सभ्यता के प्रारंभ से ही सूर्य की पूजा की जाती रही है। भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, प्राचीन विश्व का प्राय: समस्त समाज किसी न किसी रूप में सूर्य की पूजा करता आया है। सूर्य में विशेष रूप से आंखों, त्वचा, दांतों, नाखूनों के पीलेपन को ठीक करने और हृदय रोग के साथ-साथ रक्ताल्पता से राहत देने की अद्भुत शक्ति है
पिछले लगभग 100 साल से हमें सिंधु और वैदिक सभ्यता के बीच अंतर सिखाया-पढ़ाया जाता रहा है, लेकिन अब इस विषय पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है। नए पुरातात्विक शोधों और वैदिक साहित्य के गहन अध्ययन के प्रकाश में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हमें इन सभ्यताओं के बीच समानताओं पर अधिक ध्यान देना चाहिए। सूर्य पूजा समेत ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो वैदिक साहित्य व पुरातत्व में विशेषकर सिंधु-सरस्वती सभ्यता क्षेत्र में, एक जैसी हैं।
सभ्यता के आरंभिक काल से ही दुनियाभर में सूर्य की पूजा हो रही है। प्राचीन विश्व के लगभग सभी समाज सूर्य को किसी न किसी रूप में पूजते थे और भारतीय उपमहाद्वीप, विशेषकर सिंधु-सरस्वती सभ्यता का क्षेत्र, इसका अपवाद नहीं है। यहां प्राचीन काल से ही विभिन्न नामों और चिह्नों के साथ विभिन्न उद्देश्यों के लिए सूर्य की पूजा की जाती रही है। वैदिक साहित्य में सूर्य के प्रति श्रद्धा के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। बाद के साहित्य में उन्हें आदित्य, भानु, सवित्र, पूषन, रवि, मार्तण्ड, मित्र, भास्कर, प्रभाकर और विवस्वान जैसे कई नामों से जाना जाता रहा है।
ऋग्वेद में सूर्य को मित्र, वरुण, अग्नि जैसे कई देवताओं की आंख तथा सभी चल और अचल चीजों की आत्मा के रूप में वर्णित किया गया है। वह वर्षा और ऊष्मा के मुख्य कारण हैं।
चित्रं देवानामुदगादनीकम् चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:।
आप्रा द्यावा पृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च॥ -(ऋग्वेद – 1.115.1)
अथर्ववेद के अनुसार, ‘‘सूर्य की सात किरणें समुद्र के पानी को आकाश से धाराओं के रूप में नीचे उतारती हैं।’’ तैतरीय संहिता के अनुसार, सूर्य दीघार्यु प्रदान करते हैं। इसी तरह, ऋग्वेद और कौषीतकि उपनिषद् में उन्हें काल या समय भी कहा गया है। ब्राह्मण साहित्य (शतपथ, कौषीतकि व पंचविश ब्राह्मणोपनिषद्) में सूर्य को देवताओं का परम तत्व और सभी देवताओं की आत्मा कहा गया है। वैदिक साहित्य (तैतरीय संहिता) में बार-बार उनकी पहचान ब्रह्मांड के रूप की गई है।
रोग निवारक देवता
सूर्य की किरणों में महान चिकित्सीय शक्तियां हैं। ऋग्वेद में पीलिया के निवारण के साथ-साथ दृष्टि की सुरक्षा के लिए सूर्य की पूजा का उल्लेख मिलता है।
उद्यन्नद्यमित्रमह आरोहन्नुतराम् दिवम्
हृदयरोगम् मम सूर्य हरिमाणम् च नाशय॥ -(ऋ.1.50.11)
अथर्ववेद के द्रष्टा (ऋषि) भी कई रोगों को दूर करने में सूर्य के सामर्थ्य से परिचित थे।
अनु सूर्यमुदयतां हृदद्योतो हरिमा च ते।
गो रोहितस्य वर्णेन तेन त्वा परिदध्मसि। (अथ. 1.22.1)
सूर्य चक्षुषां अधिपति स: मावतु।
इसमें सूर्य से हृदय की बीमारी, पीलापन या खून की कमी और आंखों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की गई है। ब्राह्मण साहित्य में सूर्य का आंखों के रोगों से घनिष्ठ संबंध बताया गया है। सूर्य में पापों को दूर करने की शक्ति है और इस उद्देश्य से उनकी प्रार्थना और पूजा की जाती है। ऋग्वेद में ऋषि उगते सूर्य से प्रार्थना करते हैं कि वह मित्र के समक्ष उन्हें निष्पाप घोषित करें। इसी प्रकार, कौषीतकि उपनिषद् में पाप नाश के लिए सूर्य की प्रार्थना की गई है। सूत्र ग्रंथ (शंखायन गृह्यसूत्र) में पाप मुक्ति के लिए सूर्य से विशेष रूप से प्रार्थना की गई है। सूर्य को दिए गए इसी महत्व के कारण प्राचीन भारतीय समाज में सूर्य की पूजा की जाती थी।
अर्वाचीन साहित्य में उल्लेख
एच.एच. विल्सन ने 1862 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘वर्क्स आॅफ विल्सन’ के खंड-1 में सौर के रूप में जाने जाने वाले सूर्य उपासकों के एक समूह के अस्तित्व को स्वीकार किया है। उनके बाद मोनियर विलियम और ई. डब्ल्यू. हॉपकिंस ने सूर्य पूजा के अध्ययन को कई तरह से समृद्ध किया और वैदिक साहित्य में सूर्य देवताओं के एक समूह के अस्तित्व का उल्लेख किया है। इसी तरह, 1897 में मैकडॉनल्ड्स की ‘वेदिक माइथॉलॉजी’ में वैदिक साहित्य और संरक्षित किंवदंतियों की पूरी जांच-पड़ताल के बाद सूर्य देवताओं की प्रकृति और उनके व्यक्त्वि के लक्षणों पर चर्चा है। उनका यह प्रयास उपयोगी है, क्योंकि उन्होंने वैदिक काल में कई ऋग्वैदिक देवताओं के सौर आधार को सामने लाकर सूर्य पूजा के ढांचे की रूपरेखा का निर्माण किया। उन्होंने वैदिक काल की यज्ञ प्रणाली में इनकी भूमिका का भी वर्णन किया है और सूर्य पूजा के प्रतीक रूप जैसे थेरियोमोर्फिक (पशु आकृति रूप) और एंथ्रोपोमोर्फिक (मानवाकृति रूप) पर प्रकाश डाला है।
1908 में ब्लूमफील्ड ने भी अपनी कृति ‘रिलिजन आफ वेदाज’ में वैदिक साहित्य में सौर देवताओं के एक समूह के अस्तित्व का उल्लेख किया है। आर.जी. भंडारकर ने वैष्णववाद, शैववाद और लघु धार्मिक प्रणालियों में सूर्य पंथ की उत्पत्ति और विकास की एक छवि प्रकाशित की है। जे.ए. गोपीनाथ राव ने 1916 में पहली बार सूर्य मूर्तियों के विभिन्न रूपों की गणना की। बाद में वी.सी. श्रीवास्तव, एल.पी. पाण्डेय और बी. सरकार ने विशेष रूप से सूर्य उपासना पर पुस्तकें लिखीं, लेकिन वैदिक साहित्य और सिंधु-सरस्वती क्षेत्र में पुरातात्विक निष्कर्षों की तुलना दुर्लभ है।
सूर्य से हृदय की बीमारी, पीलापन या खून की कमी और आंखों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की गई है। ब्राह्मण साहित्य में सूर्य का आंखों के रोगों से घनिष्ठ संबंध बताया गया है। सूर्य में पापों को दूर करने की शक्ति है और इस उद्देश्य से उनकी प्रार्थना और पूजा की जाती है। ऋग्वेद में ऋषि उगते सूर्य से प्रार्थना करते हैं कि वह मित्र के समक्ष उन्हें निष्पाप घोषित करें। इसी प्रकार, कौषीतकि उपनिषद् में पाप नाश के लिए सूर्य की प्रार्थना की गई है।
साहित्य और पुरातत्व में सूर्य के प्रतीक
वैदिक साहित्य में हमें सूर्य देवता के जन्तुरूप, जड़रूप और प्रतीकात्मक रूप मिलते हैं। वैदिक साहित्य में ऐसे कई संदर्भ हैं जिनमें सूर्य को घोड़ा, बैल, गुरुत्मन (गरुड़), कमल, पहिया, स्वर्ण चक्र, अग्नि आदि कहा गया है। पुरातात्विक निष्कर्षों में इनकी पुष्टि हुई है। रायचूर जिले के पिकलीहल में उत्खनन से मिले एक नवपाषाणकालीन मृदभांड पर एक घेरे में सूर्य का चित्रण है। कर्नाटक के चीतल दुर्ग जिले में सूर्य के प्रतीकों और आकृतियों के साथ उभरे हुए त्रिभुजों से भरी खड़ी विकिरण रेखाएं मिली हैं। भारत में आद्य-इतिहास काल से लेकर मिट्टी के बर्तनों पर चित्र, मुद्राओं, मुद्रांकों और मनकों की सजावट में विभिन्न रूपों में सूर्य का प्रतिनिधित्व स्थायी गुणधर्म-सा बन गया। आद्य इतिहास काल उस काल अवधि को कहते हैं, जिस काल में लेखन कला के प्रचलन के बाद भी उपलब्ध लेख पढ़े नहीं जा सके हैं।
इसी प्रकार, छत्तीसगढ़ के राजयगढ़ जिले के सिंघनपुर में चित्रित शैलाश्रयों पर आकाश में सात किरणों के साथ उगते सूर्य की प्रत्यक्ष प्रस्तुति मिलती है। उगते सूर्य के नीचे एक मानव आकृति है, जो पूजा की मुद्रा में प्रतीत होती है। चंबल घाटी स्थित सीता खर्डी शैल चित्रों में भी सूर्य के पूर्ण तेज का प्रतिनिधित्व मिलता है। इसी तरह, पहिये के निरूपण सिंधु और उत्तर सिंधु काल के मिट्टी के बर्तनों पर देखे जा सकते हैं।
सूर्य की किरणें
सौर देवताओं में सूर्य सबसे साकार हैं और मुख्य रूप से सूर्य की गोल लाल कक्षा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऋग्वेद में दृश्यमान ज्योतिर्मय गोले के साथ उनका बहुत गहरा संबंध है। वेदों में सूर्य की सात किरणों का कई बार उल्लेख किया गया है। ब्राह्मण साहित्य, उपनिषद् और सूत्रों में नियमित रूप से सूर्य चक्र की पूजा की गई है। उगते सूर्य के संबंध में ऋग्वेद में कहा गया है, ‘‘हे सूर्य! हम आपके उदय का महिमागान करते हैं। कभी-कभी आप आकाश या समुद्र से उदित होते हुए दिखाई देते हैं।’’ समुद्र से बाहर आने पर भी उन्हें आकर्षक कहा गया है।
यद् अक्रन्द:प्रथमं जायमान उद्यन्त्समुद्रादुत वा पुरीषात।
श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहु उपस्तुत्य महि जातं ते अर्वन॥ -1.63.4
किरणित गोला तथा वृत्त
पुरातात्विक खोजों में किरणित गोला अपने विभिन्न रूपों में सूर्य का सबसे प्रत्यक्ष और लोकप्रिय प्रतीक है। हड़प्पा पूर्व, हड़प्पा और बाद के मृदभांडों से पता चलता है कि हड़प्पा संस्कृति सूर्य के प्रतीकों का केंद्र बिंदु है। इसके पूर्व और पश्चिम में ऐसे प्रतीक मिलते हैं। साधारणत: पाई जाने वाली प्रकारों में से एक है मोहनजोदड़ो से मिले एक छोटे टुकड़े पर बिंदु आकार, जिसके चारों ओर एक बड़ा घेरा है और उससे किरण जैसी रेखाएं निकली हैं।
एम.एस. वत्स ने आवासीय तथा शवाधान स्थलों से ऐसे ढेरों टुकड़े मिलने की जानकारी दी है। हरियाणा के राखीगढ़ी से मिले मिट्टी के बर्तनों पर संकेंद्रित वृत्त पाया गया है, जबकि फरमाना से मिले एक जार में केंद्र में बिंदु है। अंग्रेजी वर्ण ‘एच’ जैसे आकार में शवाधान योजना में सूर्य के प्रतीकों की मौजूदगी की धार्मिक दृष्टि से व्याख्या की गई है। उनमें से कुछ परिगत हैं। ऐसा ही रूपांकन लोथल से भी मिला है। कालीबंगा के मृदभांडों पर भी घेरा बना हुआ है।
पहिये : ऋग्वेद में सूर्य के रथ के पहियों को कभी-कभी एक और कभी-कभी चार के रूप में संदर्भित किया गया है। ऋग्वेद में रथ के पहियों की 12, 7 व 6 तानों का भी वर्णन है। वैदिक कर्मकांडों में चक्र को प्राय: सूर्य के प्रतिनिधि के तौर पर भी प्रयोग किया जाता था। मिट्टी के बर्तनों और मुहरों पर पहिया प्राय: सूर्य के प्रतीक के रूप में पाया गया है। तानों वाले पहिये मोहनजोदड़ो से मिले मिट्टी के बर्तनों पर पाए गए हैं। सिंधु-सरस्वती पुरातात्विक स्थलों से मिली मुहरों पर इसका प्रयोग लेखन संकेत के रूप में भी हुआ है। यह धौलावीरा के साइनबोर्ड पर भी दिखता है। दफनाने वाले स्थलों से मिले पात्रों पर भी पहिये अंकित हैं। गाड़ियों में प्रयोग होने वाले असली पहिये ठोस होते थे, जबकि चित्रों में तानों वाले पहिये हैं। ऐसे पहिये राखीगढ़ी और बनावली में भी पाए गए हैं। पी. पंजवानी और बी. सेन के अनुसार, वृत्ताकार चिह्न कई प्रकार के हैं। यह दर्शाता है कि इनका निरूपण वास्तव में पहिये से प्रेरित नहीं था, बल्कि वे संभवत: सूर्य के रथ के काल्पनिक पहिये से प्रेरित थे।
अग्नि : ऋग्वेद में सूर्य की धधकती किरणों को प्रज्ज्वलित अग्नि से जोड़ा गया है।
अदृश्यम् अस्य केतवो वि रश्मयोजनां अनु।
भ्राजन्तोअग्नयो यथा। -ऋग्वेद 1.50.3
ऋग्वेद की एक ऋचा में कहा गया गया है, ‘‘उनकी (सूर्य की) प्रकाशमान किरणें मानव जगत पर दैदीप्यमान होने के बाद प्रचंड अग्नि की तरह चमक रही हैं।’’ शतपथ ब्राह्मण में हम पाते हैं कि जब सूर्यास्त के बाद कुएं से पानी निकाला जाता था, तो सूर्य के प्रतीक के रूप में अग्नि चिह्न का प्रयोग किया जाता था। मोहनजोदड़ो की एक गोल पट्टी पर एक बहुत ही रोचक मोहर की छाप है। इसमें एक गोले का चित्रण है, जिससे काफी आगे तक ज्वाला निकल रही है। आश्चर्य नहीं कि सूर्य को प्रतीकात्मक रूप से आग के गोले के रूप में दर्शाया गया हो। मार्शल का मानना था कि ऐसी मुहर धार्मिक महत्व की रही होंगी।
अग्नि, पृथ्वी पर सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए सिंधु-सरस्वती क्षेत्रों में अग्नि की पूजा की जाती थी। अग्नि पूजा का सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण है वैदिक अनुष्ठानों के आरंभिक स्वरूप में विभिन्न स्थलों- जैसे कालीबंगा, बनावली, लोथल आदि से अग्नि वेदियों का मिलना। सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष कालीबंगा से मिले हैं, जहां हम वैदिक शास्त्रों में वर्णित वैदिक कर्मकांडों से समानताएं पाते हैं।
कमल : मोहनजोदड़ो में हड़प्पा पूर्व और उत्तर-हड़प्पा मृदभांडों पर कमल की आकृति है। यह महत्वपूर्ण है कि इसे हड़प्पा शवाधान स्थल आर-37 से मिले पात्रों पर चित्रित पाया गया है। परवर्ती हिंदू धर्म में कमल को सूर्य देवता के नियमित पंथ प्रतीक के रूप में स्थान मिला है। सूर्य के हाथों में कमल दिखाया गया है।
गरुड़ : सामान्य रूप से पक्षी भी अपनी तेज गति के कारण सूर्यदेव के प्रतीक थे। वेदों में सूर्य और कुछ पक्षियों जैसे चील, हंस, बाज आदि के बीच बार-बार तुलना की गई है। सूर्य को अनेक स्थानों पर सुपर्णा-गरुत्मत या सुपर्णा (संभवत: कोई काल्पनिक पक्षी) के रूप में संबोधित किया गया है। उत्तर वैदिक साहित्य में भी ऐसे वर्णन मिलते हैं। मुहरों पर इसके निरूपण अनेक स्थलों पर मिलते हैं। वत्स ने हड़प्पा के कब्रिस्तान ‘एच’ से मिले सूर्य के विकरित गोले के साथ इसका जुड़ाव पाया। उन्होंने सुझाव दिया कि आद्य ऐतिहासिक भारत का ईगल या बाज सूर्य पक्षी की परंपरा का पूवार्भास देता है। ऋग्वेद में ऐसे कई संदर्भ हैं, जहां सूर्य को पक्षी कहा गया है।
श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहु उपस्तुत्य महि जातं ते अर्वन।- ऋग्वेद 1.163.4
यत्रा चक्रुर मृता गातुमस्मै श्येनो न दीयन्नन्वेति पाथ:। – ऋग्वेद 7.63.5
इसी तरह, घोड़ा भी सामान्य रूप से सूर्य का प्रतीक है और वेदों में इसके विवरण कई स्थानों पर मिलते हैं। हालांकि घोड़े के बारे में पुरातात्विक साक्ष्य सामान्य नहीं हैं।
बैल : वैदिक साहित्य में बैल सूर्य देवता का सबसे लोकप्रिय प्रतीक था और बड़े क्षेत्र में फैले पुरातात्विक स्थलों पर ऐसा पाया भी गया है। वैदिक साहित्य में सूर्य को बार-बार वृषभ कहा गया है। अथर्ववेद में भी सूर्य को वृषभ कहा गया है –
सहस्र शृंगो वृषभो य: समुद्रात् उत् आचरत्।
अथर्ववैदिक कई अनुष्ठानों में बैल को सूर्य-देवता के प्रतीक के रूप में रखा जाता था। बैल सूर्य की प्रजनन शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। हरियाणा के विभिन्न पुरातात्विक स्थलों से बैल की कई प्रतिमाएं मिली हैं। हरियाणा के फतेहाबाद से टेराकोटा से बने बैल के सींग, कुणाल से मिले टुकड़े पर बैल की आकृति, बनावली से सेलखड़ी की एक मुहर, राखीगढ़ी से बैल का सिर और पुर, बवानी खेड़ा जिला भिवानी से सुनहरे सींग के साथ एक सुंदर बैंडेड सुलेमानी पत्थर का बैल मिला है।
मार्शल का विचार है कि प्रागैतिहासिक काल में बैलों की पूजा व्यापक रूप से पूरे मध्य और निकट पूर्व में फैली हुई थी, जहां वह गृहस्थी के एक लाभकारी संरक्षक के रूप में दिखाई देता है। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा उत्तर व दक्षिण क्षेत्रों में समकालीन स्थलों से बड़ी संख्या में मिले टेराकोटा के बैलों से सिद्ध होता है कि ताम्रपाषाण काल में बैल उपासना पद्धति सिंध, पंजाब और बलूचिस्तान में बहुत प्रचलित थी।
भारत में जनसाधारण के विश्वासों एवं व्यवहारों से प्राप्त अप्रत्यक्ष प्रमाणों के अलावा साहित्य एवं पुरातत्व के प्रमाण सूर्य उपासना पद्धति की अति प्राचीनता की ओर संकेत करते हैं। वैदिक साहित्य सूर्य की स्तुति और पूजा से भरा है, जिसकी पुष्टि इस क्षेत्र में पुरातात्विक उत्खनन से होती है। मिट्टी के बर्तनों, मुहरों और घर में इस्तेमाल होने वाले अन्य सामानों और अनुष्ठानों में भी सूर्य के प्रतीक पाए गए हैं। कालीबंगा की तरह पूरे विचाराधीन क्षेत्र में अग्नि वेदियों के अवशेष भी मिले हैं। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के पूरे क्षेत्र में सूर्य के प्रतीकों के पुरातात्विक साक्ष्य मिलते हैं। विभिन्न रूपों में वे राखीगढ़ी, फरमाना, रंगपुर, सुरकोटड़ा जैसे कई अन्य स्थलों से मिले पात्रों पर मौजूद हैं।
इस प्रकार सिंधु-सरस्वती क्षेत्र के पुरातात्विक अवशेषों में सूर्य की वैदिक उपासना के प्रमाण मिलते हैं। इन पुरातात्विक साक्ष्यों से इतिहास लेखन में आमूल-चूल परिवर्तन का संकेत मिलता है। क्या अब हम काल गणना ‘वैदिक के बाद सिंधु सभ्यता’ के क्रम से करने की ओर बढ़ेंगे?
(लेखक भारतीय इतिहास संकलन समिति, हरियाणा के प्रमुख हैं)
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