मुकुंद बिहारी
पर्यावरण- प्रदूषण का दैत्य पृथ्वी पर जल-थल-आकाश चहुंओर अट्टाहास करता हुआ, दनदनाता हुआ निर्बाध विचरण कर रहा है। इससे ब्रह्मांड में अब तक ज्ञात एकमात्र जीवन-युक्त ग्रह पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है। वायु प्रदूषण की तपिश अनुभव कर विकसित एवं सक्षम देशों ने जलवायु परिवर्तन के विनाशक प्रभावों को पहचानते हुए 1972 के स्टॉकहोम सम्मेलन से प्रयत्न प्रारंभ किए जो कि 1992 के यूएनएफसीसीसी द्वारा वार्षिक कॉप वार्ताओं के रूप में आगे बढ़े हैं।
यह भी इसलिए हुआ कि वे वायुमंडल को देशों की सीमाओं के अनुरूप विभक्त नहीं कर सके। अन्यथा भूमि और जल प्रदूषण की कारक आर्थिक क्रियाओं को कम विकसित देशों की भौगोलिक सीमाओं में स्थानांतरित कर इनसे जुड़े प्रदूषण को भी उन देशों की स्थानिक समस्या मान लिया गया है। परंतु यह भी विकसित देशों की भयंकर भूल है। आज के वैश्विक परिवेश में पृथ्वी के किसी भी हिस्से में उत्पन्न प्रदूषण के विनाशकारी दुष्प्रभाव पूरी दुनिया में सभी देशों में कम,ज्यादा पहुंचते ही हैं।
हम वर्तमान में ‘ फुल-वर्ल्ड इकोनामी’ की अवस्था वाले युग में जी रहे हैं, जहां छह-सात दशक पूर्व की तरह उच्च उपभोग वाले छोटे वर्ग के द्वारा उत्पन्न कचरे या प्रदूषण को किसी बड़े ‘एंप्टी-वर्ल्ड’ में खपा कर निष्प्रभावी किया जाना, अब संभव नहीं है। वर्तमान बाजार आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था में विश्व जनसंख्या का बड़ा हिस्सा कथित विकसित देशों की उच्च उपभोग जीवन शैली को अपना चुका है तथा इससे निसृत कचरा या प्रदूषण को अहानिकर रूप से निपटाने की पृथ्वी की क्षमता कम पड़ गई है।
‘ द ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क’ ने दर्शाया है कि पृथ्वी की मनुष्य प्रजाति का भौतिक उपभोग स्तर वर्ष 2014 में ही पृथ्वी की पुनरूत्पादन /कचरा-संसाधन क्षमता से डेढ़ गुना हो गया था। इसमें निरंतर वृद्धि जारी है जो कि पृथ्वी पर विनाश को आमंत्रित कर रहा है।
प्रकट रूप से वैश्विक कुप्रभाव दिखाने वाले वायु प्रदूषण से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन के खतरे की रोकथाम के लिए वर्ष 1992 से ही आयोजित की जा रही ‘ कॉप ‘ वार्ताओं में प्रमुख औद्योगिक राष्ट्र वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने एवं घटाने के लिए पिछले तीन दशकों से प्रयत्नरत हैं। परंतु ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ (1997) से लेकर ‘ पेरिस एग्रीमेंट’ (2015) तक के सभी उपाय इसलिए विफल हो रहे हैं कि संसाधनों का एकतरफा रूप से सर्वाधिक उपयोग करने वाले विकसित राष्ट्र अपने प्रति व्यक्ति भौतिक उपभोग को कम करना तो दूर एक स्तर पर स्थिर भी नहीं करना चाहते या कर पाने में अक्षम, असहाय हो रहे हैं।
इसका मूल कारण है बाजार को अनियंत्रित रखना।’ मांग और पूर्ति’ के सिद्धांत पर आधारित बाजार की ताकतों के अदृश्य हाथों द्वारा स्वतंत्र प्रतियोगिता से उत्पादन में कुशलता लाने एवं ग्राहकों के हितों की पूर्ति की आदर्श बातें इसलिए बेमानी हो रही हैं कि वृहत परिदृश्य में बाजार के ताकतवर अदृश्य हाथों की डोर शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा संचालित होती है। अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मार्केट-कैप या नेटवर्थ ही विश्व के अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्थाओं के आकार से भी बड़ी है।
सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की प्रथम एवं मूलभूत प्राथमिकता अपनी कंपनी की बिक्री को अधिकाधिक बढ़ाने की होती है तथा इसके लिए उच्च वेतन पर दुनिया भर से तीव्र बुद्धि-कौशल वाले मैनेजर भर्ती किए जाते हैं। यह मैनेजमेंट अपने-अपने कंपनियों की बिक्री बढ़ाने हेतु दिन-रात प्रयासरत रहते हैं। इसके लिए वैश्विक बाजार में भौतिक वस्तुओं की मांग में निरंतर वृद्धि आवश्यक है।
इस हेतु मनुष्य की आवश्यकता आधारित भौतिक उपभोग की सीमाओं को तोड़ते हुए व्यक्तिगत उपभोग स्तर को बढ़ाने हेतु विज्ञापन आदि विभिन्न जटिल एवं कुटिल उपायों का सहारा यह कंपनियां लेती हैं ताकि बाजार में भौतिक वस्तुओं की मांग स्थिर अथवा कम ना हो बल्कि बढ़ती रहे।
फलतः प्रदूषण नियंत्रण की प्रथम एवं आवश्यक शर्त, भौतिक उपभोग स्तर में कमी कर पाना संभव नहीं होता। यह सर्वशक्तिशाली हो गए बाजार की संचालक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निहित हितों के विरुद्ध है। फिर मानव प्रजाति और पृथ्वी पर आए इस आसन्न संकट को कैसे टाला जाए?
पर्यावरण प्रदूषण की इस भयंकर समस्या का निदान क्या है और कैसे हो?
मनुष्य समाज द्वारा सृजित प्रदूषण की इस भयंकर समस्या के कारण और इसके निदान दोनों मनुष्यों की ही मानसिकता और जीवन शैली पर निर्भर हैं। आज दुनिया भर के विभिन्न विचारक एवं नीति-नियंता अनियंत्रित बाजार आधारित अर्थव्यवस्था को विकास एवं शांति के लिए अत्यावश्यक मानते हैं। वे भौतिक उपभोग आधारित आर्थिक वृद्धि दर को ही विकास का सूचक मानने की भयंकर भूल कर रहे हैं।
मनुष्य शरीर के सभी अंगों की संतुलित वृद्धि ही स्वस्थ शरीर के विकास की प्रथम शर्त है और किसी अंग विशेष की असंतुलित वृद्धि कैंसर जैसे भयंकर रोग का कारण बनती है जो संपूर्ण शरीर या जीवन के अस्तित्व को ही खत्म कर देती है। उसी प्रकार मनुष्य समाज द्वारा निर्मित बाजार सहित विभिन्न सामाजिक संस्थाओं के स्वायत्त, परस्पर संतुलनकारी सांगोपांग विकास की बजाए सिर्फ बाजार की जरूरत,भौतिक उपभोग वृद्धि, को ही विकास का पर्याय मान कर बढ़ावा देने वाली आर्थिक वृद्धि की मानसिकता ही पर्यावरण-प्रदूषण का कैंसर उत्पन्न करने और बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है।
सच्चा आर्थिक विकास तो बाजार सहित सभी सामाजिक संस्थाओं के समग्रता में गुणात्मक विकास से ही संभव है। अनावश्यक भौतिक उपभोग बढ़ाने वाली तीव्र आर्थिक वृद्धि विकास नहीं अपितु विनाश का कारक है; इसी से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई है।
इस के निदान हेतु तार्किक रूप से मानसिकता-परिवर्तन की आवश्यकता है।मनुष्य का व्यवहार उसकी आवश्यकता पूर्ति की इच्छा से प्रेरित होता है। शारीरिक और सुरक्षा से जुड़ी मूलभूत आवश्यकताएं मनुष्य और सभी प्राणियों में कमोबेश समान रूप से पाई जाती है।
परंतु मनुष्य सिर्फ शारीरिक इकाई नहीं है। भारतीय ‘एकात्म-दर्शन’ के अनुसार मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा युक्त समेकित इकाई है। मनुष्य की भौतिक उपभोग से जुड़ी शारीरिक मूलभूत न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो जाने के बाद क्रमशः मन की परिवार, मित्र, रिश्ते-नाते आदि से जुड़ाव की भावनात्मक आवश्यकताएं उसके व्यवहार को प्रेरित करेगी। फिर मनुष्य सभी प्राणियों से भिन्न बुद्धि की प्रेरणा से तार्किक रूप से सामाजिक संस्थाएं बनाकर उसमें विभिन्न भूमिकाएं तय करता है । वह सामाजिक विकास के साथ आत्मा की संतुष्टि के लिए आध्यात्मिक विकास हेतु भी प्रेरित होता है। इसीलिए मनुष्य बिना किसी भौतिक प्राप्ति की आकांक्षा के सामाजिक संस्थाओं में योगदान देते हुए अपनी आय का बड़ा हिस्सा खर्च करता है जो बाजार की परिधि से बाहर है। परंतु बाजार मनुष्यों की आय का अधिकाधिक हिस्सा भौतिक उपभोग की तरफ मोड़ कर ही निरंतर वृद्धि कर सकता है। अतः बाजार के निहित स्वार्थ समाज की अन्य संस्थाओं के हितों से टकराते हैं। सर्व शक्तिशाली अनियंत्रित बाजार के प्रभाव से निर्मित वातावरण में मनुष्य भावनात्मक, तार्किक और आध्यात्मिक आवश्यकताओ की अनुभूति की तुलना में भौतिक उपभोग की अनियंत्रित बढ़ती हुई इच्छाओं के वशीभूत होकर ज्यादा स्वार्थी और सामाजिक रूप से कम जिम्मेदार होता जा रहा है। इससे सामाजिक संस्थाओं और ताने-बाने का ध्वंस होकर अराजकता पूर्ण स्थितियां निर्मित होने का खतरा बढ़ रहा है। इसी मानसिकता से प्रेरित भौतिक उपभोग में निरंतर वृद्धि विनाशकारी पर्यावरण-प्रदूषण को भी बढ़ा रही है।
इस समस्या का निदान भारतीय ‘ एकात्म-दर्शन’ को अपनाकर परिस्थितियों एवं बाजार सहित सामाजिक संस्थाओं के कार्यकरण को समग्रता में देखने तथा बाजार-प्रेरित मानसिकता से मुक्त होकर बाजार को नियंत्रित और नियमित करने में निहित है। इसके लिए प्रभावशाली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना अति-आवश्यक है। इस दिशा में गंभीर प्रयत्नों से ही विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की सार्थकता सिद्ध होगी।
(लेखक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवम लोक नीति विशेषज्ञ हैं)
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