राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग (NMC)के लोगो पर भगवान धन्वंतरि के चित्रण को देखकर केरल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) को लगता है कि नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) केरल में हिंदू देवताओं को बढ़ावा दे रही है । जबकि एनएमसी ने तथ्यों के साथ यह साफ बता दिया है कि भगवान धन्वंतरि पहले भी इसका हिस्सा रहे हैं। दूसरी ओर आईएमए केरल के अध्यक्ष डॉ. नूहू हैं जो कह रहे हैं कि एनएमसी के लोगो को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए। चिकित्सा के क्षेत्र में जातिगत या धार्मिक विचार लाने की कोशिश अस्वीकार्य है।
डॉ. नूहू के धर्म निरपेक्षता की आड़ लेकर किए गए विरोध का उत्तर हालांकि राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग में चिकित्सा पंजीकरण बोर्ड के सदस्य डॉ. योगेन्द्र मलिक ने दिया है, किंतु यहां डॉ. नूहू के खड़े किए गए प्रश्न और उसके उत्तर में दिए गए डॉ. योगेन्द्र मलिक के जवाब अपनी जगह हैं। लेकिन विचार करिए; क्या धर्म निरपेक्षता का अर्थ अपनी परंपराओं, संस्कारों और जीवन मूल्यों से अलग हो जाना है? भगवान धन्वंतरि क्या सिर्फ एक हिन्दू देवता हैं? क्या उन्हें सिर्फ हिन्दुओं तक सीमित रखा जाना चाहिए? या इससे ऊपर उनका मनुष्य जीवन को बनाए रखने में इतना बड़ा योगदान है कि उनके सम्मान में श्रद्धा से पूरित होकर एक नहीं अनेक मूर्तियां हर उस स्थान पर लगाई जानी चाहिए जहां चिकित्सा कार्य, जीवन बचाने के लिए स्वास्थ्य ज्ञान का आलोक प्रदान किया जा रहा है!
केरल के डॉ. नूहू की बातें सुनकर यही प्रतीत हो रहा है कि उन्होंने न तो भगवान धन्वंतरि के बारे में जानने का प्रयत्न किया और न ही भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा को वे स्वीकारते हैं। यदि वे अध्ययन करते तब ध्यान में अवश्य आता कि जिस चिकित्सा पद्धति से वे स्वास्थ्य ठीक करने का कार्य करते हैं, उसके आद्य जनक धन्वन्तरि हैं, इसलिए उन्हें भगवान की उपाधि और संज्ञा दी गई है। भगवान गुण वाचक शब्द है जिसका अर्थ गुणवान होने से है। भग के छह अर्थ है; ऐश्वर्य, तेज, स्मृति, यश, ज्ञान और सौम्यता जिसके पास ये सभी गुण मौजूद हैं वह भगवान है। संस्कृत भाषा में भगवान “भंज” धातु से बना है जिसका अर्थ हुआ सेवायाम् । जो सभी की सेवा में लगा रहे कल्याण और दया करके सभी मनुष्य जीव ,भूमि, गगन, वायु, अग्नि, नीर को दूषित ना होने दे, सदैव स्वच्छ रखे वो भगवान है।
काश अच्छा होता कि डॉ. नूहू भगवान धन्वन्तरि होने के मनोविज्ञान को भी समझते। भारत की ज्ञान परंपरा में धन्वन्तरि वह देव हैं जिन्होंने मनुष्य को आरोग्यमय रहने के लिए आयुर्वेद दिया, जिसका कि सदियों से भारत वर्ष में जन्में लोग पालन करते और उसे व्यवहार में लेते हुए अपना जीवन जी रहे हैं। भगवान धन्वंतरि के चारों हाथों में आयुर्वेद के प्रतीक चिह्न हैं। एक हाथ में जीवनदायिनी अमृत कलश है, जो संदेश देता है कि जल के बिना सब सूना है। दूसरे हाथ में औषधि है, जिसका उपयोग हम सभी अपने जीवन में स्वस्थ रहने के लिए सतत करते ही हैं । उनके तीसरे हाथ में शंख है, जिसका संदेश है, प्रतिदिन शंख बजानेवालों को स्वांस, दमा, हृदय रोग में लाभ मिलता है। चौथे हाथ में आयुर्वेद ग्रंथ है, जो यह बता रहा है कि प्रत्येक मनुष्य जब इस ग्रंथ में उल्लेखित नियमों, दिनचर्या का पालन करता है, तब उसके आसपास कोई भी बीमारी नहीं फटकती। अर्थात् व्यक्ति हमेशा स्वस्थ रहता है। कुल मिलाकर धन्वन्तरि जो भी अपने हाथों में लिए हुए हैं, उसका एक उद्देश्य है मनुष्य सहित जीव जगत को पूर्ण स्वस्थ रहने की कामना ।
वस्तुत: यह कैसी धर्म निरपेक्षता है? जिसमें कि हम आधुनिक युग के विभिन्न वैज्ञानिक आविष्कारों का श्रेय पश्चिम के वैज्ञानिकों को देने में तो हम आगे रहते हैं, किंतु अपने देश की प्राच्य विद्याओं एवं प्राचीन समय से चली आ रही परंपरागत ज्ञान एवं उससे उपजे अविष्कारों को हम स्वीकारना नहीं चाहते! कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्राय: उन सभी अविष्कारों के जनक हिन्दू ऋषि वैज्ञानिक हैं?
इन पुस्तकों का कर लें अध्ययन
यहां डॉ. नूहू समेत जिन्हें भी राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग के धन्वन्तरि के चित्र वाले प्रतीक चिन्ह का विरोध करना है, उन सभी से एक ही आग्रह है, वे धर्मपाल जी की ‘इंडियन साइंस एंड टेक्नोलॉजी इन एटीन्थ सेन्चुरी’ पुस्तक अवश्य पढ़ें। यदि उससे भी काम न चले तो ‘हिन्दू केमिस्ट्री’ लेखक- डॉ. प्रफुल्ल चंद्र राय को पढ़ लें । इसके बाद भी ऋषि ज्ञान परंपरा के संदर्भ में कुछ छूटा हुआ लगे तब वे बृजेंद्रनाथ सील की पुस्तक ‘दि पॉजिटिव साइंस ऑफ एनशिएंट हिन्दूज’ का अध्ययन कर सकते हैं। इसके बाद भी कुछ जिज्ञासाएं शांत नहीं हो रही हैं और प्राचीन ज्ञान परंपरा के अथाह भण्डार में अभी भी वे गोता लगाना चाहते हैं तो वह ‘भारत में विज्ञान की उज्जवल परंपरा’ जिसके लेखक सुरेश सोनी हैं, पुस्तक पढ़ सकते हैं। इन सभी पुस्तकों में भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों का उल्लेख है।
उस समय भी जागृत था भारत
यहां इन पुस्तकों में आप पाएंगे कि ज्ञान की फिर कोई भी शाखा क्यों न हो, भारतीयों ने खगोल, चिकित्सा, धातु, भवन निर्माण, गणित, भौतिकी, रसायन, ज्योतिष जैसे अनेक क्षेत्रों में व्यापक कार्य किया है। वस्तुत: भारत उस समय जागृत और विकसित था, जब यूरोप में मनुष्य एक साथ मिलकर रहते हुए एक समाज का निर्माण करने की दिशा में अग्रसर हो रहे थे। यह विशेष ज्ञान की प्रगति यात्रा आर्यभट्ट, कणाद, चरक, सुश्रुत, वराह मिहिर, अगत्स्य, नागार्जुन,भरद्वाज, ब्रह्मगुप्त, बौधायन, ऋषि कण्व, भास्कराचार्य, महर्षि विश्वामित्र जैसे भारतीय वैज्ञानिकों के उन्नत शोधों और आविष्कारों को यह पुस्तकें आज हमारे सामने विविध रूपों में प्रस्तुत करती हैं ।
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