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राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस : इसरो की नई उड़ान

क्रायोजेनिक इंजन बनाने के बाद इसरो अब लिक्विड आक्सीजन केरोसिन प्रणोदक संयोजन पर काम करने वाला 2,000 किलोन्यूटन थ्रस्ट सेमी-क्रायोजेनिक इंजन विकसित कर रहा

by डॉ. निमिष कपूर
Aug 23, 2024, 09:26 am IST
in भारत, रक्षा, विज्ञान और तकनीक
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भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का 62 वर्ष पूर्व साइकिल और बैलगाड़ी पर रॉकेट के पुर्जे ढोने से शुरू हुआ सफर अब क्रायोजेनिक इंजन और गगनयान तक पहुंच गया है। इसरो आज अंतरिक्ष तकनीक के वैश्विक बाजार में दखल बढ़ा रहा है। उसने विभिन्न देशों के कुल 424 उपग्रह प्रक्षेपित कर दुनिया को बता दिया है कि अब उपग्रह प्रक्षेपण के लिए भारत आना होगा। इसरो द्वारा प्रक्षेपित विदेशी उपग्रहों में 231 अमेरिका के, 86 यूनाइटेड किंगडम और 20 सिंगापुर के हैं। ये तीनों देश इस क्षेत्र में भारत के साथ हुए अंतरराष्ट्रीय सहयोग समझौते के लाभार्थी भी हैं।

डॉ. निमिष कपूर
विज्ञान संचार विशेषज्ञ

अंतरिक्ष कार्यक्रम वैश्विक शक्ति बनने की राह पर अग्रसर इसरो ने पहले क्रायोजेनिक इंजन बनाने में सफलता हासिल की। फिर शक्तिशाली लॉन्च व्हीकल मार्क-3 (एलवीएम-3) बनाया, जिसका चंद्रयान-2 और चंद्रयान-3 अभियानों में सफल प्रयोग किया गया। इसरो अब पेलोड क्षमता बढ़ाने के लिए लिक्विड आक्सीजन केरोसिन प्रणोदक संयोजन पर काम करने वाले 2,000 किलोन्यूटन थ्रस्ट सेमी-क्रायोजेनिक इंजन को विकसित कर रहा है।

मंगल, चंद्रमा के बाद सूर्य

इसरो ने अब तक तीन चंद्र मिशन पूरे किए हैं। चंद्रयान-1 ने चंद्रमा की सतह पर पानी के अणुओं की खोज की। दूसरे मिशन में विक्रम लैंडर की सॉफ्ट लैंडिंग असफल रही, पर आर्बिटर ने डेटा उपलब्ध कराया। 14 जुलाई, 2023 को चंद्रयान-3 का प्रक्षेपण हुआ और 23 अगस्त को लैंडर सफलतापूर्वक चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरा। इसी के साथ भारत चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। इससे पूर्व 24 सितंबर, 2014 को इसरो ने पहले ही प्रयास में मंगलयान को सफलतापूर्वक मंगल की कक्षा में पहुंचाया था। ऐसा करने वाला भारत एशिया का पहला और दुनिया का चौथा देश बना था। इस मिशन की लागत बहुत कम लगभग 450 करोड़ रुपये थी।

इसरो ने चंद्रयान-3 की सफलता के तुरंत बाद 2 सितंबर, 2023 को आदित्य एल-1 को प्रक्षेपित किया और इसे पृथ्वी से लगभग 15 लाख किमी. दूर लेगरेंज पॉइंट 1 पर सफलतापूर्वक तैनात किया। यहां से आदित्य एल-1 सूर्य का निरंतर और निर्बाध अध्ययन कर सकता है। इस मिशन के बाद भारत सूर्य के अध्ययन के लिए समर्पित देशों के एक विशेष समूह में शामिल हो गया है। इस मिशन का उद्देश्य सौर कोरोना, सौर हवा और सूर्य के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करना है।

एसएलवी-3 से एलवीएम-3 तक

इसरो ने 18 जुलाई, 1980 को स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान (एसएलवी-3) के जरिये रोहिणी उपग्रह को सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किया। 1983 में इनसैट शृंखला शुरू हुई, जिसने दूरसंचार, दूरदर्शन प्रसारण और मौसम पूवार्नुमान में अहम योगदान दिया। साथ ही, भारतीय रिमोट सेंसिंग शृंखला के उपग्रहों ने कृषि, जल संसाधन, भूमि उपयोग और पर्यावरण निगरानी में और 1990 के दशक में इसरो पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल और जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (जीएसएलवी) जैसे उन्नत प्रक्षेपण यान विकसित कर अपने उपग्रहों को प्रक्षेपित करने में सक्षम बना।

इसरो ने 2017 में शक्तिशाली उपग्रह प्रक्षेपण यान जीएसएलवी एमके-3 को प्रक्षेपित किया, जिसे अब एलवीएम-3 नाम से जाना जाता है। यह अपने साथ 3,136 किलो वजनी उपग्रह जीसैट-19 साथ लेकर गया। इसमें क्रायोजेनिक इंजन का उपयोग होता है। इससे पहले 2,300 किलो से भारी उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए भारत विदेशी प्रक्षेपकों पर निर्भर था। एलवीएम-3 का पहला सफल परीक्षण 2014 में हुआ, जिसका इस्तेमाल चंद्रयान-2,3 के साथ-साथ वनवेब उपग्रहों के प्रक्षेपण में भी किया गया। भविष्य में इसका उपयोग गगनयान जैसे मानवयुक्त मिशन में किया जाएगा।

ऐसे बनाया क्रायोजेनिक इंजन

इसरो को क्रायोजेनिक इंजन बनाने में ढेरों चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। उसने 1980 के दशक में जीएसएलवी के विकास की योजना बनाई थी, जिसके लिए क्रायोजेनिक इंजन की आवश्यकता थी। इसके लिए रूस से समझौता हुआ, पर 1990 के दशक में अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण रूस ने हाथ खींच लिया। इससे पहले, इसरो ने जर्मनी के वैज्ञानिकों से सहायता लेनी चाही थी, पर उन्होंने भी मना कर दिया। तब इसरो क्रायोजेनिक इंजन बनाने में जुट गया और 2010 में इसका पहला सफल परीक्षण किया। पहली बार 2014 में जीएसएलवी-डी 5 मिशन में इसका सफल प्रयोग किया गया। आज इसकी बदौलत इसरो जटिल और भारी उपग्रहों को भी आसानी से प्रक्षेपित कर सकता है।

इसरो अब अंतरिक्ष कार्यक्रम में पेलोड क्षमता बढ़ाने के लिए सेमी-क्रायोजेनिक इंजन बना रहा है, जो पारंपरिक क्रायोजेनिक इंजन से अधिक थ्रस्ट (प्रणोदन शक्ति) प्रदान करता है। इसका थ्रस्ट लगभग 2,000 किलो न्यूटन है। इससे बड़े और भारी उपग्रहों को भूस्थैतिक कक्षा में भेजा जा सकेगा। इसका उपयोग एलवीएम-3 और भविष्य के भारी-भरकम लॉन्च व्हीकल्स में होगा। सेमी-क्रायोजेनिक इंजन के विकास से इसरो की प्रक्षेपण क्षमता तो बढ़ेगी ही, अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत और सशक्त हो जाएगा।

अपना नेविगेशन सिस्टम

इसरो ने 15 फरवरी, 2017 को पीएसएलवी से एक साथ 104 उपग्रह प्रक्षेपित कर विश्व रिकॉर्ड बनाया। इनमें तीन उपग्रह भारत के और शेष इस्राएल, कजाकिस्तान, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड और अमेरिका के थे। इससे पहले इसरो ने 2016 में एक साथ 20 उपग्रह प्रक्षेपित किए थे। देश में मौसम पूवार्नुमान, आपदा प्रबंधन, संसाधनों की मैपिंग करना तथा भू-पर्यवेक्षण के माध्यम से नियोजन, वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के लिए इसरो की भू-पर्यवेक्षण तकनीक की आवश्यकता होती है। मौसम की सटीक जानकारी से कृषि, जल प्रबंधन तथा आपदा के समय बचाव कार्य इसी तकनीक से संभव हुआ। उपग्रह आधारित नेविगेशन का उपयोग वायु सेवाओं को सुदृढ़ बनाने और उनकी गुणवत्ता सुधारने के लिए किया जाता है। इसी संदर्भ में विकसित इंडियन रीजनल नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम प्रणाली का विकास हुआ, जिसे 2016 में ‘नाविक’ (नेविगेशन विद इंडियन कॉन्स्टेलेशन) नाम दिया गया। 11 अप्रैल, 2018 को प्रक्षेपित स्वदेशी तकनीक से निर्मित नाविक उपग्रह इसी प्रणाली का हिस्सा है, जिससे भारत अब अमेरिका के जीपीएस सिस्टम की तरह अपना नेविगेशन सिस्टम संचालित कर रहा है।

अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में बढ़ता कद

भारत की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था अभी 8 अरब डॉलर की है। यह वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का 2-3 प्रतिशत है। 2040 तक इसके 100 अरब डॉलर होने का अनुमान है। वर्तमान वृद्धि को देखते हुए अगले दशक में भारत की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था 40 अरब डॉलर तक पहुंच सकती है। वित्त वर्ष 2024-25 के लिए अंतरिक्ष विभाग को 13,042.75 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो 2023-24 की तुलना में 498.84 करोड़ रुपये अधिक है। पिछले वर्ष का संशोधित बजट अनुमान 11,070.07 करोड़ रुपये था। 2023 के अध्ययन के अनुसार, भारत का अंतरिक्ष बजट सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 0.05 प्रतिशत पर रहा, जो 2011-12 से 2020-2021 तक स्थिर बना रहा।

नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) जैसी प्रमुख वैश्विक अंतरिक्ष एजेंसियों के मुकाबले इसरो ने कम लागत में उपलब्ध्यिां हासिल की हैं, जो इसे अद्वितीय बनाती हैं। इसरो ने आयात पर निर्भता कम करने और प्रमुख उपकरणों का निर्माण देश में करने पर जोर दिया है। इसरो निजी क्षेत्र के साथ सामंजस्य बना रहा है ताकि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप नई उंचाइयों को छू सके। इसी उद्देश्य से भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्धन और प्राधिकरण केंद्र (IN-SPACe) की स्थापना की गई है। जनवरी 2024 तक IN-SPACe को अंतरिक्ष क्षेत्र में सहायता के लिए 440 आवेदनों के साथ 300 से अधिक भारतीय संस्थाओं ने संपर्क किया है। इसरो की वाणिज्यिक शाखाएं न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL) और इंडियन स्पेस एसोसिएशन (करस्रअ) घरेलू और वैश्विक कंपनियों को उन्नत अंतरिक्ष और उपग्रह तकनीक में भागीदारी के अवसर उपलब्ध कराएंगी।

भविष्य की चुनौतियां

भले ही इसरो ने कम बजट में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन बढ़ती परियोजनाओं और बड़े मिशन के लिए पर्याप्त धन जरूरी है। वैश्विक अंतरिक्ष उद्योग में प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है, जिसमें अन्य देशों और निजी कंपनियों की भागीदारी भी शामिल है। एलन मस्क और रिचर्ड ब्रैनसन जैसे उद्यमियों ने अंतरिक्ष को लाभदायक वाणिज्यिक क्षेत्र में बदलना शुरू कर दिया है, जिससे एक नई अंतरिक्ष क्रांति का आगाज हो रहा है। स्पेसएक्स, ब्लू ओरिजिन जैसी कंपनियों ने प्रक्षेपण सेवाएं प्रदान करना शुरू कर दिया है। इससे इसरो के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो गया है। लिहाजा देश में अंतरिक्ष क्षेत्र में अध्ययन के लिए शिक्षण संस्थानों की संख्या बढ़ानी होगी और युवाओं को आकर्षित करना होगा।
भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम विकासात्मक और सुरक्षा चिंताओं के बीच संतुलन बनाकर चल रहा है। 2007 में चीन द्वारा एंटी-सैटेलाइट मिसाइल परीक्षण को अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ के खतरे के रूप में देखा गया। 27 मार्च, 2019 को भारत ने मिशन शक्ति के तहत एंटी-सैटेलाइट मिसाइल से तीन मिनट में अपने एक उपग्रह को नष्ट कर दुनिया में अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया था।

इसरो की भावी परियोजनाएं

इसरो अभी जिन परियोजनाओं पर काम कर रहा है, उनसे भारत की दुनिया में धाक बढ़ेगी। इसरो नासा और फ्रांस के साथ भी कुछ परियोजनाओं पर मिलकर काम कर रहा है। उसकी 2030 तक अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने की योजना भी है। इन प्रयासों से भारत अंतरिक्ष अन्वेषण में अग्रणी और आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में स्थापित हो सकेगा।

गगनयान-1 :
यह भारत का पहला मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन है, जिसका प्रक्षेपण इस वर्ष के अंत तक किया जाएगा। इसके बाद गगनयान-2 और 3 का प्रक्षेपण किया जाएगा। पहले मिशन में व्योममित्र ह्यूमेनॉयड रोबोट को अंतरिक्ष में भेजा जाएगा। फिर 3 दिवसीय मिशन के तहत 3 सदस्यीय दल को 400 किमी. की कक्षा में भेजा जाएगा। सब कुछ ठीक रहा तो भविष्य में लोग अंतरिक्ष यात्रा कर सकेंगे। विशेष यह है कि मिशन के दौरान किसी भी तरह का खतरा होने पर क्रू मॉड्यूल यात्रियों को सुरक्षित वापस लाया जा सकेगा।
शुक्रयान-1 : यह एक आर्बिटर मिशन है, जो शुक्र ग्रह का अध्ययन करेगा। इसे इसी वर्ष प्रक्षेपित करने की योजना है। इसमें पेलोड में एक उच्च-रिजॉल्यूशन सिंथेटिक एपर्चर रडार (एसएआर) और एक ग्राउंड-पेनेट्रेटिंग रडार लगा होगा। पेलोड एसएआर शुक्र के चारों ओर बादलों के कारण कम दृश्यता के बावजूद हर मौसम में उसकी सतह का निरीक्षण करेगा। वहीं रडार शुक्र ग्रह की भू-वैज्ञानिक, ज्वालामुखीय गतिविधि, सतह पर उत्सर्जन, हवा की गति, बादलों की पर और दूसरे ग्रहों का भी अध्ययन करेगा।एक्सपोसैट : एक्स-रे पोलारिमीटर सैटेलाइट भी प्रक्षेपण के लिए तैयार है। यह भारत का पहला समर्पित ध्रुवणमापी अभियान है, जो विषम परिस्थितियों में चमकीले खगोलीय एक्स-रे स्रोतों के रहस्यों को खोलेगा। इससे ब्लैक होल, न्यूट्रॉन सितारों, सक्रिय गैलेक्टिक नाभिक और पल्सर पवन निहारिकाओं से मिले संकेतों का अध्ययन किया जाएगा। इससे वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष के रहस्यमय संकेतों के बारे में स्पष्ट उत्तर मिलने की उम्मीद है। इस मिशन का कार्यकाल 5 वर्ष होगा।एन.आई.एस.ए.आर (निसार): यह इसरो और नासा का साझा वेधशाला मिशन है। दोनों ने इस उपग्रह की परिकल्पना 2014 में की थी। यह भू-पटल की छोटी-छोटी हलचलों से लेकर ज्वालामुखी विस्फोट तक होने वाले बदलावों का अध्ययन करेगा। निसार प्रत्येक 12 दिन में वैश्विक स्तर पर भूमि और बर्फ से ढकी सतहों का नियमित निरीक्षण करेगा और इससे संबंधित डेटा उपलब्ध कराएगा। इस परियोजना की अनुमानित लगात 1.5 बिलियन डॉलर है। इस उपग्रह का जीवनकाल 3 वर्ष का होगा। नासा 3 वर्ष और इसरो 5 वर्ष तक अपने पेलोड का उपयोग करेगा।

स्पैडेक्स (Spadex): यह इसरो की जुड़वां परियोजना है। इस स्पेस डॉकिंग परियोजना को 2017 में मंजूरी मिली थी। इस ‘स्प्लिट अप एंड यूनाइट’ उपग्रह में दो घटक होंगे। पहले इसे दो हिस्सों में अलग किया जाएगा, फिर उन्हें जोड़ा जाएगा। यह मानवयुक्त गगनयान मिशन सहित भविष्य के अंतरिक्ष मिशनों के लिए महत्वपूर्ण साबित होगा। यदि परियोजना सफल रही तो अंतरिक्ष में ही अंतरिक्ष यान में ईंधन भरना संभव हो सकेगा। साथ ही, महत्वपूर्ण प्रणालियां, उपकरणों और जरूरत की अन्य चीजों के अलावा अंतरिक्ष में मानव को एक यान से दूसरे यान में ले जाया जा सकता है। यही नहीं, दो अंतरिक्ष यान एक-दूसरे को ढूंढ सकते हैं और एक ही कक्षा में बने रह सकते हैं।

मंगलयान-2: पहले मार्स आर्बिटर (मंगलयान) का ग्राउंड स्टेशन से संपर्क टूटने के बाद मार्स आर्बिटर-2 की योजना बनाई गई है। प्रक्षेपण के बाद आठ वर्ष तक मंगल की कक्षा में चक्कर लगा रहे मंगलयान का ईंधन और बैटरी खत्म हो गई थी। मंगलयान-2 का उद्देश्य आर्बिटर को मंगल ग्रह की निकटवर्ती कक्षा में स्थापित करने की है। इसके लिए इसरो एयरोब्रकिंग तकनीक का प्रयोग करेगा। इस मिशन में लैंडर भी भेजा जाएगा। इसका प्रक्षेपण फ्रांस की मदद से किया जाएगा।

Topics: Indigenous Satellite Launch VehicleइसरोSatellite MissileISROIRDOचंद्रयान-3आदित्य एल-1Aditya L-1पाञ्चजन्य विशेषअंतरिक्ष तकनीकस्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यानसैटेलाइट मिसाइलSpace Technology
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