डॉ. मिलिंद दांडेकर ने कहा, ‘‘धार भोजशाला 11वीं शताब्दी में राजा भोज द्वारा बनाई गई संस्कृत पाठशाला थी। इसमें वेदों का अध्ययन होता था। यहां पर भी मां सरस्वती यानी कि वाग्देवी की एक प्रतिमा थी। राजा भोज के कार्यकाल के बाद भी करीब 3-4 पीढ़ियों तक वहां पर निर्माण कार्य चलते रहे।’’
उन्होंने कहा, ‘‘ खिलजी वंश के लोगों ने सबसे पहले जब मालवा पर हमला किया था, तो राजा भोज के वंशज गोगादेव और महालख ने उससे काफी संघर्ष किया था, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। पूरा इलाका मुस्लिम आक्रांताओं के अधीन हो गया। खिलजियों के वंशजों ने मालवा सल्तनत बनाई थी, बाद में जब मुगल आए तो यह क्षेत्र उनके अधीन रहा। बाद में बाजीराव पेशवा के छोटे भाई चिमाजी अप्पा, इसे मुक्त कराया। 1875 में यहां पहली बार खुदाई हुई और वाग्देवी की प्रतिमा निकली। यह प्रतिमा आज भी लंदन के स्टुअर्ट संग्रहालय में रखी हुई है। भोजशाला को लेकर विवाद इसलिए हुआ क्योंकि भोजशाला के बाहर मौलाना कमालुद्दीन की एक दरगाह बनाई गई थी, जहां मुसलमान नमाज पढ़ते थे। दरगाह को खिलजी वंश के एक उत्तराधिकारी ने बनाया था।
मुसलमान धार के राजा के पास आए और कहा कि हमें बाहर जगह कम पड़ती है, भोजशाला के अंदर बड़ा मैदान है तो हमें नमाज पढ़ने के लिए अनुमति दे दी जाए। राजा ने 1935 में एक आदेश जिसमें सिर्फ नमाज पढ़ने की इजाजत दी गई थी। हिंदू समाज ने 1947 के बाद भोजशाला को प्राप्त करने के लिए एक रक्षा समिति गठित की।
1952 में हिंदुओं ने जहां वाग्देवी की प्रतिमा थी वहां पर पूजा करनी शुरू की। 1962 में मुस्लिम पक्ष ने पहली बार मौलाना कमालुद्दीन कमेटी रजिस्टर करके, उसके नाम पर धार जिला अदालत में एक मुकदमा डाला। इसमें दावा किया गया कि भोजशाला असल में कमाल मौला मस्जिद है और ये वक्फ की संपत्ति है अत: इसे हमें सौंप दिया जाए। 1966 में इस मामले में एएसआई ने अपना हलफनामा फाइल किया था, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यहां पर कोई मस्जिद नहीं थी। नमाज की इजाजत केवल जगह के इस्तेमाल के लिए दी गई थी। ये कोई भी ‘प्लेस आफ वर्शिप’ नहीं है।
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