गत 25 जुलाई को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया। न्यायमूर्ति सुश्रुत धर्माधिकारी और न्यायमूर्ति गजेंद्र सिंह की खंडपीठ ने 1966 में केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में प्रवेश लेने पर लगाए गए प्रतिबंध के आदेश को निरस्त कर दिया। बता दें कि एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी पुरुषोत्तम गुप्ता ने एक याचिका दायर की थी। इसमें उन्होंने कहा था, ‘‘सरकारी सेवा में रहने के कारण वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग नहीं ले सकते थे। यही नहीं, सेवानिवृत्ति के बाद भी वे ऐसा नहीं कर सकते थे, जबकि मेरे पिताजी और परिवार के अन्य लोग संघ की गतिविधियों में भाग लेते रहे हैं। इसलिए न्यायालय इस प्रतिबंध पर विचार करे और उचित निर्णय दे।’’
इस मामले की सुनवाई 11 जुलाई को पूरी हो गई थी। इसी बीच केंद्र सरकार ने 1966 में लगे प्रतिबंध को हटा लिया। फिर भी न्यायालय ने इस पर अपना निर्णय सुनाया और निम्न टिप्पणी की-
- हालांकि केंद्र सरकार द्वारा याचिकाकर्ता द्वारा की गई मांग स्वीकार कर ली गई है तथा केंद्र सरकार के 1966 के संघ में केंद्र सरकार के कर्मचारियों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने वाले आदेश को निरस्त कर दिया है। इस दशा में प्रस्तुत याचिका का निस्तारण एक औपचारिकता भर शेष रह गया है।
- परंतु यह कि, मामले की गंभीरता तथा विशेषत: संघ जैसी गैर सरकारी संस्थाओं पर पड़ने वाले इसके व्यापक प्रभाव को देखते हुए न्यायालय को यह उचित लगता है कि इस विषय पर अपनी टिप्पणियां दी जाए।
- ये टिप्पणियां इसलिए भी आवश्यक हो जाती हैं जिससे कि आने वाले समय में कोई सरकार अपनी सनक और मौज के चलते राष्ट्रीय हितों में कार्यरत किसी स्वयंसेवी संस्था को सूली पर न चढ़ा दे जैसा कि गत 5 दशक से संघ के साथ होता आया है।
- केंद्र सरकार द्वारा 1966, 1970 और 1980 के आदेशों के माध्यम से केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर संघ में प्रवेश को यह बताते हुए प्रतिबंधित कर दिया था कि संघ एक पंथनिरपेक्षता विरोधी और सांप्रदायिक संगठन है।
- प्रश्न यह उठता है कि संघ को किस सर्वेक्षण या अध्ययन के आधार पर सांप्रदायिक और पंथनिरपेक्षता विरोधी घोषित किया गया था?
- किस आधार पर सरकार इस नतीजे पर पहुंची थी कि सरकार के किसी कर्मचारी के सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी संघ परिवार की किसी गतिविधि में भाग लेने से समाज में सांप्रदायिकता का संदेश जाएगा?
- न्यायालय द्वारा बारंबार पूछे जाने के बावजूद इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त नहीं हो सके।
- ऐसी दशा में न्यायालय यह मानने के लिए बाध्य है कि ऐसा कोई सर्वेक्षण, अध्ययन, सामग्री या विवरण है ही नहीं जिसके आधार पर केंद्र सरकार यह दावा कर सके कि उसके कर्मचारियों के संघ, जो कि एक अराजनीतिक संगठन है, की गतिविधियों से जुड़ने पर प्रतिबंध आवश्यक है जिससे कि देश का पंथनिरपेक्ष ताना-बाना और सांप्रदायिक सौहार्द अक्षुण्ण बना रहे।
- इस मामले की सुनवाई के दौरान अलग-अलग तारीखों पर हमने पांच बार यह पूछा कि किस आधार पर केंद्र के लाखों कर्मचारियों को 5 दशक तक अपनी स्वतंत्रता से वंचित रखा गया था?
- यदि याचिकाकर्ता द्वारा यह याचिका प्रस्तुत नहीं की जाती, तो ये प्रतिबंध आगे भी जारी रहते जो कि संविधान के अनुच्छेद 19(1) का खुला अपमान होता।
- उपरोक्त आधारों पर न्यायालय के सामने तीन प्रश्न खड़े होते हैं-
अ. क्या केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर संघ में प्रवेश पर प्रतिबंध किसी ठोस आधार पर लगाया गया था या सिर्फ एक संगठन, जो कि तत्कालीन सरकार की विचारधारा से सहमत नहीं था, को कुचलने के लगाया गया था?
ब. क्या संघ को प्रतिबंधित संगठनों की सूची में बनाए रखने के लिए समय-समय पर कोई समीक्षा की गई थी? यह एक प्रतिष्ठित कानूनी परंपरा है कि कोई भी प्रतिबंध अनंत काल तक जारी नहीं रह सकता और यह कि समय-समय पर ऐसे प्रतिबंध की, बदलते समय और संविधान की व्याख्याओं के तहत सतत विस्तृत हो रही स्वतंत्रता के आधार पर समीक्षा होनी चाहिए।
स. यदि उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर सहमति में हैं तो यह प्रश्न भी खड़ा होता है कि केंद्र सरकार द्वारा अचानक किस आधार पर संघ को प्रतिबंध की सूची से हटा लिया गया है?
हटा प्रतिबंध, हताश सेकुलर
- यदि संघ का नाम प्रतिबंधित सूची से सोच-समझ कर हटाया जा रहा है तो न्यायालय यह अपेक्षा रखता है कि यदि भविष्य में कभी पुन: संघ एवं उसके अनुषांगिक संगठनों को प्रतिबंधित सूची में जोड़ने का प्रस्ताव लाया गया तो उसके पीछे गहन अध्ययन, ठोस सामग्री, मजबूत आंकड़े, उच्चतम अधिकारियों के स्तर पर गंभीर चिंतन तथा बाध्यकारी सबूतों का आधार होना चाहिए।
- अन्यथा ऐसा प्रतिबंध भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 19 का अपमान ही कहलाएगा तथा ऐसा प्रतिबंध निश्चित ही संवैधानिक चुनौती के लिए खुला रहेगा।
- सरकार द्वारा संघ को पंथनिरपेक्षता विरोधी, सांप्रदायिक और राष्ट्रहित विरोधी बताते हुए लगाया गया प्रतिबंध न सिर्फ संघ के लिए हानिकारक है, बल्कि प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए भी हानिकारक है, जो संघ से जुड़ कर राष्ट्र और समाज की सेवा करना चाहता है।
- मौलिक स्वतंत्रता पर रोक लगाने वाला आदेश सदैव ही ठोस सबूतों और न्यायोचित आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए।
- न्यायालय इसे भी दुखद मानता है कि केंद्र सरकार को इस त्रुटि को दुरुस्त करने में 5 दशक लग गए तथा यह कि संघ जैसा विश्व प्रसिद्ध संगठन बेवजह प्रतिबंधित सूची में दर्ज रहा और उसे उस सूची से बाहर निकालना अवश्यंभावी था।
- इस परिप्रेक्ष्य में गृह मंत्रालय को आदेश दिया जाता है कि संघ को प्रतिबंधित सूची से बाहर निकालने वाले परिपत्र को अपनी अधिकृत वेबसाइट के ‘होम पेज’ पर प्रकाशित करे, ताकि आम जनता को इस बारे में जानकारी मिल सके।
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