बंगाल एक बार फिर से जला और एक बार फिर से वह वर्ग मौन रहा, जो वर्ग स्वयं को स्मवेदंशीलता का अगुआ मानता है। जो यह मानता है कि उसके बिना क्रान्ति नहीं हो सकती, उसके बिना परिवर्तन की लहर नहीं आ सकती और उसकी सहमति की मोहर के बिना जो कुछ भी होता है, वह सब पिछड़ा है। केवल वही हैं जो अगुआ हैं, केवल वही हैं, जो करुणा की बात कर सकते हैं, या कहें करुणा उत्पन्न कर सकते हैं। वह कौन है, जो तलाशते हैं अवसर अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता दर्ज करने के लिए वैश्विक आपदाएं एवं वैश्विक संघर्ष। मगर अपने ही देश में हो रही खूनी घटनाओं पर मौन साध जाते हैं।
यह आज की बात नहीं है और न ही यह आज की घटना है। यह तो इतिहास के प्रति ही किया जा रहा अन्याय है, जो अब जनता के सामने और मुखर होकर आ रहा है, बात कथित प्रगतिशीलों की और कथित रूप से बौद्धिक चारागाह माने जाने वाले बंगाल की, जो एक बार अब पुन: सुर्खियों में है। इसलिए नहीं कि बहुत कुछ बौद्धिक वहां पर हुआ है, बल्कि इसलिए कि ऐसा कुछ हुआ है, जिस पर कथित बौद्धिक वर्ग को बोलना चाहिए था और उन्होंने चुप्पी साध ली।
इसलिए कि उन्हें संवेदना दिखानी चाहिए थी, मगर वह नहीं दिखा सके। बंगाल, जिसे एक समय में तमाम प्रकार की रचनात्मकता एवं रचनात्मक प्रतिरोध के लिए स्मरण किया जाता था, वहां पर चुनावी हिंसा और चुनावी गड़बड़ी की घटनाओं पर प्रगतिशील वर्ग पूर्णतया मौन साथ गया है। ऐसा लग रहा है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं है और बेखबर सी सारी सरकार नजर आते हैं।
यहां बात हो रही है बंगाल में हुए पंचायत चुनावों में लुटे हुए बैलेट बॉक्स की और हिंसा में मारे गए आम लोगों की और उस पर उस प्रगतिशील चुप्पी की, जो यह सोचकर चुप है कि हिंसा हो रही है तो क्या, भाजपा तो हार रही है। यही सोच घातक है और बहुत खतरनाक है! क्या केवल भाजपा हार रही है, इस कारण यह वर्ग किसी भी सीमा तक हिंसा का समर्थन करने के लिए पहुंच जाएगा ? क्या भाजपा की पराजय की इच्छा लिए यह वर्ग बाहरी शत्रुओं से भी मिल जाएगा ?
यह सोच अत्यंत घातक है क्योंकि यह चुप्पी तमाम हत्याओं के साथ ही लोकतंत्र की भी हत्या पर भी हावी है। यह वह वर्ग है जो मोहब्बतों की दुकान जैसे जुमलों पर हंसकर कहता है कि देखा ऐसे होते हैं नेता ! मगर यह वही वर्ग है जो बंगाल में पंचायत चुनावों में हुई हिंसा में प्राण गंवाने वाले 20 लोगों के शवों को अनदेखा कर देता है। वह लूटे गए बैलेट बॉक्स पर अट्टाहास करता है।
दरअसल वह जो लूटे हुए बैलेट बॉक्स है, वही तो कहीं न कहीं उसकी भी चाह प्रतीत होती है क्योंकि वर्ष 2014 के बाद के हर चुनावों के बाद यह वर्ग इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन पर प्रश्न उठाते हुए कहता है कि कैसे भाजपा ही केवल जीतती है, परन्तु यह वही वर्ग है जो भारतीय जनता पार्टी के चुनाव हारने पर ईवीएम पर प्रश्न चिह्न नहीं उठाता है।
बैलेट बॉक्स नाले में मिले तो वहीं वीडियो सामने आए कि कैसे लोग मोहर पर मोहर लगाते जा रहे हैं। यहां तक कि इस तक के वीडियो सामने आए कि कैसे सीपीआईएम ने भी बंगाल में छप्पा वोट डाले। हालांकि मोहब्बत की दुकान की बात करने वाले नेता की पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी ने भी इस हिंसा की बात की, परन्तु प्रगतिशील वर्ग ने इनकी पीड़ा भी नहीं सुनी।
इसी बीच एक चुनाव अधिकारी की रोती हुई तस्वीर भी वायरल हुई। यह दावा किया गया कि वह अपने पोलिंग बूथ पर रिगिंग के चलते फूट फूट कर रो पड़ी थीं। मगर यह तस्वीर भी विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकी थी।
रिपोर्ट्स के अनुसार बंगाल में सामान्य मतदाताओं को डराने के लिए टीएमसी द्वारा कई स्थानों पर देसी बम भी फोड़े गए। भाजपा समर्थक ही नहीं, बल्कि आम लोग भी मारे गए। बैलेट बॉक्स में आग लगाई गयी, या पानी डाल दिया गया। बंगाल का जिला प्रशासन और पुलिस दोनों की अक्षम प्रमाणित हुए और यह पूरी तरह से जोकतंत्र बनकर रह गया, क्योंकि तमाम शिकायतों पर कार्रवाई हुई ही नहीं।
बंगाल के विधानसभा चुनावों के बाद हुई हिंसा पर भी यह वर्ग पूरी तरह से मौन था। उसके लिए हिंसा या लोकतंत्र की हत्या या इंसानों की हत्या का कोई अर्थ ही नहीं है, वह बस यह सोचकर प्रसन्न है कि भारतीय जनता पार्टी हार रही है।
भारतीय जनता पार्टी के प्रति घृणा का आलम यह है कि वह हिन्दू प्रतीकों का एवं भगवान का विरोध तो करते ही हैं, परन्तु वह हिंसा का समर्थन करने लगेंगे यह बहुत खतरनाक है। आज असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने हिंसा का एक और चेहरा दिखाते हुए ट्वीट किया कि बंगाल में पंचायत चुनावों में हिंसा के चलते 133 व्यक्तियों ने असम के धुबरी जिले में शरण मांगी है। हमने उन्हें शरणार्थी शिविरों में स्थान दिया है और साथ ही भोजन एवं चिकित्सीय सहायता भी उपलब्ध कराई है।
भारतीय जनता पार्टी को हराने की लालसा में यह वर्ग इस सीमा तक आत्मघाती हो चुका है कि इस वर्ग को उन 133 लोगों की पीड़ा भी नहीं दिखाई दे रही है जो हिंसा के भय से दूसरे प्रांत में शरण लेने पहुंच गए हैं।
यह अत्यंत शोध का विषय हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी की पराजय देखने के लिए विपक्ष ही नहीं, संवेदनशीलता का स्वयंभू ठेकेदार वर्ग भी हिंसा पर मौन धारण कर सकता है, शवों पर विजय का अट्टाहास कर सकता है। आम लोगों के बहते रक्त के बीच “साम्प्रदायिकता” पर जीत का जश्न मना सकता है।
कथित प्रगतिशील वर्ग की यह चुप्पी अत्यंत घातक है, यह आत्मघाती चुप्पी कब जाकर टूटेगी इसका उत्तर वह शव भी अवश्य मांगेंगे जो कथित प्रगतिशीलों से कम से कम यह तो आस करते ही होंगे कि वह उनकी पीड़ा विमर्श में तो उठाएंगे ! परन्तु सीरिया के एलन कुर्दी पर कविताओं की धारा बहाने वाले लोग बंगाल में बहते हुए रक्त से उसी प्रकार निरपेक्ष हैं, जैसे कश्मीरी हिन्दुओं के कत्लेआम और पलायन पर निरपेक्ष थे और अभी तक हैं ! और वह पीड़ाओं को नकारने के क्रम में हैं !
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