लोक संस्कृति के विविध पक्षों को अपने में संजोये मकर संक्रान्ति का पर्व भारत की सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना को आध्यात्मिक भावना एवं साधना से जोड़ता है। वर्तमान क्षणों में यह संदेश युग-आह्वान भी है कि यदि प्राणवान संस्कृति प्रेमी संकल्पबद्ध होकर नदी संरक्षण व पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने की मुहिम में जुटेंगे तभी सौर-रश्मियों के क्रांतिकारी उत्कर्ष से भरे मंगल पर्व मकर संक्रान्ति का गौरव एवं गरिमा कायम रह सकेगी
सूर्यदेव सृष्टि में केवल प्रकाश ही नहीं फैलाते, वरन् एक नवजीवन-नई चेतना का भी संचार करते हैं। सूर्योदय के साथ ही मानव से लेकर सभी छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं के साथ ही वृक्ष-वनस्पतियों तक, सभी में चेतनात्मक स्पंदन होने लगता है। इसलिए वेदों में सूर्य को ‘विश्व की आत्मा’ कहा गया है।
सूर्य के इन्हीं महान उपकारों के प्रत्युत्तर में वैदिक युग में हमारे ऋषियों-मनीषियों ने सूर्य उपासना की जिस परम्परा का शुभारम्भ किया था, सदियों बाद भी वह आज तक कायम है। भारतीय मनीषी कहते हैं, ‘हम सबको सूर्य की, सविता की आराधना इसलिए भी करनी चाहिए कि वह हम सभी के समस्त शुभ व अशुभ कर्मों के प्रत्यक्ष साक्षी हैं, उनसे हमारा कोई भी कार्य-व्यवहार छिप नहीं सकता। वे समूची प्रकृति का केन्द्र हैं। हम धरतीवासियों को समस्त शक्तियां सूर्य से ही प्राप्त होती हैं। संसार का संपूर्ण भौतिक विकास सूर्य की सत्ता पर निर्भर है। जिस तरह आत्मा के बिना शरीर का कोई अस्तित्व नहीं होता, ठीक उसी तरह जगत की सत्ता सूर्य पर टिकी हुई है।’
एक बार वृहस्पति और मेष या वृष राशि का संक्रमण होता है; तो इस पर्व को अति विशिष्ट पुण्यकाल कुम्भ कहते हैं। इस अमृत वेला का महत्व अनन्त फलदायी है। वे बताते हैं कि हेमाद्रि संहिता के अनुसार इस सूर्य के इस मकर संक्रमण के आगे-पीछे की 15-15 घड़ियां अत्यन्त शुभ बताई गई हैं। स्कंद व मत्स्य पुराण में मकर संक्रान्ति के विशिष्ट मुहूर्त में गंगा स्नान, सूर्याध्यान व दान को अत्यधिक फलदायी बताया गया है।
यह भारतीय दृष्टि अब वैज्ञानिक प्रयोगों से साबित हो चुकी है। सूर्य के प्रकाश की उपयोगिता पर शोध करने वाले अमेरिका के मेसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के विद्वान डॉ. एनी जेन का कहना है कि जब से
से विमुख होकर भौतिकता के कृत्रिम परिवेश में ढलने लगा है, तभी से उसके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट आने लगी है। सूर्य अपने प्रकाश के माध्यम से मानव शरीर का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से पोषण करता है। प्रकृति की यह अद्भुत व्यवस्था है, जो किसी अन्य माध्यम से पूर्ण नहीं हो सकती। विश्व के सारे वैज्ञानिक आज ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य को ही मानते हैं।
आध्यात्मिक मनीषियों की मानें तो भौतिक लाभों से कहीं अधिक सशक्त और रहस्यमय है सूर्य का पारलौकिक व आध्यात्मिक पक्ष। सूर्योपासना से पवित्रता, प्रखरता, तेजस, वर्चस जैसी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं, ब्रह्माण्ड के रहस्य जाने जा सकते हैं, लोक-लोकान्तर के रहस्यों को प्रत्यक्ष किया जा सकता है। यह कोरी बात नहीं अपितु भारत के क्रांतिधर्मी ऋषियों का अनुभूत सत्य है। मकर संक्राति सूर्योपासना का ऐसा ही विशिष्ट वैदिक पर्व है। इस दिव्य मुहुर्त में की गई छोटी सी भावपूर्ण प्रार्थना हमारे भीतर गहराई तक दिव्य प्राण ऊर्जा का संचार कर देती है।
इस सनातन पर्व पर जन-मन के भीतर उमड़ने वाले सात्विक भाव न सिर्फ देश की सांस्कृतिक चेतना को परिपुष्ट करते हैं वरन् इस पर्व पर उठने वाली उल्लास एवं सात्विक भावनाओं की तरंगें राष्ट्र की सामाजिक संघबद्धता को भी मजबूती से सुदृढ़ करती हैं। मकर संक्रान्ति की मंगल वेला में संसार के प्राणदाता सूर्यदेव ज्यों ही दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करते हैं, समूची सृष्टि को ठिठुरन से मुक्ति का अहसास कराकर समूचे जनजीवन में नवस्फूर्ति का संचार कर देते हैं। पद्मपुराण में मकर संक्रान्ति के महत्व के बारे में कहा गया है कि जब दिवाकर मकरस्थ होते हैं, तब सभी समय, प्रत्येक दिन एवं सभी देश व स्थान शुभ हो जाते हैं। पितामह भीष्म की इच्छामृत्यु की घटना इस पर्व के महत्व को प्रतिपादित करती है।
सूर्यदेव के स्थान परिवर्तन अर्थात् दक्षिण दिशा से उत्तराभिमुख हो जाने की इस परिघटना को आध्यात्मिक व भौतिक दोनों ही दृष्टियों से विशेष लाभकारी माना गया है। भारतीय शास्त्राकारों के अनुसार सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में गमन को संक्रान्ति कहते हैं। सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में प्रवेश को मकर संक्रान्ति कहा गया है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार सूर्य के उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते जाने की अवधि को ‘‘दक्षिण आयन’’ तथा दक्षिण से उत्तर की ओर के यात्राकाल को ‘‘उत्तर आयन’’ कहते हैं। आयन से आशय गमन पथ से है।
वैदिक ज्योतिष के विशेषज्ञ आचार्य रामचंद्र शुक्ल बताते हैं कि वृत्त के 360 अंशों के समान पृथ्वी का परिक्रमा पथ भी 360 अंशों में विभाजित है। पृथ्वी के इस अण्डाकार परिक्रमा पथ को 30-30 अंशों के समूहों में 12 राशियों में विभक्त किया गया है। पृथ्वी की परिक्रमा करते समय 12 राशियों में से सूर्य जिस राशि में संक्रमण करता है यानी दिखाई देता है, वही सूर्य की राशि कही जाती है। इस संक्रान्ति पर्व पर सूर्य नौवीं राशि धनु से दशम राशि मकर में संक्रमण करता है।
आयुर्वेद के मर्मज्ञों का मानना है कि शीतकालीन ठण्डी हवा शरीर में अनेक व्याधियों को उत्पन्न करती है। इसीलिए इस पर्व पर तिल-गुड़, उड़द की दाल व देशी घी आदि गर्म तासीर के भोज्य पदार्थों के सेवन का विधान बनाया गया। चरक संहिता भी इस ऋतु में शीत के प्रकोप से बचने के लिए तिल-गुड़, उड़द, गन्ना सेवन की सलाह देती है।
यह तिथि प्रतिवर्ष प्राय: 14-15 जनवरी को पड़ती है। माघ की अमावस्या के दिन जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तो प्रयागराज में गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर गंगा स्नान विशेष पुण्य फलदायी होता है। फिर जब 12 वर्षों में एक बार वृहस्पति और मेष या वृष राशि का संक्रमण होता है; तो इस पर्व को अति विशिष्ट पुण्यकाल कुम्भ कहते हैं। इस अमृत वेला का महत्व अनन्त फलदायी है। वे बताते हैं कि हेमाद्रि संहिता के अनुसार इस सूर्य के इस मकर संक्रमण के आगे-पीछे की 15-15 घड़ियां अत्यन्त शुभ बताई गई हैं।
स्कंद व मत्स्य पुराण में मकर संक्रान्ति के विशिष्ट मुहूर्त में गंगा स्नान, सूर्याध्यान व दान को अत्यधिक फलदायी बताया गया है।
गौरतलब है कि हमारे पुराणकार ऋषियों ने हमारे उन्नत व मंगलमय जीवन के लिए अनेक धार्मिक व सामाजिक नियम-उपनियम बनाये थे। इन्हीं में एक नियम था विभिन्न पर्व-त्योहारों पर विशिष्ट मुहूर्तों में पवित्र नदियों में स्नान। चूंकि हमारी अधिकांश पवित्र नदियों का उद्गम स्रोत हिमगिरि देवात्मा हिमालय है, इस कारण वहां से निकलने वाली जल माताएं उन पर्वतों पर फलने-फूलने वाली विभिन्न दिव्य जीवनदायनी औषधियों को अपने जल के साथ बहा ले आती हैं, इसी कारण हमारे मनीषियों ने इन नदियों में स्नान को शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उपयोगी बताया था। यही वजह है कि सनातनधर्मियों की अटूट आस्था है कि पतितपावनी गंगा में खड़े होकर सूर्य को नमन करने से उनका दिव्य ताप हमारे बाह्य व अंतस् दोनों को सात्विक भावों से अनुप्राणित कर देता है।
जनजीवन में उत्साह एवं पवित्रता का संचार करने वाला यह पर्व पंजाब में लोहड़ी, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश व बिहार में खिचड़ी, उत्तराखण्ड में उत्तरायणी, बांग्लो में बिसु, बिहार में दही चूड़ा, महाराष्ट्र में मकर संक्रान्ति, दक्षिण में तिल-गुड, तमिलनाडु में पोंगल तथा असम में मोगाली बिहु के नाम से मनाया जाता है।
आयुर्वेद के मर्मज्ञों का मानना है कि शीतकालीन ठण्डी हवा शरीर में अनेक व्याधियों को उत्पन्न करती है। इसीलिए इस पर्व पर तिल-गुड़, उड़द की दाल व देशी घी आदि गर्म तासीर के भोज्य पदार्थों के सेवन का विधान बनाया गया। चरक संहिता भी इस ऋतु में शीत के प्रकोप से बचने के लिए तिल-गुड़, उड़द, गन्ना सेवन की सलाह देती है।
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