ईरान में लगभग दो महीने से हिजाब विरोधी आंदोलन जारी। महिलाएं ही नहीं, पुरुष भी सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे। उधर धीरे-धीरे व्यापारी और मजदूर वर्ग भी प्रदर्शनों में शामिल क्योंकि गश्त-ए-इरशाद और बासिजी का डर खत्म हो रहा
आदर्श सिंह
हिजाब का विरोध: ईरान में मुस्लिम महिलाएं सड़कों पर हिजाब जला रही हैं, अपने केश काट कर रूढ़िवादी प्रथा का विरोध कर रही हैं
यह दशकों का दबा हुआ गुस्सा था, जिसे भड़कने के लिए बस एक चिनगारी की जरूरत थी। ठीक से हिजाब नहीं पहनने के आरोप में ईरान की राजधानी तेहरान में मजहबी पुलिस गश्त-ए-इरशाद द्वारा एक 22 वर्षीया कुर्द युवती महसा अमीनी की गिरफ्तारी और 16 सितंबर को उसकी मौत के अगले दिन से तेहरान सहित ईरान के सभी शहरों में हिजाब के विरुद्ध जारी प्रदर्शनों को अब दो महीने होने को हैं। अगर ईरानियन रेसिस्टेंस काउंसिल के दावों पर विश्वास करें तो अयातुल्लाओं के दमनकारी तंत्र को ठेंगा दिखाते हुए हिजाब के विरुद्ध जारी इस आंदोलन में अब तक कम से कम 400 लोग मारे जा चुके हैं।
मानवाधिकार समूहों के अनुसार, इसमें कम से कम 50 अवयस्क किशोर-किशोरियां हैं। 20,000 से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए हैं। इसके बावजूद ईरान के गली-कूचों में जान-जेंदगी-आजादी (स्त्री, जीवन, स्वतंत्रता) के नारे अब भी गूंज रहे हैं। यह नारा आजादी की लड़ाई लड़ी रही कुर्द महिलाओं का था, लेकिन अब यह ईरानी महिलाओं के लिए उनके गरिमा से जीने के अधिकार के संघर्ष का नारा बन गया है। महिलाएं बेखौफ सड़कों-चौराहों पर हिजाब को आग लगा रही हैं और गश्त-ए-इरशाद भीड़ के सामने असहाय है।
राजनीति और समाज में हिजाब
वैसे ईरान की राजनीति और समाज में हिजाब की हमेशा से एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह पश्चिमोन्मुखी उदारवादी ईरानियों और शिया रूढ़िवादियों के बीच संघर्ष के केंद्र में रहा है। 1979 की इस्लामी क्रांति में अपदस्थ ईरान के शाह के पिता रजा शाह पहलवी ने 1936 में अपने देश के पश्चिमीकरण के प्रयास में महिलाओं के सार्वजनिक स्थानों पर हिजाब पहनने पर पाबंदी लगा दी थी। साथ ही, यह आदेश भी था कि सार्वजनिक स्थानों पर हिजाब पहनने वाली महिलाओं से तत्काल उनका हिजाब उतरवा लिया जाए।
परिणाम यह हुआ कि रूढ़िवादी परिवारों की महिलाएं पूरी तरह घरों में कैद हो गईं। व्यापक असंतोष को देखते हुए चंद साल बाद इस आदेश को वापस ले लिया गया, लेकिन इतने अरसे में ही हिजाब ईरान की राष्ट्रीय पहचान, इस्लामी हो या उदारवादी, के संघर्ष के केंद्र बिंदु के तौर पर स्थापित हो गया।
1979 में इस्लामी क्रांति के बाद सत्ता में आए अयातुल्ला खोमैनी पश्चिमी तर्ज के उदारवादी समाज को इस्लाम के सख्त खिलाफ मानते थे। अब ईरान की पहचान इस्लामी होनी थी। खोमैनी ने 1983 में एक आदेश पारित कर सार्वजनिक स्थानों पर हिजाब नहीं पहनने को दंडनीय अपराध बना दिया और इस कानून पर अमल की जिम्मेदारी मजहबी पुलिस गश्त-ए-इरशाद को सौंप दी गई।
घुटन से ऊबी जनता
सवाल है कि हिजाब जब 1983 से अनिवार्य है, तो अब अचानक इतना उपद्रव क्यों! ईरान का मजहबी निजाम काफी यथार्थवादी है। काफी समय से अयातुल्लाओं और आम जनता के बीच यह अघोषित समझौता था कि आप राजनीति से दूर रहें और हम व्यक्तिगत मामलों में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करेंगे। बात तब बिगड़ी जब नए राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने हेकड़ी में इस्लामीकरण की कवायद तेज कर दी। एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, कट्टर मिजाज रईसी ने 1980 के दशक में अपनी निगरानी में हजारों राजनीतिक विरोधियों की हत्या करवाई थी।
राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने गश्त-ए-इरशाद की गश्त बढ़ा दी, बैंकों और फैक्टरियों में मुल्लाओं और आम कट्टरपंथियों को हिजाब पर निगरानी के लिए तैनात कर दिया जो हिजाब नहीं पहनने या पहनने में थोड़ी सी लापरवाही दिखने पर भी महिलाओं को इस्लाम की हिदायतों की जानकारी हासिल करने दोबारा तालीम (री-एजुकेशन) के लिए भेज देते थे।
अयातुल्लाओं की सनक की शिकार ईरानी जनता अरसे से पश्चिमी देशों की पाबंदियों की वजह से आर्थिक बदहाली झेल रही है। प्रति व्यक्ति आय 2012 से अब तक ज्यों की त्यों है, जिससे एक बड़ी आबादी कंगाली की तरफ चली गई है। अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से पर रिवोल्यूशनरी गार्ड्स का कब्जा है। इनका गठन ईरान की सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि इस्लामी क्रांति की हिफाजत के लिए किया गया है। इसके अलावा, पर्यावरण के मुद्दे हैं। नदियां सूख रही हैं और खेत बंजर पड़े हैं। लेकिन अयातुल्लाओं के लिए हिजाब सबसे अहम है, क्योंकि यही एक ऐसा पैमाना है जिससे वे यह जान सकते हैं कि अवाम पर उनका कितना काबू है। नतीजे उलटे हुए हैं।
इस्लाम से मोह भंग, मिशनरी सक्रिय
अवाम अब इस्लाम के खिलाफ होती जा रही है। सरकार रोजाना मस्जिदें बनवा रही है, लेकिन नमाजियों की तादाद घटती जा रही है। ‘ग्रुप फॉर एनालाइजिंग एंड मेजरिंग एटीट्यूड्स इन ईरान’ के 2020 के आनलाइन सर्वेक्षण में बेहद चौंकाने वाले नतीजे सामने आए। 50 प्रतिशत ईरानियों ने कहा कि मजहब से उनका भरोसा उठ चुका है, जबकि 60 प्रतिशत ने कहा कि वे कभी नमाज नहीं पढ़ते।
हद तो यह है कि 68 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्हें सेकुलर सरकार चाहिए, जहां राजसत्ता और मजहब बिलकुल अलग हों। शायद यह 43 साल से इस्लाम के नाम चली आ रही इस दमनकारी सत्ता से ऊब का ही नतीजा है कि वहां ईसाई मिशनरियां सक्रिय हैं। ईरान में मिशनरी भले ही चोरी छिपे और भूमिगत गतिविधियां चला रहे हों, लेकिन वहां जिस तेजी से मुसलमान ईसाइयत में कन्वर्ट हो रहे हैं, उसकी दर संभवत: विश्व में सबसे ज्यादा है।
2009 की तरह इस बार भी आंदोलन नेतृत्व विहीन है। लेकिन एक अंतर है। तब व्यापारी और मजदूर आंदोलन से अलग थे। इस बार वे धीरे-धीरे समर्थन में उतर रहे हैं। तमाम जगहों से हड़ताल की खबरें आ रही हैं। हो सकता है कि 2009 की तरह ही आंदोलन खत्म हो जाए, लेकिन फिर भी एक बात तय है। ईरान अब पहले जैसा नहीं रहेगा। गश्त-ए-इरशाद और बासिजी का डर खत्म हो रहा है।
कुछ पादरी अयातुल्लाओं को ईसाइयत का सबसे बड़ा प्रचारक कहने लगे हैं। उधर, कुछ अयातुल्ला भी इस्लाम और अवाम में इस अलगाव की ओर दबी जुबान में इशारा कर रहे हैं। हालांकि सत्ता पर काबिज अयातुल्ला आश्वस्त हैं कि उन्होंने जनता के दमन की कई तरकीबें खोज ली हैं। उन्हें विश्वास है कि उनकी निर्मम मिलिशिया बासिजी और प्रशिक्षित रिवोल्यूशनरी गार्ड्स एक बार फिर असंतोष को कुचल देंगे, जैसा कि उन्होंने 2009 में किया था।
इस बार यह आसान नहीं लग रहा। हालांकि 2009 की तरह इस बार भी आंदोलन नेतृत्व विहीन है। लेकिन एक अंतर है। तब व्यापारी और मजदूर आंदोलन से अलग थे। इस बार वे धीरे-धीरे समर्थन में उतर रहे हैं। तमाम जगहों से हड़ताल की खबरें आ रही हैं। हो सकता है कि 2009 की तरह ही आंदोलन खत्म हो जाए, लेकिन फिर भी एक बात तय है। ईरान अब पहले जैसा नहीं रहेगा। गश्त-ए-इरशाद और बासिजी का डर खत्म हो रहा है।
आंदोलनकारियों से झड़पों में कम से कम 24 बासिज और पुलिसकर्मी मारे गए हैं और दो हजार से ज्यादा घायल हुए हैं। गश्त-ए-इरशाद आज अगर किसी मुहल्ले में या चौराहे पर अकड़ के साथ हिजाब या कोई और इस्लामी हिदायतें लागू करने की कोशिश करेगी तो तय है कि उसे हिंसक प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। हिजाब बस एक प्रतीक है। असली संघर्ष इस्लाम बनाम अवाम है।
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