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वैदिक स्वर और सनातन विचार है पाञ्चजन्य

पाञ्चजन्य के स्थापना दिवस कार्यक्रम का समापन जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी के आशीर्वचन से हुआ। इसके लिए वे विशेष रूप से दिल्ली पधारे। स्वामी जी के करकमलों से कार्यक्रम का उद्घाटन हुआ और सायं को उन्होंने अपना उद्बोधन भी दिया। यहां उनके आशीर्वचन के संपादित स्वरूप को प्रकाशित किया जा रहा है

स्वामी अवधेशानंद गिरि by स्वामी अवधेशानंद गिरि
Jan 27, 2023, 07:43 pm IST
in भारत, विश्लेषण, दिल्ली, आजादी का अमृत महोत्सव
दीप प्रज्ज्वलित कर कार्यक्रम का उद्घाटन करते स्वामी अवधेशानंद जी। साथ में हैं (बाएं से) श्री सुनील आम्बेकर, श्री ब्रजेश पाठक, श्री राजनाथ सिंह और श्री भारत भूषण अरोड़ा

दीप प्रज्ज्वलित कर कार्यक्रम का उद्घाटन करते स्वामी अवधेशानंद जी। साथ में हैं (बाएं से) श्री सुनील आम्बेकर, श्री ब्रजेश पाठक, श्री राजनाथ सिंह और श्री भारत भूषण अरोड़ा

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इस समय भारत की स्वतंत्रता का अमृतकाल चल रहा है और पाञ्चजन्य का भी अमृतकाल है। 75 वर्ष की इस यात्रा में पाञ्चजन्य के सामने अनेक कठिनाइयां आईं। इसके संघर्ष, इसके उत्कर्ष को साधकों, जिज्ञासुओं, सत्य-पिपासुओं और स्वतंत्रता-सेनानियों ने भी देखा है। पाञ्चजन्य के मूल में पंडित दीनदयाल जी, आदरणीय अटल जी जैसे मनीषी थे। पाञ्चजन्य एक समाचारपत्र के रूप में निकला। जो लोग पश्चिमी सभ्यता लेकर यहां आए और जो इस धरती के सम्मान, स्वाभिमान, निजता, यहां की संस्कृति, संस्कार, विचार, सभ्यता पर बड़ा प्रहार कर रहे थे, उनके प्रतिकार और विरोध के लिए पाञ्चजन्य का शुभारंभ हुआ। इसका ध्येय है अपनी संस्कृति का रक्षण, संवर्द्धन और पोषण करना। अभी पाञ्चजन्य का प्रकाशन प्रारंभ ही हुआ था कि उस पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। इसके बावजूद पाञ्चजन्य की आत्मा, उसकी सत्ता, उसकी निजता ने अपनी प्रखरता, मुखरता और अपने अस्तित्व को बनाए रखा, क्योंकि इसके मूल में सत्य का प्रकाशन था। पाञ्चजन्य के मूल में वैदिक स्वर है।

पाञ्चजन्य केवल समाचार पत्र नहीं है, यह भारत की संस्कृति, भारत की संवेदना, आर्ष परंपरा, भारत के मूल्यों का पोषक है। यह उस उद्घोष का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें वेद कहता है-‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय।’ पाञ्चजन्य की यात्रा आरंभ से लेकर अब तक प्रिय भारत की आत्मा का दर्शन है। पाञ्चजन्य भारतीयता, भारत की सत्यता, भारत की गौरवगाथाएं, भारत का पारमार्थिक स्वरूप, अध्यात्म, धर्म, लोकमान्यताएं, परंपराएं, प्रवृत्तियां और अंत:करण का दर्शन कराता है।

पाञ्चजन्य कुछ और नहीं, उपनिषदों की आत्मा है। पाञ्चजन्य भारत की सत्यता, अमरता और सनातनता का एक मुखर और प्रखर स्वर है, जो 1948 से भारत की बात कहता आ रहा है। बहुत कठिनाइयों में पाञ्चजन्य आगे बढ़ा है। एक समय पूरा शासनतंत्र इसके विरोध में खड़ा था। पाञ्चजन्य के स्वर को दबाने के लिए संविधान में संशोधन तक किया गया। इससे जुड़े लोगों ने न जाने कितने संघर्ष झेले हैं। पाञ्चजन्य एक प्रज्ञा प्रवाह है। पाञ्चजन्य ज्ञान की अविरल निर्मल धारा है, जिससे भारत और भारतीयता की बात हर दिन कही जा रही है।
पंडित दीनदयाल जी चाहते थे कि पाञ्चजन्य का नाम ‘प्रलयंकर’ रखा जाए, लेकिन किन्हीं कारणों से ऐसा नहीं हो पाया।

पाञ्चजन्य माने श्रीकृष्ण का शंख। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में जब पाञ्चजन्य का स्वर गूंजा तो कौरव पक्ष के बड़े-बड़े योद्धा हतोत्साहित हो गए। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कर्ण जैसों के माथे पर स्वेद उभर आया। दुर्योधन आदि सभी भयभीत हो गए। और ऐसा भी कहते हैं कि शकुनि के पूरे शरीर में कम्पन था। पाञ्चजन्य का यह स्वर था। उसी स्वर को आज भी साप्ताहिक पाञ्चजन्य के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है।

संयोग से आज हम सब पाञ्चजन्य की यात्रा की चर्चा कर रहे हैं। यह शंख बजाया है पाञ्चजन्य ने। पाञ्चजन्य हमारी संस्कृति का ज्योतिर्धर है, यह संस्कृति का संवाद है, मूल्यों का रक्षक है, भारत की दिव्यता का प्रहरी है। पाञ्चजन्य प्रस्थानत्रयी का वह स्वर है, जिसमें वेद ध्वनित होता है, जिसमें ब्रह्मसूत्र और वेद उद्भाषित होता है। पाञ्चजन्य की तेजस्विता, दिव्यता, आभा कभी भी क्षीण नहीं हुई।

कार्यक्रम में स्वामी अवधेशानंद जी के साथ पाञ्चजन्य, आर्गेनाइजर और भारत प्रकाशन (दिल्ली) लिमिटेड के साथी।

पाञ्चजन्य मेरा प्रिय समाचारपत्र बचपन से रहा। इसके 75वें वर्ष पर मुझे अपनी बात कहने का अवसर मिला। इसके लिए मैं धन्यता अनुभव कर रहा हूं, गौरवान्वित हूं और अनुग्रहीत अनुभव कर रहा हूं। मैं उपकृत अनुभव कर रहा हूं। बहुत-बहुत बधाई। शुभकामनाएं। यात्रा अभी और करनी है। लंबी करनी है। पाञ्चजन्य की यात्रा तब पूरी मानी जाएगी जब भारत विश्वगुरु बनेगा। अपने विचार से, अपनी विद्या से, अपने अर्थशास्त्र से, विज्ञान से, प्रौद्योगिकी से भारत पूरे संसार को विश्वविद्यालय देगा। अब वे दिन बहुत दूर नहीं हैं और उसमें नि:संदेह पाञ्चजन्य की एक केंद्रीय भूमिका रहेगी। 

अब पाञ्चजन्य का ध्येय वाक्य है—बात भारत की। यह अच्छी बात है। लेकिन यह भी सच है कि अब भारत पूरे विश्व में चिंतन का विषय है। भारत, भारतीयता, भारत का जीवन-दर्शन, भारतीय जीवन-मूल्य, यहां के योग, अध्यात्म, आयुर्वेद, भारत की भाषाएं, भारत की औषधियां, भारत का ध्यान, भारत का विचार, भारत की कौटुम्बिक प्रवृत्ति, इन सबकी चर्चा हो रही है। अब भारत जिस ढंग से आर्थिक दृष्टि से उन्नत हो रहा है, जिस ढंग से उद्योग क्षेत्र में, अभियांत्रिकी के क्षेत्र में, चिकित्सा के क्षेत्र में, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की स्वीकार्यता बनी है, वह विलक्षण है। संयुक्त राष्ट्र तक ने स्वीकार किया कि भारत अपनी भाषा में कोई बात कहे तो हम सुनेंगे। यहां की सारी भाषाएं आदरणीय हैं। सभी भाषाओं का बड़ा आदर है। हिंदी के लिए एक अपूर्व मान्यता है। हिंदी पश्चिमी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है। लोग पूछ रहे हैं कि कौन-सी ऐसी संस्कृति है, जो तेजी से बढ़ रही है? कौन-सा विचार है, कौन-सी सभ्यता है, जो पूरे संसार में छा रही है? इस पर एक स्वर से विद्वान कह रहे हैं कि वह हिंदू संस्कृति है, हिंदू विचार है। हिंदू संस्कृति या विचार बिना किसी को कन्वर्ट किए, बिना कोई विषमता पैदा किए और यहां तक कि किसी के अस्तित्व, उसकी निजता, उसकी सत्ता पर प्रहार किए बिना बढ़ रहा है। यह शोध का विषय है, पश्चिमी विश्वविद्यालयों में।

पाञ्चजन्य केवल समाचार पत्र नहीं है, यह भारत की संस्कृति, भारत की संवेदना, आर्ष परंपरा, भारत के मूल्यों का पोषक है। यह उस उद्घोष का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें वेद कहता है-‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय।’ पाञ्चजन्य की यात्रा आरंभ से लेकर अब तक प्रिय भारत की आत्मा का दर्शन है। पाञ्चजन्य भारतीयता, भारत की सत्यता, भारत की गौरवगाथाएं, भारत का पारमार्थिक स्वरूप, अध्यात्म, धर्म, लोकमान्यताएं, परंपराएं, प्रवृत्तियां और अंत:करण का दर्शन कराता है।

कुछ लोग कहते हैं कि भारत पूरे विश्व को एक परिवार मानता है। यह अधूरी बात है। सच तो यह है कि भारत केवल विश्व को नहीं, समस्त लोकों को परिवार समझता है। हमारे परिवार में केवल मनुष्य नहीं है, पक्षी, धरती, वनस्पतियां, जलाशय, धरती का एक-एक कण शामिल है। कुछ वर्ष पहले पश्चिमी वैज्ञानिकों को ‘गॉड पार्टिकल’ हाथ लगा। इसके बाद वे कहने लगे कि कोई एक तत्व है जो जीवंत है, जाग्रत है, अमिट है, अमर है, अविनाशी है, अनश्वर है, सार्वभौम है, सनातन है। पश्चिम अब यह कह रहा है, लेकिन ये सारी बातें तो हम सदियों से कह रहे हैं।

अब पूरे पश्चिम में अगर भारत की कोई बात स्वीकार की जा रही है तो वह है हमारी उद्यमिता, पुरुषार्थ, पराक्रम। आज यूरोप की कंपनियों को भारतीय लोग ही पसंद हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है हमारा पुरुषार्थ, मेहनत करने की हमारी क्षमता। भारतीय कभी थकता नहीं। शोध हुआ है कि कौन ऐसा प्राणी है जो न थकता है, न व्यथित होता है, न चिंतित होता है। पश्चिम के आदमी का तो कब मन खराब हो जाएगा, इसका कोई पता नहीं। उसे छुट्टी चाहिए। शुक्रवार, गुरुवार के दिन वह थक जाता है, उसे आराम करना है। भारतीयों की परिश्रम करने की विशेषता के कारण ही आज पूरा संसार भारत की बात कर रहा है, योग की बात कर रहा है।

अब भारत पूरे विश्व में चिंतन का विषय है। भारत, भारतीयता, भारत का जीवन-दर्शन, भारतीय जीवन-मूल्य, यहां के योग, अध्यात्म, आयुर्वेद, भारत की भाषाएं, भारत की औषधियां, भारत का ध्यान, भारत का विचार, भारत की कौटुम्बिक प्रवृत्ति, इन सबकी चर्चा हो रही है। अब भारत जिस ढंग से आर्थिक दृष्टि से उन्नत हो रहा है, जिस ढंग से उद्योग क्षेत्र में, अभियांत्रिकी के क्षेत्र में, चिकित्सा के क्षेत्र में, प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की स्वीकार्यता बनी है, वह विलक्षण है। संयुक्त राष्ट्र तक ने स्वीकार किया कि भारत अपनी भाषा में कोई बात कहे तो हम सुनेंगे। यहां की सारी भाषाएं आदरणीय हैं। सभी भाषाओं का बड़ा आदर है। हिंदी के लिए एक अपूर्व मान्यता है। हिंदी पश्चिमी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है। लोग पूछ रहे हैं कि कौन-सी ऐसी संस्कृति है, जो तेजी से बढ़ रही है? कौन-सा विचार है, कौन-सी सभ्यता है, जो पूरे संसार में छा रही है? इस पर एक स्वर से विद्वान कह रहे हैं कि वह हिंदू संस्कृति है, हिंदू विचार है।

2008 में मैं योग न्यूजर्सी में था। पता चला कि वहां की अदालत में बबूल, हल्दी, तुलसी आदि पर पेटेंट के लिए मुकदमा चल रहा है। प्रश्न है कि जब ये चीजें वहां कम होती हैं, तो इन पर पेटेंट क्यों चाहते हो? हमने तो कभी नहीं कहा कि दशमलव का बोध हमने कराया। हमने कभी नहीं बताया कि काल की गणना पूरे संसार को हमने सिखाई है। समय का ज्ञान हमने सिखाया है। शून्य का आविष्कार हमने किया। हमने पूर्ण पहाड़ा सिखाया है, वह भी वेदों के माध्यम से। पूर्ण में कुछ घटाओ तो कुछ घटता नहीं। उसमें कुछ अभाव नहीं आता। हमने पूरे संसार को यह बताया कि अभाव नाम की कोई वस्तु नहीं होती। अभाव कुछ नहीं होता, रिक्तता कुछ नहीं होती। यह अज्ञानता की उपज है। हमने पूर्णता का ज्ञान दिया है। कुछ जोड़ते या निकालते जाओगे तब भी पूर्ण पूर्ण ही रहेगा, क्योंकि परमात्मा पूर्ण है। जितना वे पूर्ण हैं, उतने ही आप भी पूर्ण हैं।

पाञ्चजन्य मेरा प्रिय समाचारपत्र बचपन से रहा। इसके 75वें वर्ष पर मुझे अपनी बात कहने का अवसर मिला। इसके लिए मैं धन्यता अनुभव कर रहा हूं, गौरवान्वित हूं और अनुग्रहीत अनुभव कर रहा हूं। मैं उपकृत अनुभव कर रहा हूं। बहुत-बहुत बधाई। शुभकामनाएं। यात्रा अभी और करनी है। लंबी करनी है। पाञ्चजन्य की यात्रा तब पूरी मानी जाएगी जब भारत विश्वगुरु बनेगा। अपने विचार से, अपनी विद्या से, अपने अर्थशास्त्र से, विज्ञान से, प्रौद्योगिकी से भारत पूरे संसार को विश्वविद्यालय देगा। अब वे दिन बहुत दूर नहीं हैं और उसमें नि:संदेह पाञ्चजन्य की एक केंद्रीय भूमिका रहेगी।

Topics: यहां के योगHindu CulturePanchjanya means Shri Krishna's conch. Dharmakshetra Kurukshetraसभ्यताSpiritualityभारत की भाषाएंआयुर्वेदTruthfulnessपाञ्चजन्य माने श्रीकृष्ण का शंख। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रLanguages ​​of Indiaभारत की औषधियांसंस्कृतिImmortality and Eternality of Panchjanya Bharatपाञ्चजन्य भारत की सत्यताMedicines of IndiaIndiaभारत का ध्यानअध्यात्मAim of Panchjanyaअमरता और सनातनताMeditation of Indiaभारत का विचारCultureTalk of Indiaपाञ्चजन्य का ध्येयThought of Indiaभारत की कौटुम्बिक प्रवृत्तिभारतीयताIndia is Thought in the Whole Worldभारत पूरे विश्व में चिंतनFamily trend of IndiaAmritkal of freedomसंस्कारHindu Thoughtहिंदू संस्कृति हैVedic voice and eternal thoughts are Panchajanya Open in Google Translate • Feedbacalso amritkal of Panchjanya‘बात भारत की’Indiannessहिंदू विचारAyurvedaSanskarपाञ्चजन्य का भी अमृतकालLife-Philosophy of Indiaभारत का जीवन-दर्शनभारतThoughtस्वतंत्रता का अमृतकालIndian Life-Valuesभारतीय जीवन-मूल्यCivilizationविचारHere Yoga
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