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होम सम्पादकीय

गड़े मुर्दे तो बोलेंगे ही

भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय माना जाता रहा

by हितेश शंकर
Apr 4, 2023, 04:10 pm IST
in सम्पादकीय
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वास्तव में देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों में जो परिवर्तन आया है, अगर देश का कोई भी संस्थान उससे अनभिज्ञ रहेगा, तो वह अप्रासंगिक होता जाएगा। परिवर्तन यह है कि देश 1947 में मिली स्वतंत्रता से आगे बढ़कर अब अपने वास्तविक ‘स्व’ की तलाश करने लगा है

विलंब से दिया गया न्याय अन्याय होता है, लेकिन जब सिर्फ अन्याय को बनाए रखने के लिए न्याय की प्रक्रिया चल रही हो तो क्या कहा जाए? चारा घोटाले वाले राजनेता को औपचारिक तौर पर भले ही 32 वर्ष से अधिक की सजा सुनाई जा चुकी हो, लेकिन वे शायद कुछ ही महीने जेल में नजर आए हैं। क्यों? यह किसकी अवमानना है? अदालत की, कानून की या नीयत की?

अंतुले प्रकरण को भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय माना जाता रहा है, लेकिन चारा घोटाले में सुनाए गए फैसले और दिए गए न्याय में भारी भेद अंतुले प्रकरण को भी मात देता है। लालू प्रसाद यादव ने अपनी सजा के खिलाफ अपील की और पिछले एक दशक से उन अपीलों पर मामला ‘विचाराधीन’ ही है। यह न्याय में विलंब का नहीं, विलंब की आड़ में न्याय को अन्याय में परिवर्तित करने का प्रकरण है।

चारा घोटाले को सामने लाने के लिए, जांच एजेंसियों को कितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था? उसे अदालत में साबित करने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ा? मूल अपराध कितना गंभीर था? यह सब सिर्फ यह दिलासा देता था कि कर्मों का फल अवश्य मिलता है और देर भले ही हो, अंधेर नहीं होता। लेकिन अदालतों में अपनाए गए रवैए से यह दिलासा तुरंत निराशा में बदल गई है।

यह स्थिति देश के बहुत सारे अन्य मामलों की भी है। अगर अन्याय को न्याय प्रक्रिया से ही संरक्षण मिलेगा, तो इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी? वास्तव में देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों में जो परिवर्तन आया है, अगर देश का कोई भी संस्थान उससे अनभिज्ञ रहेगा, तो वह अप्रासंगिक होता जाएगा। परिवर्तन यह है कि देश 1947 में मिली स्वतंत्रता से आगे बढ़कर अब अपने वास्तविक ‘स्व’ की तलाश करने लगा है, अपनी जड़ों की ओर लौटने लगा है, अपना आत्मविश्वास प्राप्त करने लगा है। ऐसे में अब उन मान्यताओं-उदाहरणों का कोई महत्व नहीं है, जिनकी जड़ें औपनिवेशिकता में हों।

यह किसी मीमांसा या विचारधारा का प्रश्न नहीं है। संस्थानों को प्रासंगिक बने रहने के लिए परिवर्तनों के साथ तालमेल तो बिठाना ही होगा। क्या न्यायपालिका इसमें पर्याप्त संवेदनशील दिखी है? क्या वह इस कसौटी पर खरी उतरी है कि न्याय होना ही नहीं बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए? उदाहरण के लिए 71 लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार रहे जयपुर बम विस्फोटों के सभी आरोपियों को एक झटके में रिहा कर देने का आदेश दे देना या हेट स्पीच के मामलों में दोहरे मानदंड अपनाना। अगर आपको यह नजर आ रहा है कि हिंदू उन्माद बढ़ रहा है, तो इस पर विचार करना चाहिए कि आपको ऐसा क्यों नजर आ रहा है और फिर भी अगर ऐसा ही है, तो उसका कारण क्या है।

जब देश की सर्वोच्च अदालत में यह मुद्दा रखा गया कि डीएमके के एक नेता ने कहा है कि समानता प्राप्ति के लिए ब्राह्मणों की हत्या करनी चाहिए, तो उस पर एक न्यायाधीश मुस्करा दिए। फिर उसके बाद सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यह मुस्कराने की बात नहीं है, तो उन्हें पेरियार का नाम सुना दिया गया। फिर उन्होंने केरल का संदर्भ दिया जिसमें एक बच्चे को बुलाकर नारे लगवाए गए थे कि हिंदुओं और ईसाइयों का हिसाब बराबर किया जाएगा। इस पर जज ने कहा कि यह दूसरा विषय है। आशय यह कि हम गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ेंगे।

लेकिन अगर किसी को मार कर गाड़ा ही गया है, तो यह कहना भी अन्याय को संरक्षण देना ही है कि हम गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ेंगे। इतिहास सारे गड़े मुर्दे उखाड़ देता है। उखाड़ ही रहा है।
@hiteshshankar

Topics: तुषार मेहताGade Murde To Bolenge Hiन्यायअन्यायभारतीय न्यायपालिकासर्वोच्च अदालतचारा घोटालेहिंदू और ईसाईजयपुर बम विस्फोटIndian JudiciaryFodder ScamSupreme CourtHindus and ChristiansTushar MehtaJaipur Bomb Blast
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