माघ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि माघी या मौनी अमावस्या के नाम से जानी जाती है। ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार माघ मास की अमावस्या तिथि को जब भगवान सूर्य मकर राशि में चंद्रमा के साथ गोचर करते हैं तो ज्योतिष शास्त्र में उस ‘काल’ को मौनी अमावस्या की संज्ञा दी गयी है। हिन्दू पंचांग के अनुसार इस वर्ष मौनी अमावस्या का शुभ मुहूर्त 21 जनवरी शनिवार को सुबह 06 बजकर 17 मिनट से शुरू होकर 22 जनवरी को प्रातः 02 बजकर 22 मिनट तक रहेगा। इसलिए उदया तिथि के अनुसार मौनी अमावस्या 21 जनवरी को मनायी जाएगी। प्रयागराज के माघ मेले में मौनी अमावस्या को दूसरे शाही स्नान का आयोजन होता है जिसमें लाखों श्रद्धालु त्रिवेणी संगम में आस्था की डुबकी लगाते हैं।
पौराणिक मान्यता है कि इसी शुभ दिन सृष्टि के आदि पुरुष महाराज मनु का जन्म हुआ था। शास्त्रज्ञों का यह भी मानना है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने मनु महाराज तथा महारानी शतरूपा को प्रकट करके सृष्टि की शुरुआत की थी। यह भी कहा जाता है कि इसी दिन से द्वापर युग का शुभारंभ हुआ था। देश के जाने माने भागवत कथा वाचक देवकीनंदन ठाकुर कहते हैं कि शास्त्रों में इस बात के उल्लेख मिलते हैं कि जहां माघ की संक्रांति काल में देवगण प्रयाग के त्रिवेणी घाट पर आकर अदृश्य रूप से संगम में स्नान करते हैं, वहीं मौनी अमावस्या के दिन पितृगण संगम में स्नान करने आते हैं। इस दिन मौन व्रत रखकर किया गया गंगा स्नान व जप, तप, ध्यान व हवन पूजन कई गुना पुण्यफल देता है। इस कारण इस दिन मन, कर्म तथा वाणी से किसी के लिए भी अशुभ नहीं सोचना चाहिए। उनके मुताबिक इस दिन ‘’ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम: ‘’ तथा “ॐ नम: शिवाय ” मंत्र का मौन जप महान पुण्यफलदायी होता है।
सनातन धर्म-दर्शन में मौन साधना की महत्ता
हमारे सनातन धर्म-दर्शन में मौन साधना की बड़ी महत्ता बतायी गयी है। महर्षि पतंजलि ’’ योग सिद्धांत’’ में कहते हैं कि मौन साधना जीवन को संचालित करने का मूल मंत्र है। मौन हमारे चिंतन को विराट स्वरूप प्रदान करता है। मौन साधना से शरीर के मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक के षट्चक्र सहज ही प्रकृति से ऊर्जा संग्रह करने लगते हैं। मौन के द्वारा हम अपनी चित्तवृत्तियों को विचलित होने से बचा सकते हैं। सांसारिक झंझावतों से उपजने वाली मानसिक अशांति आत्मोकर्ष में बाधक होती है। इससे बचने के लिए मौन साधना एक अचूक उपाय है। ’’योग सिद्धांत’’ में मौन व्रत की दो श्रेणियां बतायी गयी हैं। पहला, वाणी का मौन और दूसरा मन का मौन। वाणी को वश में रखते हुए कम बोलना या नहीं बोलना बाहृय मौन की श्रेणी में आता है और मन को स्थिर रखना, बुरे विचार न लाना, आत्मतत्व में लीन होकर अध्यात्म विचार करना अंत: मौन की श्रेणी में।
हमारे ऋषियों-महर्षियों और संतों-मुनियों ने अंत: मौन को प्रमुखता दी थी और इसी के बलबूते वे मानवी चेतना के मर्मज्ञ बने थे। मौन को जीवन के मूल स्रोत के रूप में परिभाषित करने वाले पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार वाणी पर नियंत्रण से मन को अपूर्व शांति तथा मस्तिष्क को विश्राम मिलता है, क्रोध का शमन होता है तथा आत्मबल में वृद्धि होती है, इसलिए सनातन धर्म में मौन को महाव्रत की संज्ञा दी गयी है। शास्त्र कहते हैं –‘’मौन सर्वार्थ साधनम्’’ अर्थात मौन रहने से सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। इसके इतर जो वाणी पर संयम नहीं रखते, उनके अनावश्यक शब्द जंजाल उनकी अमूल्य प्राणशक्ति को व्यर्थ ही सोख डालते हैं। वे कहते हैं कि जैसा मन होगा, वैसा वचन और कर्म होगा। अनमने तरीके से किया गया कोई अनुष्ठान- विधान पूर्ण नहीं माना जा सकता। इसमें मन की शुद्धि बेहद जरूरी होती है और यह तभी पूरा होता है जब मन शांत, एकाग्र व मौन होता है।
कहते हैं कि महात्मा बुद्ध को जब बोद्ध प्राप्ति हुई तो वे सात दिनों तक मौन ही रहे। जब मौन समाप्त हुआ तो उनके शब्द थे, ‘’जो जानते हैं, वे मेरे कहे बिना भी जानते हैं और जो नहीं जानते, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे।‘’ बुद्ध जब भी बोले उनके मुख से निकले शब्दों ने मौन का सर्जन किया, इसीलिए तो वे मौन की प्रतिमूर्ति कहे जाते हैं। इसी तरह मौन को अपने जीवन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग मानने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की भी स्पष्ट मान्यता थी कि चुप रहने से व्यक्ति की मानसिक शक्ति बढ़ती है जो कार्यक्षमता और सूक्ष्मदर्शिता को कई गुना बढ़ा देती है। जानना दिलचस्प हो कि अब आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मौन के महत्व को प्रमाणित कर चुका है। जहां शोर उच्च रक्तचाप, सरदर्द और हृदयरोग इत्यादि देता है वहीं मौन इन सबके लिए औषधि का कार्य करता है। वैज्ञानिक शोधों से प्रमाणित हो चुका है कि एक व्यक्ति की शारीरिक रूप से आठ घंटे तक श्रम करने में जितनी ऊर्जा व्यय होती है, उतनी मात्र घंटा भर बोलने में खर्च हो जाती है।
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