नेपाल में दो वर्ष के भीतर एक बार फिर सरकार बदल गई। केपी शर्मा ओली की अगुआई वाले सीपीएन-यूएमएल के समर्थन से पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड 25 दिसंबर, 2022 को प्रधानमंत्री बने थे। लेकिन अल्पमत में होने के कारण उनकी सरकार कभी स्थिर नहीं रह पाई। 19 महीने में उन्हें पांच बार विश्वास मत का सामना करना पड़ा। हालांकि वे चार बार विश्वास मत हासिल करने में सफल रहे, लेकिन पांचवीं बार ओली के गठबंधन से बाहर होने और समर्थन वापस लेने पर वे बहूमत साबित नहीं कर सके। अब केपी शर्मा ओली नए प्रधानमंत्री बन हैं।
नेपाल में हुई राजनीतिक उठापटक का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वहां 16 वर्ष में 13वीं बार सरकार गिरी है। अब बदले राजनीतिक समीकरण में ओली की सीपीएन-यूएमएल और शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस साथ आई हैं। दोनों के बीच एक समझौता हुआ है, जिसके तहत दोनों बारी-बारी तीन साल तक सरकार चलाएंगे। ओली को 30 दिन के भीतर बहुमत साबित करना होगा।
275 सीटों वाली नेपाली संसद में प्रचंड की माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पास मात्र 32 सांसद हैं, जबकि सीपीएन-यूएमएल के पास 78 और नेपाली कांग्रेस के पास 89 सांसद हैं। यानी नेपाली कांग्रेस और सीपीएन-यूएमएल गठबंधन के पास 167 सांसद हैं। इनके अलावा जनता समाजवादी पार्टी के पास 5, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के पास 14 और लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के पास 4 सांसद हैं। नेपाली संसद की 165 सीटों पर प्रत्यक्ष मतदान हुआ था, जबकि 110 सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली से हुआ। ओली को बहुमत साबित करने के लिए 138 सांसदों की जरूरत है, जबकि गठबंधन के पास 167 सांसद हैं।
स्वार्थ का गठबंधन
संविधान संशोधन के मुद्दे पर जब कम्युनिस्ट पार्टियां एक साथ आई थीं, तो देश में राजनीतिक स्थिरता की उम्मीद जगी थी। चुनाव में वामपंथी दलों को लगभग दो तिहाई बहुमत भी मिला। इसलिए सभी को यह लग रहा था कि सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। लेकिन सत्ता का सुख भोग रही नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी और गठबंधन में शामिल रहने के बावजूद सत्ता से दूर रहने वाले गुट के बीच अविश्वास बढ़ता गया। दोनों गुटों में हर मुद्दे पर मतभेद इतने बढ़ गए कि गठबंधन दल के नेता अपनी ही सरकार और पार्टी के प्रधानमंत्री के विरुद्ध सड़कों पर प्रदर्शन करने लगे। पार्टी की बैठकों में सरकार की नीतियों की आलोचना होने लगी, प्रधानमंत्री के विरुद्ध पार्टी के नेता समाचार-पत्रों में लेख लिखने लगे और मीडिया में खबरें लीक करने लगे। इसी बीच, पार्टी की एकता को चुनौती देने वाली याचिका पर अदालत का फैसला आया, जिससे वामपंथी दल फिर से अलग होने को मजबूर हो गए। इसके बाद राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हुआ।
खैर, 2022 में फिर चुनाव हुए तो किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। उस समय लग रहा था कि कांग्रेस और माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी की गठबंधन सरकार बन जाएगी और नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेरबहादुर देउबा प्रधानमंत्री बनेंगे। लेकिन प्रचंड अड़े रहे, जबकि उनकी पार्टी के पास मात्र 32 सांसद थे। ओली भी प्रचंड को सत्ता से दूर रखना चाहते थे। लेकिन आखिरी दो घंटे में ओली पलट गए और प्रचंड को समर्थन दे दिया। इससे देउबा को सत्ता से दूर रहना पड़ा। इस तरह, ओली-प्रचंड की गठबंधन सरकार बनी।
फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद एक महीने में ही प्रचंड ने ओली को दरकिनार कर देउबा के साथ गठबंधन कर लिया। लिहाजा, ओली को एक महीने में ही केंद्र और प्रदेश की सत्ता से बाहर होना पड़ा। प्रचंड और देउबा की सरकार आराम से चल रही थी। लेकिन ओली इस विश्वासघात का बदला लेने की फिराक में थे। पहले उन्होंने देउबा से बात करने की कोशिश की, पर वे दूरी बनाते रहे। जब कांग्रेस नहीं मानी तो ओली ने इधर प्रचंड के साथ संवादहीनता दूर करने के लिए खुद पहल की और उधर सत्तारूढ़ गठबंधन को तोड़ने के प्रयास में भी जुटे रहे।
प्रचंड का यू-टर्न
नेपाल पर विभिन्न कारणों से अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ा तो एक दिन अचानक प्रचंड ने देउबा को दरकिनार कर ओली से हाथ मिला लिया। इस तरह कांग्रेस अगले ही दिन केंद्र और प्रदेश की सत्ता से बेदखल हो गई। प्रचंड अपनी राजनीतिक धोखाधड़ी पर सार्वजनिक तौर पर गर्व के साथ कहते हैं, ‘‘जब तक राजनीति में रहूंगा, तब तक राजनीति में उथल-पुथल होती रहेगी।’’ बाद में उन्होंने यह कहना शुरू किया कि उनके पास 32 का ‘जादुई आंकड़ा’ है। इसलिए वे पांच वर्ष तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे। इसके अलावा, वे बार-बार यह कह रहे थे कि गठबंधन बदलता रहेगा, पर प्रधानमंत्री वही रहेंगे। देउबा के साथ गठबंधन तोड़ने के बाद उन्होंने कहा कि सरकार में मंत्री और दल बदलते रहेंगे। फिर ओली से नाता जोड़ा तो कहा कि गठबंधन का क्या है, आज इसके साथ, कल उसके साथ होता रहेगा। तब ओली को खटका कि वे फिर से धोखा देने वाले हैं। उधर, देउबा पहले से ही तिलमिलाए बैठे थे। सिर्फ ओली और देउबा ही नहीं, बल्कि प्रचंड की पार्टी के दूसरे नेताओं को भी लगने लगा कि महज 32 सांसद होने के बावजूद प्रचंड पहली और दूसरी सबसे बड़ी पार्टियों को बेवकूफ बना रहे हैं। इसमें संविधान का एक प्रावधान भी बड़ा कारण था। संविधान बनाने वाले दोनों प्रमुख दलों के नेताओं को अपनी गलतियों का अहसास हुआ कि संविधान में मौजूद कमियों को दूर किए बिना देश में राजनीतिक स्थिरता नहीं आ सकती। इस मुद्दे पर दोनों दलों के बीच सहमति बनी।
फिर संविधान संशोधन!
दरअसल, राजनीतिक कलाबाजी के अलावा कुछ और भी मुद्दे हैं, जिनके कारण संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग उठ रही है। संविधान की प्रस्तावना में संघीयता, समानुपातिक, समावेशी जैसे शब्दों का उल्लेख है, लेकिन वास्तव में इनकी आवश्यकता है? क्या जनप्रतिनिधि इसके मर्म और भाव को समझ पा रहे हैं? नेपाल का अर्थतंत्र 7 प्रदेशों का बोझ सहन कर सकता है या नहीं? संविधान की प्रस्तावना में बदलाव के लिए दो तिहाई बहुमत चाहिए। ताजा समीकरण राजनीतिक परिस्थिति के चलते भले ही बन गया हो, लेकिन इसके पीछे वास्तविक उद्देश्य संविधान संशोधन भी है।
ओली की सत्ता में वापसी से राजनीतिक स्थिरता को लेकर लोगों में एक उम्मीद तो जगी ही है, दो बड़े दलों के साथ आने से संविधान संशोधन का मुद्दा भी चर्चा के केंद्र में आ गया है। हालांकि प्रधानमंत्री बनने के बाद ओली ने अपने लेख में देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने और आम लोगों का जीवन स्तर उठाने की बात कही है। भले ही लेख में ओली ने संविधान संशोधन का जिक्र नहीं किया है, पर दोनों दलों के नेता इस मुद्दे पर लगातार संवाद कर रहे हैं। ओली-देउबा छोटे दलों पर अंकुश लगाने पर भी विचार कर रहे हैं।
ओली की पार्टी के महासचिव शंकर पोखरेल ने कहा है कि देश में दो दलीय प्रणाली होनी चाहिए, ताकि छोटे दलों का राजनीतिक वर्चस्व खत्म हो और देश में राजनीतिक स्थिरता आ सके। इसलिए संविधान संशोधन में सबसे पहले निर्वाचन प्रणाली को बदलने की बात हो रही है। हालांकि यह इतना आसान नहीं है। चुनाव प्रणाली सुधारने के लिए जिस समानुपातिक प्रणाली को हटाने या बदलने की बात हो रही है, उसके लिए पहले निर्वाचन क्षेत्र बदलना होगा, महिलाओं के लिए सीटें सुरक्षित करनी होंगी। साथ ही, समानुपातिक प्रतिनिधित्व करने वाले वनवासी, जनजाति, दलित अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना होगा।
संविधान संशोधन के सबसे बड़े पैरोकारों में से एक नेपाली कांग्रेस के नेता मिनेंद्र रिजाल का कहना है कि सर्वसम्मति या संसदीय प्रणाली के तहत दो तिहाई बहुमत से संविधान के इन बिंदुओं को बदलना होगा, और समाज के हर वर्ग को संसद में प्रतिनिधित्व देना होगा। तभी देश राजनीतिक स्थिरता की ओर बढ़ेगा।
हिंदू राष्ट्र की आकांक्षा
संविधान संशोधन की आवश्यकता केवल निर्वाचन प्रणाली ही नहीं, बल्कि नियमित सरकार चलाने से लेकर कानून बनाने और उसके कार्यान्वयन तक में है। महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान में जो ‘पंथनिरपेक्षता’ शब्द जोड़ा गया है, नेपाल के नेता ही नहीं, अधिकांश नागरिक भी उसे हटाने के पक्ष में हैं। वास्तव में, नेपाल में लोकतंत्र की पुनर्बहाली के बहाने देश के कुछ शीर्ष नेताओं ने संविधान में पंथनिरपेक्षता शब्द जोड़ दिया। यह सब नेपाल के हिंदू राष्ट्र की पहचान को दबाने के षड््यंत्र के तहत किया गया। नेपाल के संविधान में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ने वाले दोनों दलों के नेता या तो पिछले चुनाव में पराजित हो चुके हैं या सक्रिय राजनीति में नहीं हैं या फिर अपने कारण राजनीति में प्रभावहीन हो गए हैं।
नेपाली कांग्रेस केअध्यक्ष शेरबहादुर देउबा ने तो सार्वजनिक तौर पर कहा है कि देश में किसी भी कीमत पर राजतंत्र वापस नहीं आ सकता। उसे वापस आने भी नहीं दिया जाएगा, लेकिन हिंदू राष्ट्र पर विचार किया जा सकता है। इसी तरह, एमाले को भी इससे परहेज नहीं है। नेपाली कांग्रेस की महासमिति की बैठक में उपस्थित लगभग 1400 में से 1200 से अधिक प्रतिनिधियों ने हिंदू राष्ट्र को पार्टी का आधिकारिक एजेंडा बनाने की मांग के साथ सफल हस्ताक्षर अभियान चलाया था। स्वयं प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की छवि भी दिखावे के पंथनिरपेक्ष नेता की नहीं है। उन्होंने अपने कार्यकाल में पशुपतिनाथ मंदिर में लगभग एक क्विंटल सोने की जलहरी चढ़ाई थी। वहीं चितवन में अयोध्या नामक स्थान पर राम मंदिर का निर्माण ही नहीं कराया, बल्कि वहां भगवान श्रीराम, माता जानकी, लक्ष्मण और हनुमान की बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं भी अपने पैसे से पर स्थापित कराई थीं।
नेपाली जनता के मन में देश में राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक उन्नति, समृद्धि की इच्छा और आकांक्षा तो है ही, देश एक बार फिर हिंदू राष्ट्र के रूप में पहचाना जाए, इसके लिए लोग संविधान से पंथनिरपेक्ष शब्द हटाकर उसे ‘हिंदू राष्ट्र’ करने के लिए संघर्ष करने तक के लिए तैयार हैं।
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