माथे पर त्रिपुंड लगाए ज्योति कांवड़ लेकर 270 किलोमीटर की यात्रा पर निकली है तो 11 साल की एक बच्ची भी कांवड़ लेकर हरिद्वार से उत्तर प्रदेश के शामली की यात्रा पर। वहीं हरियाणा के रेवाड़ी से महिलाओं का एक जत्था 370 किलोमीटर दूर भोले को जल चढ़ाने निकल पड़ा है। ये महिलाएं हर साल कांवड़ लेकर आती हैं। यह अलग बात हैं कि मीडिया ऐसी महिला कावंडियों को बहुत महत्व नहीं देता। सावन आते ही उत्तर भारत की सड़कों का नजारा बदल जाता है। दूर-दूर तक भगवा टी शर्ट वाले कांवड़ियों का सैलाब नजर आता है। कांवड़ लिए नंगे पांव चलते चलते इन कांवड़ियों की ऊर्जा और आस्था बाकियों के लिए एक उत्प्रेरक का काम करती है। आस्था की यह यात्रा धर्म, समाज और संस्कृति का सामूहिक उत्सव बन चुकी है और रास्ते में लोग इनके स्वागत सत्कार के लिए पलक पांवड़े़ बिछाए रखते हैं। अब यह भारत का सबसे बड़ा सालाना उत्सव ही नहीं, बल्कि उत्तर भारत के पांच राज्यों की अर्थव्यवस्था को समृद्ध करने में कांवड़ यात्रा एक महत्वपूर्ण उद्योग बन चुकी है।
लेकिन हमारे देश के तथाकथित सेकुलर अर्थशास्त्रियों ने इस तरह की धार्मिक यात्राओं और आयोजनों के आर्थिक पक्ष और इसका अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों पर चर्चा की ही नहीं। जबकि भारत जैसे देश में ऐसे धार्मिक आयोजनों का न केवल आध्यात्मिक महत्व है, बल्कि करोडों लोगों की रोजी रोटी और आजिविका का एक साधन भी है। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि इस साल सावन में उत्तर भारत में 4 करोड़ से ज्यादा श्रद्धालुओं ने कांवड़ यात्रा में हिस्सा लिया। पिछले एक दशक में कावंड यात्रियों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। अर्थव्यवस्था पर इसके असर का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। लाखों की लागत से लगने वाले एक-एक लंगर, टेंट, भगवा टी शर्ट, कपड़ों, फर्नीचर, डीजे, ट्रांसपोर्ट और झंडे का कारोबार हजारों करोड़ तक पहुंच चुका है।
हां, इसके समानांतर भी एक उद्योग पनपा है जिसे यह आस्था और सामूहिकता चिढ़ाती है। इनमें ज्यादातर यूट्यूबर या फिर पत्रकारिता से खारिज होने के बाद यूट्यूबर और सामाजिक न्याय के योद्धा शामिल हैं। इनके लिए चर्चा का मुद्दा धर्म और सामूहिकता का यह संगम नहीं, बल्कि कांवड़ियों का कथित उत्पात है और इनकी पैनी नजर सदैव ‘धर्मनिरेक्षता’ के किसी कोड के उल्लंघन की तलाश में रहती है। भगवा और तिरंगा इनकी चिढ़ का मूल स्रोत हैं। भगवा जहां हिंदू एकात्मता का प्रतीक है तो तिरंगा राष्ट्रवाद का। ये दोनों ही उस राजनीति के लिए खतरा है जो हिंदुओं को जातियों के खाने में बांटे रखना चाहती है ताकि थोक मुस्लिम वोट बैंक और दो-चार जातियों को साथ मिलाकर 30-33 प्रतिशत वोटों से सरकार बना ली जाए। अर्से तक हिंदू वोटों को जातियों में बांटने और मुस्लिमों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने की यह राजनीति चलती रही, लेकिन अब जातीय गोलबंदियां काफी हद तक कम होने से इस राजनीति पर खतरा स्पष्ट दिख रहा है।
कांवड़ यात्रा की बात करें तो इसमें दो राय नहीं है कि कांवड़ियों में बहुसंख्या दलितों और पिछड़ी जातियों की है, जिन्हें परंपरागत रूप से कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां अपना वोट बैंक मानती आई हैं। और बरसों से ये धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय के जातिवादी योद्धा कांवड़ यात्रा के मार्गों पर खड़े होकर कांवड़ियों की जाति पूछते रहे हैं और उन्हें उकसाते हुए सवाल करते रहे हैं कि इससे भला उन्हें क्या फायदा होने वाला है? यह अलग शोध का विषय है कि कितने कांवड़िये उनकी बातों से सहमत हुए। लेकिन एक बात जरूर स्पष्ट हो गई कि कांवड़ यात्रा मुख्य रूप से गैर ब्राह्मणों की यात्रा है। तभी से कांवड़ यात्रा में दलितों-पिछड़ों की भागीदारी पर शोध शुरू हुए हैं जो यह बताने की तथाकथित कोशिश करते हैं कि वैश्वीकरण के बाद तेजी से बदलती दुनिया से तालमेल नहीं बैठा पाने और आधुनिकता के नतीजे में उपजी अनिश्चतताओं की वजह से ही अस्मिता की तलाश में उनमें धार्मिकता बढ़ी है। लेकिन इस दलील को साबित करने के लिए सिवाय जुमलों के उनके पास कोई तथ्य या आंकड़ा नहीं है। और वैसे भी अनिश्चितताएं हमेशा रही हैं। आज विज्ञान और तकनीक ने जीवन को ज्यादा आरामदेह और सुरक्षित बनाया है। लेकिन कुछ जुमलाकारों के लिए आस्था बस उपभोक्तावाद की बस में सवार नहीं हो पाने वाले लोगों का शगल है।
इन आभिजात्यों का मानना है कि वे दलितों-वंचितों के असली हितचिंतक और उनकी चिंताओं के ठेकेदार हैं। ये दलित-पिछड़े अगर कांवड़ लेकर जाते हैं तो जरूर वे किसी दुष्प्रचार के शिकार हो गए हैं। अगर वे भगवा पहने हैं और धर्म की बात करते हैं तो ये चिंता की बात है, क्योंकि इसका मतलब है कि भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग इन दलितों-पिछड़ों के बीच सेंधमारी में कामयाब हो गई है। यह उनकी चुनावी सफलता और जातियों में बंटे हिंदू, पीड़ित दलित के नरेटिव के खिलाफ जाता है। वे जानते हैं कि दलित अगर डीजे पर बजते गानों पर नाच रहे हैं और रास्ते में जगह-जगह उनकी सेवा के लिए शिविर लगे हैं तथा जातीयता से ऊपर उठ कर, जिसमें ज्यादातर सवर्ण होते हैं, लोग उनकी सेवा कर रहे हैं तो निश्चित ही यह उस चुनावी सेकुलरिज्म के खतरे की घंटी है जिसकी राजनीति दलित-पिछड़ा-मुसलमान की चुनावी गोलबंदी पर टिकी है। लिहाजा, दलितों-पिछड़ों की ओर से वे खुद उनका एजेंडा और नरेटिव तय करने के प्रयास में हैं और कांवड़ यात्रा में उनकी भागीदारी को हिंदुत्व के औजार के तौर देखते हैं। वे स्पष्ट हैं कि किसी दलित का हिंदू होना उनका एक वोट कम होने के बराबर है।
बहुसंख्यक समाज ने इन कोशिशों और साजिशों को खारिज कर दिया है। साथ ही 2017 में उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने के बाद से मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने कांवड़ यात्रा को प्रतिष्ठा यात्रा बना दिया है। उनके ये कदम पूर्ववर्ती अखिलेश यादव के कार्यकल में तुष्टीकरण की नीति के बिलकुल उलट हैं जब सांप्रदायिक सौहार्द के नाम पर कांवड़ियों के डीजे बजाने पर पाबंदी लगा दी जाती थी। योगी सरकार के कार्यकाल में न सिर्फ उनकी सुरक्षा और यात्रा की शुचिता को बनाए रखने के लिए पुख्ता इंतजाम किए गए, बल्कि सेकुलर खेमे के विरोध की परवाह किए बिना कांवड़ियों पर हेलिकॉप्टर से पुष्पवर्षा की की गई। इस कदम के जरिए मुख्यमंत्री ने मुजफ्फरनगर दंगों के परिप्रेक्ष्य में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जनता को यह संदेश दिया कि उत्तर भारत के इस सबसे बड़े उत्सव में तुष्टीकरण की राजनीति आड़े नहीं आने दी जाएगी।
निश्चित रूप से सवाल है कि जिस कांवड़ यात्रा में 1960 और 1970 के दशक में कांवड़ियों की संख्या हजारों में थी, वह 1980 के दशक में लाखों और फिर करोड़ों में कैसे बदल गई? शायद इसके जवाब शाहबानो मामले और पेट्रो डॉलर के सहारे तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में हुए सामूहिक धर्मांतरण और मुरादाबाद में हुए दलित-मुस्लिम दंगों से मिल सकता है। इन और ऐसी असंख्य घटनाओं ने प्रतिक्रियाओं की एक ऐसी श्रृंखला तैयार की जिसने धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के चुनावी समीकरणों को ध्वस्त कर दिया। कांवड़ यात्रा में दलितों और पिछड़ों की व्यापक भागीदारी और कुछ नहीं, बल्कि चुनावी धर्मनिरपेक्षता के प्रति क्रोध की अभिव्यक्ति है। सामूहिकता प्रतिकार ले रही है।
(लेखक मीडिया रणनीतिकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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