सेंगोल भारत का सांस्कृतिक प्रतीक है। ब्रह्माजी के समान तेजस्वी यह दण्ड सबको मर्यादा के भीतर रखता है। यह कालरूप दण्ड सृष्टि के आदि में, मध्य में और अन्त में भी जागता रहता है। यह सर्व-लोकेश्वर महादेव का स्वरूप है। यही समस्त प्रजाओं का पालक है।
वे पूछते हैं कि किसका राज्याभिषेक होने जा रहा है, कौन-सा सत्तांतरण हुआ है कि सेंगोल स्थापित किया जा रहा है? लेकिन सत्तांतरण तो 1947 में हो चुका था और सेंगोल तो तभी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने ग्रहण किया था। यह बात अलग है कि बाद में वह संग्रहालय की चीज बना दिया गया। अब सत्तांतरण के प्रतीक को उसी के गौरवमयी स्थान पर अधिष्ठित किया गया है।
सेंगोल बताता है कि दुनिया चपटी नहीं है, गोल है और अंतत: वहीं लौटती है, जहां उसे लौटना चाहिए था। सेंगोल यह भी बताता है कि सत्ता का चक्र-परिवर्तन होता रहता है। वह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रहती है। जैसे गीता के ज्ञानांतरण की एक परंपरा है, वैसे ही सत्तांतरण की भी। आज मैं हूं, जहां कल कोई और था। यह भी एक दौर है, वह भी एक दौर था। महाभारत के शांतिपर्व के राजधमार्नुशासनपर्व में सबसे पहले शिव इसे विष्णु को देते हैं।
महादेवस्ततस्तस्मिन् वृत्ते यज्ञे यथाविधि।
जा दण्डं धर्मस्य गोप्तारं विष्णवे सत्कृतं ददौ॥
तदनन्तर ब्रह्माजी का वह यज्ञ जब विधिपूर्वक सम्पन्न हो गया, तब महादेवजी ने धर्मरक्षक भगवान् विष्णु का सत्कार करके उन्हें वह दण्ड समर्पित किया
विष्णुरड्गिरसे प्रादादड्गिरा मुनिसत्तम:।
प्रादादिन्द्र्रमरीचिभ्यां मरीचिर्भृगवे ददौ॥
भगवान् विष्णु ने उसे महर्षि अंगिरा को दे दिया। अंगिरा ने इन्द्र और मरीचि को दिया और मरीचि ने महर्षि भृगु को सौंप दिया।
भृगुर्ददावृषिभ्यस्तु दण्डं धर्मसमाहितम्।
ऋषयो लोकपालेभ्यो लोकपाला: क्षुपाय च॥
क्षुपस्तु मनवे प्रादादादित्यतनयाय च।
पुत्रेभ्य: श्राद्धदेवस्तु सूक्ष्मधर्मार्थकारणात्॥
भृगु ने वह धर्मसमाहित दण्ड ऋषियों को दिया। ऋषियों ने लोकपालों को, लोकपालों ने क्षुप को, क्षुप ने सूर्यपुत्र मनु (श्राद्धदेव) को और श्राद्धदेव ने सूक्ष्म धर्म तथा अर्थ की रक्षा के लिए उसे अपने पुत्रों को सौंप दिया।
विभज्य दण्ड: कर्तव्यो धर्मेण न यदृच्छया।
दुष्टानां निग्रहो दण्डो हिरण्यं बाह्यत: क्रिया॥
अत: धर्म के अनुसार न्याय-अन्याय का विचार करके ही दण्ड का विधान करना चाहिए, मनमानी नहीं करनी चाहिए। दुष्टों का दमन करना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य है, स्वर्णमुद्राएं लेकर खजाना भरना नहीं। दण्ड के तौर पर सुवर्ण (धन) लेना तो बाह्यंग-गौण कर्म है।
व्यङ्गत्वं व शरीरस्य वधो नाल्पस्य कारणात्। शरीरपीडास्तास्ताश्च देहत्यागो विवासनम्॥
किसी छोटे-से अपराध पर प्रजा का अंग-भंग करना, उसे मार डालना, उसे तरह-तरह की यातनाएं देना तथा उसको देहत्याग के लिए विवश करना अथवा देश निकाला देना कदापि उचित नहीं है।
तं ददौ सूर्यपुत्रस्तु मनुर्वै रक्षणार्थकम्
आनुपूर्व्याच्च दण्डोऽयं प्रजा जागर्ति पालयन्॥
सूर्यपुत्र मनु ने प्रजा की रक्षा के लिए ही अपने पुत्रों के हाथों में दण्ड सौंपा था, वही क्रमश: उत्तरोत्तर अधिकारियों के हाथ में आकर प्रजा का पालन करता हुआ जागता रहता है।
इन्द्र्रो जागर्ति भगवानिन्द्र्रादग्निर्विभावसु:।
अग्नेर्जागर्ति वरुणो वरुणाच्च प्रजापति:॥
जिन्हें सेंगोल के धार्मिक संदर्भों से दिक्कत है, उनकी बीमारी का इलाज तो क्या होगा, पर वे अपने देश की मिट्टी पर पसीना बहाने वाले किसान के चेहरे को ही याद कर लें, इसके बहाने। वैसे संविधान की मूल प्रति पर जब सारे धार्मिक चिन्ह और चित्र लगाये जा रहे थे, तब ये सारी चिन्ताएं कहां गायब हो गयी थीं?
भगवान् इन्द्र दण्ड-विधान करने में सदा जागरूक रहते हैं। इन्द्र्र से प्रकाशमान अग्नि, अग्नि से वरुण और वरुण से प्रजापति उस दण्ड को प्राप्त करके उसके यथोचित प्रयोग के लिए सदा जाग्रत रहते हैं।
प्रजापतेस्ततो धर्मो जागर्ति विनयात्मकृ:।
धर्माच्च ब्रह्मण: पुत्रो व्यवसाय: सनातन:॥
जो सम्पूर्ण जगत को शिक्षा देने वाले हैं, वे प्रजापति से दण्ड को ग्रहण करके प्रजा की रक्षा के लिए सदा जागरूक रहते हैं। ब्रह्मपुत्र सनातन व्यवसाय वह दण्ड धर्म से लेकर लोकरक्षा के लिए जागते रहते हैं।
व्यवसायात् ततस्तेजो जागर्ति परिपालयत्।
ओषध्यस्तेजसस्तस्मादोषधीभ्यश्च पर्वता:॥
पर्वतेभ्यश्च जागर्ति रसो रसगुणात् तथा।
जागर्ति निरृतिदेर्वी ज्योतींषि निर्ऋतेरपि॥
व्यवसाय से दण्ड लेकर तेज जगत की रक्षा करता हुआ सजग रहता है। तेज से औषधियां, औषधियों से पर्वत, पर्वतों से रस, रस से निर्ऋति और निर्ऋति से ज्योतियां क्रमश: उस दण्ड को हस्तगत करके लोक-रक्षा के लिए जागरूक बनी रहती हैं।
वेदा: प्रतिष्ठा ज्योतिर्थ्यस्ततो हयशिरा: प्रभु:।
ब्रह्मा पितामहस्तस्माज्जागर्ति प्रभुरव्यय:॥
ज्योतियों से दण्ड ग्रहण करके वेद प्रतिष्ठित हुए हैं। वेदों से भगवान् हयग्रीव और हयग्रीव से अविनाशी प्रभु ब्रह्मा वह दण्ड पाकर लोक-रक्षा के लिए जागते रहते हैं।
पितामहान्महादेवो जागर्ति भगवान् शिव:।
विश्वेदेवा: शिवाच्चापि विश्वेभ्यश्च तथर्षय:॥
ऋषिभ्यो भगवान् सोम: सोमाद् देवा: सनातना:।
देवेभ्यो ब्राह्मणा लोके जाग्रतीत्युपधारय॥
पितामह ब्रह्मा से दण्ड और रक्षा का अधिकार पाकर महान देव भगवान् शिव जागते हैं। शिव से विश्वेदेव, विश्वेदेवों से ऋषि, ऋषियों से भगवान् सोम, सोम से सनातन देवगण और देवताओं से ब्राह्मण वह अधिकार लेकर लोक-रक्षा के लिए सदा जाग्रत रहते हैं। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो।
प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति
तासु च।
सर्वं संक्षिपते दण्ड: पितामहसमप्रभ:॥
इस लोक में प्रजा जागती है और प्रजाओं में दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजी के समान तेजस्वी दण्ड सबको मर्यादा के भीतर
रखता है।
जागर्ति काल: पूर्वं च मध्ये चान्ते च भारत।
ईश्वर: सर्वलोकस्य महादेव: प्रजापति:॥
भारत! यह कालरूप दण्ड सृष्टि के आदि में, मध्य में और अन्त में भी जागता रहता है। यह सर्व-लोकेश्वर महादेव का स्वरूप है। यही समस्त प्रजाओं का पालक है।
दंड की अंतरणीयता
तो दंड की ‘ट्रांसफरिबिलिटी’-अंतरणीयता ही तो लोकतंत्र की खूबी है। यह भान रहना कि- तुझसे पहले भी जो यहां तख़्ते-नशीं था, उसको भी खुदा होने का इतना ही यकीं था। लेकिन उसी के साथ इस बात का लगातार अनुस्मरण कि वह एक महान परंपरा का अंग है और उसके निर्वाह की भी एक प्रतिश्रुति है।
जो बात महाभारत के इस दंड प्रसंग में खींचती है, वह है जागरूकता की। उस पर इतना बल कोई लक्ष्य किये बिना नहीं रह सकता। या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
और इस प्रजातंत्र के लिए यह बात कितनी प्रेरक है कि- प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन दण्डो जागर्ति तासु च। सर्वं संक्षिपते दण्ड: पितामहसमप्रभ:॥ कि इस लोक में प्रजा जागती है और प्रजाओं में दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजी के समान तेजस्वी दण्ड सबको मर्यादा के भीतर रखता है।
तो यह दंड राजधर्म को अनुशासन में रखने के लिए है। इसलिए पर्व का नाम राजधर्मानुशासन है। यहां दंडशक्ति प्रजा के पास भी है। तो यह परस्पर मर्यादाओं का, चेक एंड बैलेंस का खेल है। प्रजा की जागरूकता ही लोकतंत्र का मूल्य है। यह लोकतांत्रिकता, जो दंड की भारतीय अवधारणा में है, वह उस राजशाही से तत्वत: भिन्न है जो राजा को राजदंड (सेप्टर) धारण करवाती है, जैसे अभी किंग चार्ल्स को करवाया। उनका तो दंड ही बदलता रहता है। लेकिन वहां भी वह राजा की आध्यात्मिक भूमिका का प्रतीक है।
तमिल में सेंगोल
तिरुक्कुरल में सेनकोनमाई अध्याय में इस सेंगोल को कवि तिरुवल्लुवर ने विज्ञान और धार्मिकता, वेदों और उसमें वर्णित गुणों का आधार कहा है। वे सेंगोल के बारे में कहते हैं :
அந்தணர் நூற்கும் அறத்திற்கும் ஆதியாய்
நின்றது மன்னவன் கோல்.
कि विद्वान जो लिखते हैं और जिन गुणों को महत्त्व देते हैं, उन्हीं का मूल यह सेंगोल है। तिरुक्कुरल के अनुसार, यह संसार जैसे बारिश के लिए आकाश की ओर देखता है, वैसे ही लोग न्याय के लिए सेंगोल को
देखते हैं :
வானோக்கி வாழும் உலகெல்லாம் மன்னவன்
கோல்நோக்கி வாழுங் குடி.
इस प्रजातंत्र के लिए यह बात कितनी प्रेरक है कि- प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति तासु च। सर्वं संक्षिपते दण्ड: पितामहसमप्रभ:॥ कि इस लोक में प्रजा जागती है और प्रजाओं में दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजी के समान तेजस्वी दण्ड सबको मर्यादा के भीतर रखता है।
राजा एवं धर्म के संवाद का प्रतीक
सेंगोल राजा और धर्म के बीच संवाद का प्रतीक है। सेंगोल में सबसे ऊपर एक वृषभ है। कामायनी के आनंद सर्ग में जयशंकर प्रसाद जी ने वृषभ को धर्म का प्रतिनिधि कहा था तो वह उसी शास्त्रीय दृष्टि की आधारभूमि से कहा था। धर्म साक्षी है और निरन्तर शासक को सेंगोल देख रहा है। सेंगोल आग्रह है, संग्रह नहीं। यह शासन की शिवता की ओर धर्म-दृष्टि है और यह किसी पंथ विशेष की बात नहीं है, जिनसेनाचार्य ने आदि पुराण में वृषभ को याद किया। उन्हें आदिनाथ भी कहा गया।
ऋग्वेद में कहा गया : अनर्वाण वृषभमन्द्र्रजित बृहस्पति वर्ध या नव्यमर्के (1/19 (यह भी कि: ‘एक देवे वृषभो युक्त आरती दवावची स्सारथिरस्व केशी:’ यह भी कि ‘दिवक्षा असि वृषभ सत्य शुष्मोऽस्मभ्यं सु मधवन्योधि गोदा :’, यह भी कि ‘त्वं रथ प्रभरो यो धमृध्वभावो युध्यन्तं वृषभ दशयम्’, यह भी कि ‘एबारे वृषभासुर्तडसिन्सूर्या वय:, और यह भी कि ‘प्राग्नये वाचमीरय वृषभाय क्षितीनाम्’, यह भी कि ‘वृषभो युम्नवां असिसम्ध्वरेस्थिध्यसे’ और ‘मसत्ववन्तं वृषभ वाव धानमकवारि दिव्य शासमिन्द्रम्।)
शिवपुराण वृषभ को एक जननेता बताता है, चौंसठ करोड़ का। यानी गणतंत्र का प्रतीक है, बौद्धधर्म में वृषभ सबसे बड़े क्रिया तंत्रों में माना जाता है। संस्कृत में वृषभ अपनी कक्षा का सर्वश्रेष्ठ या प्रतिष्ठित कुछ हो – नरवृषभ, द्विजवृषभ आदि कहलाता है यानी वृषभ सर्वोत्कृष्टता का प्रतीक है – किं नास्ति त्वयि सत्यमात्य वृषभे यस्मिन् करोमि स्पृहाम्! शक्ति और स्थायित्व का प्रतीक तो वह है ही, सेंगोल का मंगलवृषभ कल्याणमूलक है, स्वस्तिमूलक है। किसी ने वृषभ के बारे में यह भी कहा कि -वाहनं पशुनाथस्य कृषकस्य प्रिय: सखा। निष्कामकर्मयोगी स: क्षेत्रं कर्षति आजन्म॥
किसे है दिक्कत
तो किसानों के इस संगी से बैर करने वाले कौन हैं? इसमें आया क्षेत्र शब्द तो गीता के संदर्भ में कुछ और बड़ी आस्तित्विक यादें कराता है, पर यहां खेत ही समझ लें।
तो दिक्कत जिन्हें इसके धार्मिक संदर्भों से है, उनकी बीमारी का इलाज तो क्या होगा, पर वे अपने देश की मिट्टी पर पसीना बहाने वाले किसान के चेहरे को ही याद कर लें, इसके बहाने। वैसे संविधान की मूल प्रति पर जब सारे धार्मिक चिन्ह और चित्र लगाये जा रहे थे, तब ये सारी चिन्ताएं कहां गायब हो गयी थीं?
ओह वह भी नहीं, एक लोकतंत्र में राजदंड कैसे हो सकता है? अरे इसीलिए तो महाभारत का वह हिस्सा ऊपर उद्धृत किया है। राज का मतलब शासन। राजा नहीं। राजदंड है यह। राजादंड नहीं।
लेकिन प्रयोग तो इसका चोल राजाओं के समय हुआ?
यूं तो अशोक चक्र भी राजा का ही था। उस पर आपत्ति क्यों न हुई? अकबर, बाबर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान, कर्जन, कार्नवालिस, डलहौजी पर कसीदे काढ़ने वाले उनके राजा होने से तो विचलित नहीं हुए, चोलों से क्यों होना? और चोल राज्य तो प्रशासनिक विकेंद्रीकरण का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण था- यह बात तो इन आपत्तिकर्ताओं को खाद पानी देने वाली रोमिला थापर तक स्वीकारती हैं।
मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग के अपर मुख्य सचिव रहे हैं
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