शिवाजी ने अल्पायु में पूना की जागीर क्षेत्र में शासन प्रबंधक के रूप में पहला राजनीतिक अनुभव प्राप्त किया। धीरे-धीरे उन्होंने अपने कौशल से विजय अभियान किए और राज्य क्षेत्र का विस्तार करते गये। अपने अधीन किये गये संपूर्ण क्षेत्र को वे ‘मराठा-स्वराज्य’ कहते थे, कालांतर मे इसे ही हिन्दवी स्वराज कहा गया।
आजादी के अमृत काल में इतिहास के महान व्यक्तित्व छत्रपति शिवाजी राजे की पावन स्मृति सुखद अनुभूति देती है। शिवाजी ने माता जीजाबाई से जीवन का अनुशासन, दादा कोण्डदेव से राजनीतिक कुशलता और गुरु समर्थ रामदासजी से राजधर्म का पाठ सीखा। शिवाजी ने मुस्लिम सरदारों और सुल्तानों द्वारा आम जन पर ढाए गये जुल्मों को स्वयं अपनी आंखों से देखा था। अत्याचारी शासन के इस वातावरण में शिवाजी राजे ने आमजन को साथ लेकर एक नयी शासन व्यवस्था का स्वरूप प्रस्तुत किया और वह था लोकशाही शासन व्यवस्था।
शिवाजी ने अल्पायु में पूना की जागीर क्षेत्र में शासन प्रबंधक के रूप में पहला राजनीतिक अनुभव प्राप्त किया। धीरे-धीरे उन्होंने अपने कौशल से विजय अभियान किए और राज्य क्षेत्र का विस्तार करते गये। अपने अधीन किये गये संपूर्ण क्षेत्र को वे ‘मराठा-स्वराज्य’ कहते थे, कालांतर मे इसे ही हिन्दवी स्वराज कहा गया।
शिवाजी का राज्य क्षेत्र
शिवाजी का राज्य लगभग 4 सौ मील क्षेत्रफल में विस्तारित था। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से संपूर्ण क्षेत्र को प्रांत, परगना, तरफ, मौजा और ग्राम नामक इकाइयों में बांटा गया था।
उत्तरी प्रांत में – डांग बगलाना, कोली प्रदेश, दक्षिणी सूरत, कोंकण, उत्तरी मुंबई और पुणे की ओर का दक्षिणी पठार शामिल था। दक्षिणी प्रांत में – कोंकण, दक्षिणी मुंबई सावंतवाड़ी, उत्तरी कनारा का समुद्र तट सम्मिलित था।
दक्षिणी पूर्वी प्रांत में – दक्षिणी पठार के सतारा कोल्हापुर के जिले और कर्नाटक में तुंगभद्रा के पश्चिम में बेलगांव, धारवाड़ और कोपल जिले थे। चौथा प्रांत, जिन्हें हाल ही में जीता था, उसमें तुंगभद्रा की दूसरी ओर कोपल से वेल्लूर और जिंजी अर्थात वर्तमान मैसूर राज्य का उत्तरी, मध्यवर्ती और पूर्वी भाग, बेलारी के मद्रासी जिले चित्तूर और अर्काट सम्मिलित थे। इसके अलावा शिवाजी ने कनारा का पहाड़ी प्रदेश दक्षिणी धारवाड़ जिला और सोंधा तथा बदनौर राज्यों को भी लगभग जीत लिया था।
प्रशासनिक व्यवस्था
इतने बड़े भूभाग की शासन व्यवस्था को सुचारु ढंग से संचालित करने के लिए एक प्रशासनिक व्यवस्था का गठन किया गया था। छत्रपति शिवाजी इस व्यवस्था के सर्वेसर्वा थे, समस्त शक्तियों का केंद्र बिंदु थे। शिवाजी ईश्वर और भगवा ध्वज को साक्षी मानकर शासन करते थे। शासन प्रबंध में सहायता देने के लिए 8 मंत्रियों की एक परामर्श दात्री परिषद थी, जो केवल शिवाजी के प्रति उत्तरदायी थी। 8 मंत्रियों की परिषद को अष्टप्रधान कहा जाता था। अष्टप्रधान में ये आठ पदाधिकारी शामिल थे।
1- पेशवा- छत्रपति की अनुपस्थिति में राज्य के सभी मामलों की देखभाल करना इसका प्रमुख दायित्व था।
2- अमात्य/मजुमदार/आडिटर – संपूर्ण राज्य की आय-व्यय के लेखों की जांच करना।
3- मंत्री या वाकयानवीस – राजा के दैनिक कार्यों को लिपिबद्ध करना।
4- सचिव या शुरू नवीन – इसका कार्य राजकीय पत्रों को पढ़कर उसकी भाषा शैली को देखना और परगनों के हिसाब की जांच करना था।
5- सुमंत या दबीर या विदेश मंत्री – इसका कार्य वैदेशिक संबंध रखने वाले मसलों पर छत्रपति को परामर्श देना, विदेशी राजदूत और प्रतिनिधियों की देखरेख करना तथा गुप्तचरों से खबरें मंगवाना।
6- सरे-नौबत या सेनापति – इसका कार्य सेना की भर्ती करना, सेना में संगठन और अनुशासन को बनाए रखना, युद्ध क्षेत्र में सेना की तैनाती करना था।
7- पंडितराव/दानाध्यक्ष/सदर मुहतसिब- इसका मुख्य कार्य धार्मिक कृत्यों को संपन्न कराना, धर्म भ्रष्ट व्यक्ति को दंड देना, दान पुण्य करना एवं प्रजा को सदाचरण के लिए प्रोत्साहित करना था।
8- न्यायाधीश – यह राज्य का सबसे बड़ा न्यायाधीश था। इसका मुख्य कार्य सैनिक और असैनिक मामलों में तथा भूमि अधिकार और गांव के मुखिया के संबंध में निर्णयों पर अमल कराना था।
शिवाजी ने किसानों और राजा के बीच बिचौलियों को नहीं रखा। उन्होंने किसानों को नियमित रूप से बीज-पशु खरीदने के लिए ऋण की सुविधा दी और आसान किस्तों में लौटाने का विकल्प दिया। फसल खराब होने पर पूरी संवेदनशीलता के साथ अनुदान भी देते थे। उन्होंने पानी और पर्यावरण के महत्व को समझते हुए तालाब खुदवाए बांध बनवाए, पेड़ काटने पर सख्त पाबंदी लगवाई। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि शिवाजी का शासन लोककेंद्रित था और वे सही मायने में लोकशाही के श्री छत्रपति थे।
शिवाजी का स्वत्व बोध
शिवाजी के राज्य को यूं ही स्वराज्य नहीं कहा जाता, उनकी शासन प्रणाली में स्वत्व चेतना का स्पष्ट पुट नजर आता है। वे स्वत्व-भाव से प्रेरित थे। उन्होंने राजभाषा के रूप में पूर्व प्रचलित फारसी के स्थान पर मराठी और संस्कृत को अपनाया। शिवाजी ने अपने किलों के नाम संस्कृत में रखे जैसे- सिंधुदुर्ग, प्रचंडगढ़। उनके 1639 के एक पत्र, जिस पर संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि में राज मुद्रा (रॉयल सील) प्राप्त हुई है, में लिखा है-
‘प्रतिप्रच्चंद्रलेखे वर्धिष्णुर्विश्ववंदिता शाहसुनो: शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते’
अर्थात
‘जिस प्रकार बाल चंद्रमा प्रति पद (धीरे- धीरे) बढ़ता जाता है और समस्त विश्व द्वारा वंदनीय होता है, उसी प्रकार शाह जी के पुत्र शिव की यह मुद्रा भी बढ़ती जाएगी।’
रामचंद्र नीलकंठ बावडेकर
रामचंद्र पंत ने शिवाजी के अष्टप्रधान में 1674 से 1680 तक अमात्य (वित्त मंत्री) के रूप में अपनी सेवाएं दीं। पंत ने शिवाजी के बाद के चार छत्रपतियों को भी अपनी सेवाएं दीं। उन्होंने ‘आज्ञापत्र’ का लेखन किया जो नागरिक एवं सैन्य प्रशासन की प्रसिद्ध संहिता है। रामचंद्र अमात्य मराठा साम्राज्य के सबसे महान नागरिक प्रशासक, राजनय और सैन्य रणनीतिकारों में से एक थे।
हंबीरराव मोहिते
प्रतापराव गुर्जर की मृत्यु के बाद हंबीरराव मोहिते शिवाजी के सरसेनापति नियुक्त हुए। कर्नाटक के कोप्पल राज्य में जनता पर अत्याचार करने वाले आदिलशाह के दो सेनापतियों अब्दुल रहीम खां और हुसैन मियां पर हमला बोल हंबीरराव ने रहीम मार दिया गया और हुसैन बंदी बना लिया गया। शिवाजी के सौतेले भाई वेंकोजी से युद्ध में भी हंबीरराव के पराक्रम से शिवाजी की सेना ने जीत प्राप्त की।
लोकशाही के प्रबल पोषक
शिवाजी हिंदू शासक थे लेकिन वह औरंगजेब की तरह कट्टर और धर्मांध नहीं थे, वह धर्मनिष्ठ और धर्म सहिष्णु शासक थे। शासक के रूप में शिवाजी की दृष्टि, सोच और कार्य संस्कृति लोकतांत्रिक थी, उन्होंने हिन्दुओं के समान ही सरकारी नियुक्तियों में बिना किसी भेदभाव के मुसलमानों को भी सेना, नौसेना में विश्वसनीय पदों पर नियुक्ति दी। वे सभी प्रजाजनों को एक नजर से देखते थे। उनका पालन, रक्षण और संवर्धन करना, अपना परम दायित्व समझते थे।
महिलाएं स्वयं को सुरक्षित महसूस करती थीं। शिवाजी व्यक्तिगत रूप से हिंदू धर्म का पालन करते थे लेकिन अपने राज्य में निवास करने वाले हिंदू -मुस्लिम सभी के प्रति प्रजा वत्सल का भाव रखते थे। शिवाजी की नीतियां किसानों के प्रति उदार और संवेदनशील थी उन्होने भूमि की पैमाइश करवाई और लगान कुल पैदावार का 40% सुनिश्चित किया जबकि मुगलिया सल्तनत में लगान इससे ज्यादा था।
शिवाजी ने किसानों और राजा के बीच बिचौलियों को नहीं रखा। उन्होंने किसानों को नियमित रूप से बीज-पशु खरीदने के लिए ऋण की सुविधा दी और आसान किस्तों में लौटाने का विकल्प दिया। फसल खराब होने पर पूरी संवेदनशीलता के साथ अनुदान भी देते थे। उन्होंने पानी और पर्यावरण के महत्व को समझते हुए तालाब खुदवाए बांध बनवाए, पेड़ काटने पर सख्त पाबंदी लगवाई। निष्कर्षत: कह सकते हैं कि शिवाजी का शासन लोककेंद्रित था और वे सही मायने में लोकशाही के श्री छत्रपति थे।
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