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परिवारवाद की राजनीति दांव पर

महाराष्ट्र की राजनीति में पांच दशकों से ठाकरे और पवार का दबदबा रहा है। आज दोनों दलों में दरार पड़ चुकी है, जो वंशवादी राजनीति की आम प्रवृत्ति है। महायुति को इस मुश्किल सवाल से जूझना पड़ रहा है कि क्या महाराष्ट्र वंशवादी राजनीति से मुक्त हो पाएगा?

by सत्यजीत जोशी
Apr 16, 2024, 05:31 pm IST
in विश्लेषण, महाराष्ट्र
लोकसभा चुनाव में इस बार महाराष्ट्र कें वंशवादी दलों के सामने अपना अस्तित्व बचाने की चुनौती है

लोकसभा चुनाव में इस बार महाराष्ट्र कें वंशवादी दलों के सामने अपना अस्तित्व बचाने की चुनौती है

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प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाले 84 वर्षीय शरद पवार अपनी बेटी सुप्रिया सुले के चुनाव प्रचार करने के लिए अपने ही बारामती लोकसभा क्षेत्र के गांवों का दौरा करने के लिए मजबूर हैं। उनकी पार्टी महाराष्ट्र की 48 में से सिर्फ दस सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इससे एनसीपी (शरद पवार) महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (एमवीए) में तीसरे सबसे छोटे भागीदार की पायदान पर फिसल गई है। उद्धव ठाकरे को अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए वामपंथी बुद्धिजीवियों और उनके कार्यकतार्ओं से मदद लेनी पड़ रही है। जब एमवीए ने सीट बंटवारे की घोषणा की तो उद्धव ठाकरे ने साम्यवादियों सहित सभी वामपंथी दलों के लिए अपनी पार्टी कार्यालय के दरवाजे खोल दिए। हिंदुत्व के प्रति उद्धव की प्रतिबद्धता केवल मौखिक स्तर तक ही सीमित है। कई निर्वाचन क्षेत्रों में शिवसेना (यूबीटी) अपना उम्मीदवार पेश करने में असमर्थ है क्योंकि सभी पार्टी छोड़ कर जा चुके।

सत्यजीत जोशी
वरिष्ठ पत्रकार

मौजूदा लोकसभा चुनाव में पवार और ठाकरे परिवार अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। दोनों परिवार पिछले कुछ दशकों से महाराष्ट्र की राजनीति पर हावी रहे हैं लेकिन अब उनका अस्तित्व खतरे में है, क्योंकि दोनों दल वंशवादी राजनीति के भंवर में डूबे हैं। पिछले दो वर्षों में, मुख्य रूप से, वंशवादी राजनीति की अंतर्निहित बाध्यताओं के कारण एनसीपी और शिवसेना में कई महत्वपूर्ण बंटवारा हुआ, जिससे उद्धव ठाकरे अलग-थलग पड़ गए, क्योंकि उन्होंने कद्दावर नेता एकनाथ शिंदे के बजाय अपने बेटे आदित्य को आगे बढ़ाने का फैसला किया था। उधर शरद पवार के अपनी बेटी सुप्रिया सुले को अपना उत्तराधिकारी बनाने से उनके भतीजे को गहरी आपत्ति हुई और वह अपने चाचा के खिलाफ विद्रोह कर बैठा। इस प्रक्रिया में पवार और ठाकरे, दोनों परिवारों ने अपना पिछला वर्चस्व खो दिया। पिछले साल के ग्राम पंचायत चुनावों के परिणामों से साफ हो गया था कि मतदाताओं ने पवार और ठाकरे परिवारों को खारिज कर दिया है।

कांग्रेस के पास शरद पवार खेमे और शिवसेना में फूट के कारण पैदा हुए खालीपन को भरने का अच्छा मौका था। महाराष्ट्र में कांग्रेस के पास अब भी कुछ सीटें हैं, लेकिन पार्टी नेतृत्व का उद्धव ठाकरे के सामने आत्मसमर्पण बौद्धिक दिवालियापन साबित हुआ। आत्मविश्वास की कमी के कारण कांग्रेस एमवीए भागीदार के रूप में 48 में से केवल 17 सीटों पर लड़ रही है। कांग्रेस कैडर बेहद निराश और गुस्से में है, क्योंकि उन्हें डर है कि इस गलती के कारण महाराष्ट्र से पार्टी का सफाया हो सकता है। इसके कई नेता भाजपा या शिवसेना में शामिल हो रहे हैं, क्योंकि वहां उन्हें अपना भविष्य बेहतर दिख रहा है।

भारतीय राजनीति का अनुभव दशार्ता है कि वंशवादी राजनीतिक दल तीसरी पीढ़ी से पतन की ओर अग्रसर होने लगती है। उदाहरण के लिए नेहरू-गांधी परिवार, मुलायम परिवार, करुणानिधि परिवार, लालू यादव परिवार। गिरावट की प्रक्रिया दूसरी पीढ़ी से शुरू होती है और तीसरी पीढ़ी से इसमें तेजी आ जाती है। यदि राजनीतिक उत्तराधिकारी कथित विरासत को चलाने में सक्षम नहीं है तो पतन तेजी से या बहुत पहले से ही दिखने लगता है।

जहां भाजपा वंशवादी राजनीति पर निशाना साधते हुए महाराष्ट्र में ‘राष्ट्र पहले’ के नारे के साथ मैदान में उतरी है, वहीं दो दल ‘परिवार पहले’ के मोह में डूबे हैं। उन पर करारा प्रहार करते हुए भाजपा जोर-शोर से प्रचार कर रही है कि जो दल अपने परिवार के हितलाभ में जुटा है वह जनता का हितैषी नहीं हो सकता। बीजेपी मतदाताओं को बार-बार बोल रही है कि उद्धव ठाकरे ने बीजेपी और हिंदुत्व के साथ विश्वासघात किया और सरकार बनाने के लिए उन पार्टियों के साथ हाथ मिला लिया है जो हिंदू विरोधी हैं।

महायुति की सबसे बड़ी पूंजी है महाराष्ट्र की राजनीति में सबसे सफल रणनीतिकार बनकर उभरे देवेंद्र फडणवीस। जहां फडणवीस महायुति के तीन साझेदारों के बीच की दूरियों को पाटने में सफल रहे, वहीं एमवीए आंतरिक मतभेदों को खत्म करने में असमर्थ है। सीट बंटवारे में शिवसेना के दबदबे से कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार) परेशान हैं। कई कांग्रेस नेता इस स्थिति के लिए राज्य के नेताओं को जिम्मेदार मानते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि बंटवारे का असर सबसे ज्यादा उद्धव ठाकरे पर पड़ा था। अत: उन्हें सीट बंटवारे में कुछ संयम दिखाना चाहिए था। कांग्रेस नेताओं की मनोदशा उस समय स्पष्ट हो गई जब सीट बंटवारे की घोषणा होने के बाद तीन दलों के नेताओं ने खबर की पुष्टि करने को प्राथमिकता देते हुए संवाददाता सम्मेलन संपन्न किया।

भाजपा वंशवादी राजनीति पर निशाना साधते हुए महाराष्ट्र में ‘राष्ट्र पहले’ के नारे के साथ मैदान में उतरी है, वहीं दो दल ‘परिवार पहले’ के मोह में डूबे हैं। उन पर करारा प्रहार करते हुए भाजपा जोर-शोर से प्रचार कर रही है कि जो दल अपने परिवार के हितलाभ में जुटा है वह जनता का हितैषी नहीं हो सकता। बीजेपी मतदाताओं को बार-बार बोल रही है कि उद्धव ठाकरे ने बीजेपी और हिंदुत्व के साथ विश्वासघात किया और सरकार बनाने के लिए उन पार्टियों के साथ हाथ मिला लिया है जो हिंदू विरोधी हैं।

महाराष्ट्र की राजनीति में सबसे सफल रणनीतिकार बनकर उभरे हैं उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस

एमवीए को सबसे गंभीर झटका तब लगा जब वह प्रकाश अंबेडकर के नेतृत्व वाली वंचित बहुजन आघाडी (वीबीए) को शामिल करने में विफल रही। वास्तव में, उद्धव ठाकरे की सेना, शरद पवार की राकांपा और कांग्रेस द्वारा वीबीए के प्रतिनिधियों के साथ किए गए व्यवहार से अंबेडकर के अनुयायी काफी नाराज हैं। उनके अंदर सुलग रही अपमान की भावना निश्चित रूप से मतदान में दिखने वाली है।

इस खबर को भी पढ़ें – बदलाव की बाट जोह रहा दक्षिण भारत

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