देश की आईटी राजधानी कहा जाने वाला बेंगलुरू इन दिनों जल संकट को लेकर त्राहि-त्राहि कर रहा है, जहां लोग पानी की बूंद-बूंद को तरस रहे हैं। गर्मी की शुरूआत से पहले ही बेंगलुरू का यह जल संकट पूरे देश के माथे पर चिंता की लकीरें खींचने के लिए पर्याप्त है। हालात इतने खराब हैं कि कर्नाटक जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड ने कार धोने, बागवानी, निर्माण, पानी के फव्वारे, सड़क निर्माण और रखरखाव सहित कई कार्यों में पेयजल के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया हुआ है और आदेशों का उल्लंघन करने पर पांच हजार रुपये का जुर्माना लगाने की बात कही गई है। 136 तालुकों में से 123 तालुकों को सूखा प्रभावित घोषित किया गया है, जिनमें 109 गंभीर रूप से प्रभावित हैं। शहर के कुल 12781 बोरवेल में से 4997 बोरवेल सूख गए हैं और बाकी में भी जल स्तर कम है।
इस संकट के कुछ प्रमुख कारणों में शहर की बढ़ती आबादी और औद्योगिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भूजल का अत्यधिक दोहन किया जाना भी शामिल है। बेंगलुरू भारत के सबसे तेजी से बढ़ते शहरों में से एक है, जहां जल संसाधनों का कुशल प्रबंधन नहीं होने के कारण पानी का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है। जलवायु परिवर्तन भी इसका एक अहम कारण है। दरअसल जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा की मात्रा में कमी आई है, जिससे पानी की कमी बढ़ गई। इससे पहले शिमला, चेन्नई इत्यादि शहर भी ऐसी ही स्थितियों को सामना कर चुके हैं।
हालांकि गहराते जल संकट की यह समस्या केवल भारत की ही समस्या नहीं है बल्कि दुनिया के कई देशों में यह एक बड़े संकट का रूप ले रहा है। पृथ्वी पर गहराते जल संकट की आहट को महसूस करते हुए विश्व के प्रत्येक नागरिक को पानी की महत्ता से अवगत कराने के लिए ही संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो द जेनेरियो में पर्यावरण तथा विकास पर आयोजित सम्मेलन में ‘विश्व जल दिवस’ की पहल की गई थी। उसी के परिणामस्वरूप 22 मार्च 1993 को पहली बार ‘विश्व जल दिवस’ का आयोजन किया गया और जल के महत्व, आवश्यकता तथा संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रतिवर्ष इसी दिन जल दिवस मनाने का निश्चय किया गया। इस दिवस के आयोजन का उद्देश्य जल संरक्षण के महत्व पर भी ध्यान केन्द्रित करते हुए विश्व के तमाम विकसित देशों में स्वच्छ और सुरक्षित जल की उपलब्धता सुनिश्चित करवाना और लोगों को जल संरक्षण के प्रति सतर्क करने तथा साफ पीने योग्य पानी का महत्व समझाना है। इसके माध्यम से पर्यावरण, स्वास्थ्य, कृषि, व्यापार सहित जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जल के महत्व को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ाने का प्रयास किया जाता है। नीले रंग की जल की बूंद की आकृति ‘विश्व जल दिवस’ उत्सव का ही मुख्य चिन्ह है।
दुनिया के लगभग तमाम देशों में स्वच्छ और रोग रहित पेयजल की अनुपलब्धता के कारण जल जनित बीमारियां महामारी का रूप ले रही हैं। जल जनित रोगों से विश्वभर में प्रतिवर्ष करीब 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। पिछले पांच दशकों में पानी के लिए विश्व में तीन दर्जन से भी अधिक भीषण हत्याकांड हो चुके हैं। पानी के बंटवारे को लेकर विभिन्न देशों के बीच लंबे अरसे से विवाद बरकरार है। इसीलिए दुनियाभर में पानी की कमी का संकट लगातार गहराते देख कुछ वर्षों से कहा जा रहा है कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर ही होगा। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया में हर नवें व्यक्ति के पास स्वच्छ पेयजल का अभाव है, जिस कारण प्रतिवर्ष लाखों लोग बीमारियों के शिकार होते हैं और असमय ही उनकी मौत हो जाती है। आंकड़ों के मुताबिक दुनियाभर में करीब 2.1 अरब जबकि भारत में सोलह करोड़ से भी अधिक लोग ऐसे हैं, जिनके लिए स्वच्छ पेयजल अनुपलब्ध है। यही नहीं, पच्चीस करोड़ से ज्यादा ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें पानी लाने के लिए आधे घंटे की यात्रा करनी पड़ती है। कुछ इलाकों में तो आज भी महिलाओं को पीने का पानी लाने के लिए प्रतिदिन कई किलोमीटर का सफर पैदल तय करना पड़ता है।
देश के गांवों में हर घर को पीने का पानी मुहैया कराने के उद्देश्य से शुरू किए गए जल जीवन मिशन के तहत 1.91 लाख करोड़ रुपये की लागत वाली परियोजनाओं पर तेजी से काम चल रहा है। 25 दिसम्बर 2019 को इस अभियान का श्रीगणेश हुआ था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 15 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री द्वारा शुरू किए गए इस अभियान से पहले देश के ग्रामीण इलाकों में केवल 17 फीसदी अर्थात् 3.23 करोड़ परिवारों के पास ही नल कनैक्शन थे और इस योजना के तहत 19.22 करोड़ ग्रामीण परिवारों तक पानी पहुंचाए जाने का लक्ष्य है। हालांकि घर-घर तक जल पहुंचाने का वास्तविक लाभ तभी होगा, जब नलों से जलापूर्ति भी सुचारू रूप से हो और यह केवल तभी संभव होगा, जब जलस्रोतों की बेहतर निगरानी व्यवस्था होने के साथ-साथ जल संरक्षण के लिए कारगर प्रयास भी किए जाएं। वैसे इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि देश में 2030 तक पानी की जरूरत दोगुना हो जाएगी तथा 2050 तक यह चार गुना बढ़ जाएगी और जल संकट का देश के सकल घरेलू उत्पाद पर छह फीसदी तक असर पड़ सकता है।
भारत में पानी की कमी का संकट किस कदर गहरा रहा है, यह दिसम्बर 2019 में सरकार द्वारा संसद में दी गई जानकारी से भी स्पष्ट हुआ था, जिसमें बताया गया था कि वर्ष 2001 और 2011 में भारत में जल उपलब्धता प्रति व्यक्ति क्रमशः 1816 और 1545 घन मीटर थी, जो 2019 में 1486 घन मीटर रह जाने का अनुमान था। नीति आयोग चेतावनी दे चुका है कि देश के 21 बड़े शहरों में भूजल का स्तर शून्य तक पहुंच सकता है जिनमें दिल्ली, गुरूग्राम, गांधीनगर, यमुनानगर, बेंगलुरू, इन्दौर, अमृतसर, लुधियाना, जालंधर, मोहाली, पटियाला, अजमेर, बीकानेर, जयपुर, जोधपुर, चेन्नई, आगरा, गाजियाबाद इत्यादि शामिल हैं। भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन किए जाने का ही नतीजा है कि कई शहरों में भूजल स्तर तेजी से नीचे गिर रहा है। दरअसल देशभर में कृषि, उद्योग तथा दैनिक क्रियाकलापों की करीबन अस्सी फीसदी जरूरतें जमीन पर तथा उसके भीतर उपलब्ध पानी से ही पूरी की जाती हैं। इसके अलावा जल संकट गहराने के पीछे नदियों तथा जलाशयों के सही रखरखाव का अभाव और उनका अतिक्रमण भी कुछ अहम कारणों में शामिल हैं। भूजल बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1990 के बाद से भूजल स्तर में तेजी से गिरावट आ रही है और अगर भूजल स्तर इसी रफ्तार से घटता गया तो बहुत अधिक गहराई से जो पानी निकाला जाएगा, वह पीने लायक नहीं होगा क्योंकि उसमें आर्सेनिक तथा फ्लोराइड की मात्रा अधिक होने के कारण बीमारियां बढ़ेंगी।
वैश्विक परिदृश्य देखें तो अनुमान लगाया जा रहा है कि वर्ष 2030 तक करीब 70 करोड़ लोग जल के घनघोर अभाव के कारण विस्थापित हो जाएंगे। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक धरती पर पानी की कुल मात्रा करीब 1400 मिलियन घन किलोमीटर है, जिसमें से 97.5 फीसदी पानी समुद्र में है, जो खारा है और पीने लायक नहीं है। शेष बचे केवल ढ़ाई फीसदी पानी को ही पीने योग्य माना जाता है लेकिन उसमें भी डेढ़ फीसदी बर्फ के रूप में ध्रुवीय क्षेत्रों में है और बाकी बचा सिर्फ एक फीसदी पानी ही कुओं, नदियों, सरोवरों, झरनों तथा झीलों में पेयजल के रूप में उपलब्ध है। इस एक प्रतिशत पानी का भी साठ फीसदी हिस्सा खेती और औद्योगिक कारखानों में उपयोग हो जाता है और बाकी बचे करीब चालीस फीसदी हिस्से को ही हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने और साफ-सफाई जैसे कार्यों में उपयोग कर पाते हैं। वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी दस अरब तक पहुंच जाने का अनुमान है और ऐसे में उस समय पानी की जरूरत वर्तमान समय के मुकाबले तीस फीसदी ज्यादा होगी लेकिन जिस गति से पानी का संकट लगातार गहराता जा रहा है, ऐसे में कुछ अध्ययनों में स्पष्ट कहा गया है कि पानी उपलब्ध न होने पर दुनिया के 36 फीसदी शहर पानी की गंभीर समस्या से जूझेंगे। एक रिपोर्ट के अनुसार विश्वभर में करीब दो सौ शहर और दस मैट्रो सिटी ‘डे जीरो’ की ओर आगे बढ़ रहे हैं और चिंता की बात यह है कि इनमें से कुछ शहर भारत के भी हैं। ‘डे जीरो’ का अर्थ है कि बहुत जल्द इन जगहों पर वह दिन आने वाला है, जब यहां नलों में पानी आना बंद हो जाएगा।
भारत में जल संकट बढ़ने का बड़ा कारण यह भी है कि हम वर्षा जल का बहुत कम मात्रा में संरक्षण कर पाते हैं। एक ओर जहां इजराइल जैसे देशे में औसतन दस सेंटीमीटर वर्षा होने के बावजूद भी वह इतने अन्न का उत्पादन कर लेता है कि उसका निर्यात करने में भी सक्षम हो जाता है, वहीं दूसरी ओर भारत में औसतन पचास सेंटीमीटर से भी ज्यादा वर्षा होने के बावजूद अन्न की कमी बनी रहती है। दरअसल नदियों-तालाबों जैसे पवित्र माने जाते रहे जलस्रोतों को सहेजने में लापरवाही और भूमिगत जल में प्रदूषण की बढ़ती मात्रा तथा वर्षा जल संचयन का उचित प्रबंध न होना भारत में जल संकट गहराते जाने की मुख्य वजह बन रहे हैं। देश में प्रतिवर्ष करीब तीन हजार अरब घन मीटर पानी की जरूरत होती है जबकि भारत में होने वाली वर्षा की मात्रा करीब चार हजार अरब घन मीटर होती है लेकिन वर्षा जल संग्रहण के पर्याप्त प्रबंध नहीं होने के कारण मामूली से वर्षा जल का ही संग्रहण संभव हो पाता है। हालांकि पेयजल संकट के समाधान के लिए ‘जल जीवन मिशन’ के माध्यम से सभी घरों में नलों से पानी उपलब्ध कराने के लिए व्यापक इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने पर जोर दिया जा रहा है लेकिन सवाल यही है कि अगर भूजल इसी तरह गिरता रहा और पानी की कमी का संकट ऐसे ही गहराता रहा तो इन नलों में पानी कहां से आएगा और कैसे घर-घर तक पहुंचेगा?
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