क्या सच में ऐसा है कामरेड? आखिर कुछ फिल्मों को लेकर वोक, वामपंथी, लिबरल बिरादरी क्यों बिफर पड़ती है? कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरी, 72 हूरें और अब एनिमल।
‘मिसॉजिनी..इनसेन वायलेंस.. टॉक्सिक मस्कुलैनिटी..’। क्या सच में ऐसा है कामरेड? आखिर कुछ फिल्मों को लेकर वोक, वामपंथी, लिबरल बिरादरी क्यों बिफर पड़ती है? कश्मीर फाइल्स, केरल स्टोरी, 72 हूरें और अब एनिमल। समीक्षाएं लिखी जाती हैं, सोशल मीडिया पर नफरत भरी अपीलें होती हैं। दर्शक उनकी नहीं सुनते, यह अलग बात है। ‘एनिमल’ को देखने के लिए दर्शक टूट पड़े हैं।
एनिमल एक परिवार की कहानी है, जिसके केंद्र में एक बेटा (फिल्म का नायक) है जो संसार में सबसे अधिक प्यार अपने पिता से करता है, बावजूद इसके कि व्यस्त पिता के पास उसके लिए समय नहीं है। बेटा बड़ा होता है तो समझता है कि पिता देश का सबसे बड़ा उद्योगपति और सबसे धनी व्यक्ति है, जिसके खून के प्यासे, कई छिपे हुए शत्रु हैं। वह आक्रामक और भावुक है, लेकिन समय के साथ स्थिर होकर सोचना सीखता है, पिता और बहनों की रक्षा और भविष्य को लेकर हर लड़ाई लड़ने को तैयार है।
एनिमल प्रारंभ से ही बांध लेती है। वह एक कसी हुई मनोरंजक फिल्म है। लिक्खाड़ों के उन्मादी विरोध का कारण समझ आता है क्योंकि इस फिल्म ने बॉलीवुड के प्रचलित तथाकथित ‘सेकुलरिज्म’ की धज्जियां उड़ा दी हैं। इसमें हिंदू आस्था, हिंदू विवाह, हिंदू परिवार व्यवस्था, पति-पत्नी का भावनात्मक लगाव और कुटुंब के भावनात्मक पक्ष को उभारा गया है।
आधी सदी तक स्वास्तिक को लेकर किए गए ईवान्जलिक्ल और वामपंथी दुष्प्रचार का भी आक्रामक उत्तर दिया गया है। यह फिल्म गुरपतवंत सिंह पन्नू जैसी मानसिकता और दुष्प्रचार को भी परोक्ष चुनौती देती है। पर अलगावादी मानसिकता के लोगों को दिक्कत है कि एक सिख परिवार में हवन हो रहा है। नायक -नायिका शिव जी के मंदिर में जाकर विवाह कर रहे हैं। सत्य यह है कि अपने समाज के लिए गुरुद्वारे और शिवालय में कोई अंतर नहीं रहा है। हीरो हवन के लिए श्रद्धापूर्वक बैठता है लेकिन चर्च में ‘कन्फेशन’ के लिए आए पादरी से स्वास्तिक की गलत व्याख्या को लेकर उलझ जाता है।
संवाद इस तरह से होता है-
नायिका : ‘फादर (पादरी) कहां है?’
नायक : ‘वो उल्टी कर रहा है। हमारे स्वास्तिक को नाजी सिंबल बता रहा था। आज के बाद नहीं बोलेगा।’ फिल्म में नाजियों के हुक्ड क्रॉस और हिंदू स्वास्तिक का अंतर बताते हुए कहा गया है कि ‘हमारे स्वास्तिक का अर्थ है प्रगति, समृद्धि और खुशहाली।’
कुल मिलाकर यह फिल्म वोक/फेमिनिस्ट/लेफ़्टिस्ट/ लिबरल सोच के बिल्कुल खिलाफ जाती है। इसलिए यह फिल्म इस वर्ग विशेष को इतनी चुभ रही है। झूठ बोलने से उन्हें कोई परहेज नहीं है। इसलिए फिल्म की कहानी को लेकर भी असत्य बोला जा रहा है। ‘फिल्म समाज और महिला विरोधी है… हीरो डॉमेस्टिक वायलेंस कर रहा है…नारी उत्पीड़न, नारी देह को वस्तु बनाकर पेश किया गया है… टॉक्सिक मस्कुलैनिटी को महिमामंडित किया गया है…, मर्दवादी फिल्म है.. नायक हिंसा और नफरत से भरा हुआ है, उसकी अपनी बीवी और बहनों से अपेक्षाएं एक घनघोर मर्दवाद वाली हैं… महिलाओं को वो यूज एंड थ्रो समझता है…हिटलर की राह पर चलते हुए राजनीतिक घृणा और हिंसा को जायज ठहराया गया है… यह फिल्म कैंसर है… ‘यह जहरीला सिनेमा है’। ऐसी तमाम समीक्षाएं और शीर्षक, मीडिया और सोशल मीडिया में चक्कर लगा रहे हैं।
एक वामपंथी पत्रकार का वक्तव्य है- यह मेरी जिंदगी की सबसे वाहियात फिल्म है। नायक एक अल्फा मेल है जो अपनी बीवी और बहनों की बेइज्जती करता है। वह अपनी गर्लफ्रैंड से कहता है लिक माय शूज। एक भी नारी पात्र ऐसा नहीं जिसमें आत्मविश्वास हो, जो अपनी बात कह सके.. फिल्म एक कम्युनल नैरेटिव गढ़ती है। हीरो हिंदू है, दुश्मन मुसलमान है… संदीप वांगा रेड्डी का दुस्साहस है ऐसी फिल्म बनाना।’
सत्य यह है कि नायक अपनी बहनों को सही जीवनसाथी का चुनाव करने को कहता है, और कहता है कि ‘ये सोशल मीडिया वाली दोस्ती के भरोसे अपनी जिंदगी के फैसले मत करना।’ वह बहनों से परिवार के उद्योग- व्यापार में भाग लेने को भी कहता है।
नायक अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता है, उसके प्रति समर्पित है, लेकिन पिता की हत्या पर आमादा, अज्ञात दुश्मनों तक पहुंचने के लिए उनके द्वारा भेजी गई एक जासूस के साथ विवाहेतर संबंध बनाता है, और उससे रहस्य पता करके पत्नी के पास वापस आता है, उसे सब कुछ बताकर माफी मांगता है, चुपचाप पत्नी के थप्पड़ खाता है, और फिर पैर पकड़कर उसे मनाता है। इसलिए नायक न तो खून का प्यासा है और न ही स्त्री को भोग की वस्तु समझने वाला, जैसा कि समीक्षाओं में बताया जा रहा है।
‘इस फिल्म को सुपर हिट कराने वाले दर्शक मनोरोगी, जिस देश में लिंचिंग नॉर्मल चीज हो, जिस देश में मोदी जीत सकते हैं, दस साल तक प्रधानमंत्री रह सकते हैं, उस देश में ऐसी फिल्में बनती रहेंगी, चलती रहेंगी। लोग थियेटर में तालियां बजा रहे हैं, बड़ा ही दुखदायी समय है।’
यह फिल्म महिलाओं के प्रति हिंसा को बढ़ावा नहीं देती, बल्कि स्त्री के सम्मान पर जोर देती है। कहानी में महिलाओं के शोषण का नजरिया खलनायक और उसके भाइयों का है। खलनायक का नाम अबरार हक है। अबरार की पहले से दो पत्नियां हैं, फिर वह बेटी की आयु की लड़की से निकाह करता है और सबके सामने उससे दैहिक संबंध बनाने लगता है। अबरार का नायक से दो पीढ़ी पहले का रक्त संबंध है।
जहां तक हिंसा का सवाल है, वह इसकी कहानी का हिस्सा है, लेकिन हिंसा को वीभत्स रूप में चित्रित नहीं किया गया है, बल्कि कुछ ‘डार्क कॉमेडी’ के अंदाज में प्रस्तुत किया गया है। हिंसा के सबसे लंबे दृश्य में, पृष्ठभूमि में 18वीं सदी के पराक्रमी धर्मयोद्धा हरिसिंह नलवा के पुत्र अर्जनसिंह नलवा की वीरता और युद्धकला की प्रशंसा में लिखा गया गीत चलता है। नलवा ने अफगानिस्तान से भारत में घुसकर लूटपाट करने वाले पठानों की कमर तोड़ी थी।
दशकों तक नलवा का खौफ आक्रमणकारी इस्लामी आक्रमणकारियों में छाया रहा। अर्जनसिंह नलवा ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में वीरता दिखाई थी। अब अंग्रेजों का विरोध पन्नू मानसिकता के गले कैसे उतरेगा? फिल्म में हिंसा का चित्रण वीभत्स न हो, निर्देशक ने इसका ध्यान रखा है। लड़ाई के सबसे लंबे दृश्य में, हमलावरों को मास्क और कोट-पैंट पहनाया गया है, संभवत: इसलिए कि रक्तरंजित चेहरे या क्षत-विक्षत शरीर न दिखाने पड़ें। हां, इस दृश्य में नायक को सफेद धोती कुर्ता पहनाया गया है।
यह मेरी जिंदगी की सबसे वाहियात फिल्म है। नायक एक अल्फा मेल है जो अपनी बीवी और बहनों की बेइज्जती करता है। वह अपनी गर्लफ्रैंड से कहता है लिक माय शूज। एक भी नारी पात्र ऐसा नहीं जिसमें आत्मविश्वास हो, जो अपनी बात कह सके.. फिल्म एक कम्युनल नैरेटिव गढ़ती है। हीरो हिंदू है, दुश्मन मुसलमान है… संदीप वांगा रेड्डी का दुस्साहस है ऐसी फिल्म बनाना।
लेकिन फिर भी ‘हिंसा-हिंसा’ का शोर जारी है जबकि यही वर्ग वीभत्स हिंसा चित्रण और नग्नता से भरी, गैंग्स आफ वासेपुर एक और दो, सैक्रेड गेम्स और गेम आफ थ्रोन्स जैसी फिल्मों और वेबसीरीज की बलैयां लेते नहीं थकता। किशोरों को छुरेबाजी करते, जघन्य हत्याएं और स्त्रियों का शोषण दिखाने वाली मराठी फिल्म ‘नाय वरन भट लोंचा कोन नाई कोंचा’ पर आपत्ति नहीं होती। सैक्रेड गेम्स, जिसमें गुरु शिष्य संबंध को समलैंगिक संबंध दिखाया जाता है, वह इस कथित बुद्धिजीवी वर्ग को समाज विरोधी या असंगत नहीं लगती। लेकिन सच सिर चढ़कर बोलता है। फिल्म बहुत अच्छी बनी है। बांधकर रखती है। संगीत, मारधाड़, हल्का हास्य, रोमांच…सब प्रभावी है।
अभिनय और निर्देशन दमदार है। फिल्म का संपादन अच्छा हुआ है। इसलिए यह खूब चल रही है। इसलिए जब तमाम कोशिशों के बावजूद, वोक विद्वानों ने दर्शकों को सिनेमाघरों में उमड़ते देखा तो दर्शकों को ही गाली देने लगे। एक तथाकथित बुद्धिजीवी कह गए ‘इस फिल्म को सुपर हिट कराने वाले दर्शक मनोरोगी, जिस देश में लिंचिंग नॉर्मल चीज हो, जिस देश में मोदी जीत सकते हैं, दस साल तक प्रधानमंत्री रह सकते हैं, उस देश में ऐसी फिल्में बनती रहेंगी, चलती रहेंगी। लोग थियेटर में तालियां बजा रहे हैं, बड़ा ही दुखदायी समय है।’
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