकेदारों से कराने की बजाय सीधे सरकार द्वारा कराने का निर्णय लिया था। इससे माओवादियों की कमाई बुरी तरह प्रभावित हुई थी। लेकिन माओवादियों ने सरकारी तेंदूपत्ता संग्रह केंद्रों में आग लगा दी। इससे सरकार को बड़ी आर्थिक क्षति हुई, तो प्रशासन को पीछे हटना पड़ा। लेकिन आज परिस्थितियां पहले से बहुत अलग हैं।
तेंदूपत्ता संग्राहकों से : नक्सलियों द्वारा सबसे अधिक वसूली तेंदूपत्ता संग्रह से जुड़े लोगों एवं संगठनों से की जाती है। वसूली का गणित इस प्रकार समझिए। एक गांव में कम से कम 50 से लेकर अधिक से अधिक 200 घर होते हैं। गांव में तेंदूपत्ता संग्रह करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को रोजाना 2 गड्डियां नक्सलियों को देना अनिवार्य है।
यदि गांव में 100 तेंदूपत्ता संग्राहक भी हैं, तो इस हिसाब से प्रतिदिन 200 गड्डियां माओवादी ले जाते हैं। 6 रुपये के हिसाब से प्रत्येक गड्डी की कीमत प्रतिदिन 1200 रुपये हुई। यदि महीने में 15 दिन भी तेंदूपत्ता तोड़ा जाता है, तो नक्सलियों की कुल उगाही 18,000 रुपये होती है। इसके अलावा, प्रत्येक गांव से सप्ताह के पहले दिन का मेहनताना भी माओवादियों को देना जरूरी है। एक दिन में लगभग 5,000 से 8,000 गड्डियां तोड़ी जाती हैं, तो प्रति सप्ताह वसूली 30,000 से 48,000 रुपये हुई। इसके अलावा, गांव में तेंदूपत्ता रखने और सुखाने के लिए स्थान के लिए भी ठेकेदारों से 10,000 से 15,000 रुपये वसूले जाते हैं। अगर ठेकेदार नया हुआ तो उसे आय का आधा हिस्सा माओवादियों को देना पड़ता है।
इसी तरह, माओवादी हर फड़ (अस्थायी दुकान) से भी प्रति गड्डी 30 से 50 पैसे की उगाही करते हैं। अमूमन ठेकेदार तेंदूपत्ते की एक लाख से तीन लाख गड्डियां खरीदते हैं। इस हिसाब से प्रत्येक ठेकेदार माओवादियों को कम-से-कम 30,000 रुपये देता है। यानी प्रत्येक फड़ से नक्सली सालाना एक लाख से डेढ़ लाख रुपये की वसूली करते हैं। आजकल प्रत्येक गांव के लोग मिलकर तेंदूपत्ता संग्रह करते हैं और आमदनी सभी परिवारों में बराबर बांटी जाती है। इसके लिए तेंदूपत्ता हितग्राही कार्ड बने हुए हैं। माओवादी प्रत्येक हितग्राही कार्ड पर 20 से 50 गड्डियां यानी 150 से 300 रुपये वसूलते हैं।
महुआ संग्रह से : महुआ भी छत्तीसगढ़ के वन प्रदेश से प्राप्त होने वाली एक महत्वपूर्ण वनोपज है। माओवादी महुआ संग्रह करने वाले ग्रामीणों से लेकर ठेकेदारों तक से भी तेंदूपत्ता जैसी वसूली करते हैं। मारे गए नक्सलियों के क्रियाकर्म के लिए प्रत्येक परिवार से एक पैली यानी लगभग 750 ग्राम महुआ वसूला जाता है। यदि कोई घायल नहीं मरता है तो यह महुआ उनके संगठन को चला जाता है।
धान किसानों से : छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल है-धान। नक्सली धान उगाने वाले प्रत्येक किसान से सालाना एक खण्डी या 20 काठा धान (सामान्य भाषा में लगभग 45 किलो) वसूलते हैं। यदि गांव में 100 घर हैं तो 4500 किलो धान सीधे-सीधे नक्सली ले लेते हैं।
निर्माण कार्यों के ठेकेदारों से : विभिन्न सरकारी परियोजनाओं, जैसे-सड़क निर्माण, अस्पताल निर्माण आदि से जुड़े ठेकेदारों से भी नक्सली एक तय रकम वसूलते हैं। यह सामान्यत: कुल निविदा राशि का 10 प्रतिशत होती है। उदाहरण के लिए, जगरगुण्डा में अस्पताल का निर्माण कराया जा रहा था। इसकी लागत 3 करोड़ रुपये थी। नक्सलियों ने ठेकेदार से 30 लाख रुपये वसूले। इसी तरह, अली नामक एक ठेकेदार को सड़क निर्माण का ठेका मिला था, उससे भी 15 प्रतिशत की दर से उगाही की गई।
परिवहन क्षेत्र से : परिवहन उद्योग भी माओवादियों की उगाही से त्रस्त है। सामान्यत: बस संचालकों को प्रति बस सालाना 15 से 20 हजार रुपये नक्सलियों को देने पड़ते हैं। इसी तरह, ट्रैक्टर वालों से सालाना 10 हजार रुपये वसूले जाते हैं।
मनमाने आरोप, मनमानी सजा
दुर्घटना जैसी लगने वाली कार्रवाइयों के जरिए माओवादियों द्वारा जान-बूझ कर नुकसान पहुंचाने की मंशा से किए गए अपराधों की सूची बहुत लंबी है। नक्सलियों का सबसे दुर्दांत पक्ष है, मुखबिर बताकर वनवासियों की हत्या करना। नक्सली किसी पर भी मुखबिरी का आरोप लगा कर उसे ऐसी सजा देते हैं कि किसी की भी रूह कांप जाए। नक्सली खासतौर से सरपंच, उपसरपंच या पटेल को निशाना बनाते हैं। ऐसे लोगों को पूंजीपति निरूपित कर दिया जाता है और वे इनकी हत्या इस तरह करते हैं जैसे सजा देना उनका अधिकार हो।
बस्तर से 19-21 सितंबर, 2024 को जो 55 नक्सल पीड़ित दिल्ली आए थे, उनमें से प्रत्येक की कहानी अलग है और दर्द भरी है। किसी को चलती बस से उतार कर मारा गया, कोई बाजार में था तब उस पर फायरिंग हुई, कोई मवेशी चराने निकाला था और प्रेशर बम की चपेट में आ गया तो किसी का पैर स्पाईक होल में धंस कर हमेशा के लिए नाकाम हो गया। इसके बावजूद ऐसी घटनाओं की अनदेखी की गई। क्या सिर्फ इसलिए कि आज भी देश का अधिकांश मीडिया लाल-विचारधारा को इस गर्व के साथ ढोता है कि ‘सरकार भले ही उनकी हो, सिस्टम तो हमारा है?’ क्या ‘शहरी माओवादियों’ का ईकोसिस्टम इतना ताकतवर है कि ऐसी घटनाओं को छिपा लेता है और फिर भी सफलतापूर्वक विक्टिम कार्ड खेलता है? बस्तर के विभिन्न स्थानों से आए नक्सल पीड़ित हर किसी से यहीं पूछ रहे हैं कि हमारा क्या कसूर था? आप क्या उत्तर देंगे उन्हें?
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