भोलानाथ मल्होत्रा
लाहौर, पाकिस्तान
बात होगी 1947 की जनवरी-फरवरी की। उन दिनों मैं लाहौर में सातवीं कक्षा का छात्र था। एक दिन हम लोग स्कूल में थे। उसी समय हेडमास्टर साहब आए और बोले कि हमें पता चला है कि यहां पर कुछ मुसलमान इकट्ठे हुए हैं और वे लोग लड़ाई करने वाले हैं। इसलिए स्कूल का गेट बंद किया जा रहा है। सभी बच्चे अपनी-अपनी जगह पर ही रहेंगे।
कोई बाहर नहीं जाएगा। जिसके घर से कोई लेने आएगा, वही जा सकता है। उनकी इस बात से सारे बच्चे घबरा गए। सोचने लगे कि अब क्या होगा, हम लोग घर कैसे जाएंगे। मेरे घर से स्कूल आने में कई मुस्लिम मुहल्ले पड़ते थे। इसलिए मैं ज्यादा ही परेशान हुआ, लेकिन कुछ घंटे बाद मेरे पिताजी एक तांगा लेकर मुझे लेने आ गए।
उन्होंने मुझे समझाया कि रास्ते में कुछ नहीं बोलना है और चुपचाप घर जाना है। जब हमारा तांगा लाहौर के मुस्लिम मुहल्ले से निकल रहा था तब कुछ मुसलमान एक दूसरे तांगे पर बैठकर हमारा पीछा करने लगे। वे हमें रुकने के लिए कह रहे थे। पिताजी ने तांगे वाले से कहा कि चाहे जो हो जाए, रुकना नहीं है और तेज भागना है। इससे मैं घबरा गया।
इसके आगे भी और एक मुस्लिम मुहल्ला था। पर तांगे वाले ने बहुत ही साहस से काम लिया और हम दोनों को घर पहुंचा दिया। फिर लाहौर में ऐसा माहौल बना कि कभी स्कूल नहीं जा पाया। माहौल ऐसा बिगड़ा कि वहां हिंदुओं का रहना संभव नहीं रहा। उस वक्त हमारे एक रिश्तेदार हरिद्वार में रहते थे। इसलिए हमारे परिवार के सभी लोग लाहौर से हरिद्वार के लिए निकल गए। बाद में समाचार मिला था कि लाहौर में श्यामली दरवाजे की ज्वलेरी की दुकानें और मकान लूट लिए गए हैं।
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