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हिंदुत्व और अंत्योदय-बदलाव के वाहक

हिंदुत्व में जिस तरह मानव में एकात्मता और समानता की बात कही गई है, उसमें बेमानी भेदों के लिए कोई जगह नहीं है। पंक्ति का आखिरी व्यक्ति पंक्ति में सबसे आगे खड़े व्यक्ति के समान महत्व रखता है

by विनय सहस्रबुद्धे
Sep 23, 2022, 01:49 pm IST
in भारत, विश्लेषण, संघ
भारत में वारकरी यात्रा जैसी धार्मिक यात्राओं में समाज के सभी वर्गों का साथ आना सहज ही समानता का भाव रोप देता है

भारत में वारकरी यात्रा जैसी धार्मिक यात्राओं में समाज के सभी वर्गों का साथ आना सहज ही समानता का भाव रोप देता है

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वैश्विक जगत में एक हिंदू होने के क्या मायने हैं तो आज के संदर्भ में यह आसान भी है और मुश्किल भी है। एक तरफ दुनिया में हिंदू संस्कृति और जीवन पद्धति के बारे में दिलचस्पी बढ़ रही है, दूसरी ओर भारत में प्रगतिशीलता के नाम पर हर उस चीज को हिकारत से देखने का चलन दिखता है जो हिंदू है।

अगर हम इस पर विचार करें कि वैश्विक जगत में एक हिंदू होने के क्या मायने हैं तो आज के संदर्भ में यह आसान भी है और मुश्किल भी है। एक तरफ दुनिया में हिंदू संस्कृति और जीवन पद्धति के बारे में दिलचस्पी बढ़ रही है, दूसरी ओर भारत में प्रगतिशीलता के नाम पर हर उस चीज को हिकारत से देखने का चलन दिखता है जो हिंदू है।

दुर्भाग्य से गौरवशाली हिंदुओं में से अधिकतर के मामले में, हिंदू और उस तरह से हिंदूपन को परिभाषित करने संबंधी सवालों के जवाब की तलाश कम से कम जनप्रियता के स्तर पर ज्यादा दूर नहीं गई है। इसलिए कहा जा सकता है कि जब तक कोई व्यक्ति हिंदू संस्कृति पहचान के नाम पर बात करेगा तो उसे सामाजिक सुधार के पक्ष में या पिछड़ों के उत्थान के लिए खड़ा होने वाला या समाज सुधारक तो नहीं ही माना जाएगा। इस पृष्ठभूमि में पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव दर्शन व अंत्योदय का विचार बराबरी, लैंगिक व सामाजिक न्याय के आज के विचारों के अनुरूप, हिंदुत्व को समझने, व्याख्यायित करने व उसे स्वीकार करने में मदद करता है।

आध्यात्मिक लोकतंत्र
हिंदू होने का क्या अर्थ है, यह तार्किक रूप से एक हिंदू होने के विचार से जुड़े गुणों पर निर्भर करता है। किसी के हिंदूपन को बनाने वाले आयामों, यानी हिंदुत्व को पहचानना हमें शुरू में किए गए सवाल के जवाब के नजदीक ले जाता है। शाब्दिक दृष्टि से हिंदुत्व या हिंदूपन या इसे हिंदू होने के तौर पर भी बताया जा सकता है। आराध्य देवी-देवताओं की बहुत बड़ी संख्या होने की वजह से हिंदू धर्म में सबको एक खांचे में बैठाना संभव नहीं है।

इसी वजह से बनी है हिंदू विश्वदृष्टि। ईसाइयत और इस्लाम के उलट, हिंदुत्व मानता है कि हर रास्ता व्यक्ति को एक ही सत्य, उस एक ईश्वर तक ले जाता है। विद्वान इसे भिन्न-भिन्न तरीके से व्यक्त करते हैं। इस सिद्धांत में दृढ़ आस्था जिसे ‘एकम् सद् विप्रा: बहुधा: वदन्ति’ में व्यक्त किया गया है, हिंदू धार्मिक विचार का मूल है। मोक्ष प्राप्ति के इन अनेक रास्तों में मौलिक आस्था के कारण हिंदू धर्म में कन्वर्जन का कोई स्थान नहीं है, यह बात दूसरे स्थानीय संप्रदायों, जैसे-जैन या बौद्ध मतों में भी दिखती है।

अंत्योदय: सामाजिक न्याय, लैंगिक समता की हिंदू पद्धति
अगर कोई यह स्वीकार कर ले कि हर रास्ता उस एक सर्वोच्च सत्य की ओर ले जाता है तो जात-पात से जुड़े सवाल हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगे। हिंदुत्व में जाति आधारित भेदभाव का स्थान नहीं है। सभी लोग समान हैं, यह मूलभूत विचार है। हिंदुत्व में किसी व्यक्ति की उच्चता या निम्नता उस सामाजिक समुदाय पर आधारित नहीं हो सकती जिसमें उसनेजन्म लिया है। यदि हिंदुत्व इस प्रकार के भेदों को हमेशा नकारता है तो चातुर्वर्ण्य, अस्पृश्यता या जातिगत संघर्ष का पक्ष लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

हिंदुत्व में जिस प्रकार मानवता में एकात्मता और समानता की बात कही गई है, उसे देखते हुए राजनीतिज्ञों द्वारा विद्वानों के बारे में प्रचारित बेमानी भेदों को किसी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। आर्यों के आक्रमण, स्थानीय और गैर-स्थानीय लोगों के बीच संघर्ष, वनवासियों व अन्य के बीच भेद, किसी सामाजिक समूह या समुदाय को जन्म से ही अपराधी बताना या विजेता और पराजित के बीच संघर्ष जैसे सिद्धांतों का हिंदुत्व के विचार में जरा भी स्थान नहीं है।

हिंदुत्व विरोधी हमेशा यही भ्रम फैलाते हैं कि हिंदुत्च ब्राह्मणत्व का ही दूसरा नाम है। तथ्यों को इससे अधिक तोड़ने-मरोड़ने वाला कोई और वक्तव्य नहीं हो सकता। धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों में समानता इस विचार को सही नहीं ठहराती। ब्राह्मणों का दीवाली मनाने का तरीका मतंगों या दूसरे जनजातीय समूहों के दीवाली मनाने के तरीकों से अलग नहीं है।

वनवासियों के मामले में ऐसा ही है। कई समाजशास्त्रियों का निष्कर्ष है कि भारत के वनवासी आस्ट्रेलिया के शुरुआती लोगों जैसे नहीं हैं। ऐसे कई पुराने घुमंतू या लड़ाकू समुदाय भी हैं, जिन्होंने सदियों पहले भारी उथल-पुथल के दौर में जंगलों में शरण ली थी। आज उन्हें वनवासी, शुरुआती बाशिंदा बताया जाता है, जैसे बाकी सब हमलावर या बाहरी हैं।

 

इस पृष्ठभूमि में सरसरी तौर पर सामाजिक समानता तथा विशेष तौर पर जाति आधारित आरक्षण के सवाल पर चर्चा जरूरी है। जाति आधारित आरक्षण की जड़ में सामाजिक न्याय के लिए ठोस काम व सकारात्मक भेद के सर्वस्वीकृत और बहुमान्य विचार ही हैं। हिंदुत्व के समर्थकों ने बहुत पहले समझ लिया था कि ठोस हिंदू एकता तब तक नहीं हो सकती, जब तक कथित उच्च वर्ण अपने अवसर की कीमत पर, पिछड़े वर्गों के लिए स्थान बनाने की सोच नहीं बना लें। इसमें अतिशयोक्ति नहीं कि संपन्न और तुलनात्मक रूप से समाज के कम पिछड़े वर्गों को भी देखना होगा कि कमजोर वर्ग न सिर्फ आरक्षण पाएं, बल्कि जाति आधारित कोटा का लाभ लेने को भी हर तरह से तैयार रहें।

हिंदू एकजुटता को समर्पित लोग इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि भावात्मक एकजुटता नहीं प्राप्त होती तो हिंदू एकजुटता एक कल्पना ही रह जाएगी। भावात्मक एकता बनी रहे, इसके लिए आपसी समझ, सहकार और सामाजिक दायित्व की भावना को बढ़ाना होगा और हिंदू एकजुटता की विरोधी ताकतों के समाज तोड़ने वाले व सांस्कृतिक-भावात्मक रिश्तों को नकारकर समुदायों के बीच सौहार्द खत्म करने के षड्यंत्रों के प्रति सचेत रहना होगा।

हिंदुत्व के सामने एक बड़ी चुनौती एक ऐसा माहौल तैयार करने की है, जहां समाज का हर अंग यह महसूस करे कि वह तभी अर्थपूर्ण जिंदगी जी सकता है जब वह संपूर्ण समाज के साथ अभिन्न हो कर रहे। इसके लिए समाज के शोषित वर्गों के लिए समान आदर, समान अवसर व समान संरक्षण की व्यवस्था करने की जरूरत है। इसके लिए सामाजिक न्याय का मार्ग ही एकमेव मार्ग है। अंत्योदय के गांधीवादी सिद्धांतों को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सुंदर तरीके से रेखांकित किया।

सामाजिक और सामुदायिक पहचान के वृहद् मुद्दे से कोटा को अलग नहीं किया जा सकता। छोटी, सामुदायिक पहचानों को एक वृहद राष्ट्रीय और सामाजिक पहचान केसाथ एकसार करने की जरूरत है। ऐसा सिर्फ छोटी पहचानों को सम्मान और स्थान देकर ही हो सकता है। हिंदुत्व के सामने एक बड़ी चुनौती एक ऐसा माहौल तैयार करने की है, जहां समाज का हर अंग यह महसूस करे कि वह तभी अर्थपूर्ण जिंदगी जी सकता है जब वह संपूर्ण समाज के साथ अभिन्न हो कर रहे। इसके लिए समाज के शोषित वर्गों के लिए समान आदर, समान अवसर व समान संरक्षण की व्यवस्था करने की जरूरत है। इसके लिए सामाजिक न्याय का मार्ग ही एकमेव मार्ग है। अंत्योदय के गांधीवादी सिद्धांतों को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने सुंदर तरीके से रेखांकित किया।

सामाजिक न्याय और सामाजिक सौहार्द की हमारी नीतियों की समझ का मूल ही सामाजिक अंतर की प्रक्रिया को रोक सकता है। पिछड़े वर्ग की पीड़ा व आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशीलता से प्रेरित सामाजिक न्याय के लिए कमर कसने, उनके लिए सहानुभूति की उत्कट भावना और अंतत: एक सच्चे साथी के भाव की जरूरत है। सामाजिक एकजुटता के लिए विशेष रूप से खुद को हिंदू बताने वालों में आपसी मजबूती के लिए अंत्योदय एकमात्र गांरटी देने वाली शक्ति हो सकती है।

हिंदुत्व अल्पसंख्यक विरोधी है और समाज के कमजोर वर्गों का विरोधी है, ऐसा हिंदुत्व के बारे में रोपी गई भ्रांतियों के कारण दिखाई देती हैं। ये भ्रांतियां हैं- हिंदुत्व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आधुनिकता व महिला विरोधी है। हिंदुुत्व महिलाओं का सम्मान करता है। महिला व पुरुष के एक-दूसरे का पूरक होने वाली भूमिका अर्द्धनारीश्वर की कल्पना से उजागर होती है और यही लैंगिक समानता की अपनी व्याख्या के केंद्र में है।

अत: हमारी विश्व दृष्टि में महिलाओं को कमतर मानने का कोई स्थान नहीं है। जैसा कि समाज के सभी वर्गों के साथ है- महिलाओं को सम्मान, अवसर और सुरक्षा की समानता चाहिए। हिंदुत्व की पुनर्व्याख्या करते हुए पं. दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में कहा जा सकता है, ‘बीते वक्त से वर्तमान से होते हुए, भविष्य की ओर’ यह वक्त की जरूरत थी और आज भी है। उनकी विरासत को अपनाते हुए हमें मानवाधिकार, व्यक्तिगत उदारता, मानवीय इच्छाओं को मर्यादित करने, संपन्नता के विचार आदि सिद्धांतों पर स्पष्टता के साथ विचार करने की जरूरत है।

Topics: भारत के वनवासी आस्ट्रेलियाहिंदू संस्कृतिपं. दीनदयाल उपाध्यायमानव में एकात्मता और समानताहिंदू पद्धतिअंत्योदयसामाजिक न्यायजीवन पद्धतिHindutva and Antyodaya - the carriers of changeHindu culture and way of life
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