प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ‘प्लास्टिक सर्जरी’ जैसे आपरेशन करके मानव अंगों को नई तरह से निखारने से लेकर ‘स्किन ग्राफ्टिंग’ और विभिन्न तरह की सर्जरी का उल्लेख मिलता है
ज्ञान सबसे बड़ा धन होता है। भौतिक सुख-सुविधाएं तो ज्ञान का इस्तेमाल करके कभी भी हासिल की जा सकती हैं। इसीलिए कहते हैं कि अगर धन गया तो कुछ गया, ज्ञान गया तो सब गया। भारत के साथ ऐसा ही हुआ है। विदेशी हमलावरों ने भारत की सबसे बड़ी पूंजी पर हमला किया। लेकिन आज हमारे देश को स्वतंत्र हुए सात दशक से अधिक का समय हो चुका है। इसलिए कब तक विदेशी हमलावरों के अत्याचारों का रोना रोना? आज सबसे बड़ा यह सवाल हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि हमने अपनी उस ज्ञान परंपरा को बचाने के लिए क्या किया?
हजारों साल पुरानी विद्या
भारत सरकार ने जब आयुर्वेद की स्नातकोत्तर शिक्षा में सर्जरी के 58 तरह के पाठ्यक्रमों की औपचारिक घोषणा की तो देश में हंगामा मच गया। कहा जाने लगा कि ऐसा करना गलत है, क्योंकि भला कोई वैद्य सर्जरी कैसे कर सकता है? हालांकि भारतीय ज्ञान परंपरा में सर्जरी का उल्लेख हजारों साल पहले से मिलता है। सुश्रुत संहिता में विभिन्न तरह की शल्य चिकित्साओं का जिक्र है।
ऋग्वेद सबसे पुरानी वैदिक रचनाओं में से एक है, जिसमें अश्विनी कुमारों का जिक्र मिलता है। वे देवताओं के वैद्य थे और उस काल के प्रमुख सर्जन यानी शल्य क्रियाएं करने वाले थे। भारत में आयुर्वेद से संबंधित कई ग्रंथ और संहिताएं हैं। आयुर्वेद एक संपूर्ण चिकित्सा पद्धति है जिसमें रोगों के उपचार, शल्य क्रियाओं से लेकर रोग न हो, इसके विभिन्न उपाय बताए गए हैं।
यानी आज जो प्रिवेंटिव हेल्थकेयर की अवधारणा है, आयुर्वेद में वह सब शामिल है। चिकित्सा विज्ञान तब कितना उन्नत था और इसमें दर्ज करने योग्य बातों का दायरा कितना बड़ा था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चरक संहिता और अष्टांग संहिता में औषधि से जुड़ा ज्ञान था तो सुश्रुत संहिता में सर्जरी का।
शल्य क्रियाओं का उल्लेख
सुश्रुत संहिता में 300 तरह की शल्यक्रियाओं का जिक्र है। इतना ही नहीं, किस तरह की सर्जरी में किस तरह के उपकरण का इस्तेमाल होगा, यह सब भी बताया गया है। शरीर के विभिन्न अंगों की सुरक्षित तरीके से चीर-फाड़ करने के लिए उन्होंने 101 तरह के यंत्रों और उपकरणों का जिक्र किया है। शल्य क्रिया के दौरान पूरी तरह सफाई और शुद्धता के लिए इससे पहले हवन करने का प्रावधान था। आज के आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में बाल रोग, स्त्री रोग, मनोरोग जैसे विशिष्ट क्षेत्रों के अलग विशेषज्ञ होते हैं, लेकिन आचार्य सुश्रुत ने तभी इन सबको अलग-अलग विषय के तौर पर लिया और प्रत्येक व्यक्ति को होने वाले रोगों और निदान की विधि बताई।
सुश्रुत संहिता में शरीर संरचना, बाल रोग, स्त्री रोग, मनो-रोग, नेत्र व सिर रोग, औषधि विज्ञान, शल्य विज्ञान, विष विज्ञान का विस्तार से वर्णन मिलता है। तब का समय ऐसा रहा होगा जब जंगल में शिकार करने के दौरान या फिर युद्ध के दौरान लोग घायल हो जाते होंगे और उनके इलाज की जरूरत पड़ती होगी। इसके अलावा किसी अपराध के सिद्ध होने पर अंग-भंग का दंड भी दिया जाता रहा होगा। इस तरह की घटनाओं ने ही संभवत: इनके उपचार का रास्ता खोजने की प्रेरणा दी होगी। जो भी हो, यह बात तय है कि तभी आज के ‘प्लास्टिक सर्जरी’ जैसे आपरेशन करके अलग हो गए अंगों को जोड़ा जाता था, उनका निर्माण किया जाता था। इसके लिए स्किन ग्राफ्टिंग भी की जाती थी, शरीर के किसी एक भाग से त्वचा निकालकर दूसरी जगह लगाई जाती थी। 120 अध्यायों वाली सुश्रुत संहिता में 1120 रोगों के निदान की विधि बताई गई है। शल्य चिकित्सा के पितामह आचार्य सुश्रुत का जन्म ऋषि विश्वामित्र के कुल में काशी में हुआ था। सुश्रुत उद्धृत संहिता की रचना के बारे में अनुमान है कि यह ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हुई।
विदेशियों ने भी मानी धाक
अब देसी ज्ञान के बारे में कुछ विदेशी संदर्भों की बात। भारत से यह ज्ञान कैसे दुनिया में पहुंचा, इसका अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है। आठवीं सदी में सुश्रुत संहिता का अरबी में अनुवाद हुआ। इस किताब का नाम है ‘किताब-ए-सुस्रुद’। गौर करने वाली बात एक और है। सुश्रुत ने इस ग्रंथ की रचना की, यानी उन्होंने उसे सूचीबद्ध किया। अगर उसमें वर्णित ज्यादातर ज्ञान आचार्य सुश्रुत का ही हो, फिर भी काफी कुछ तो पहले से ही रहा होगा। उसे न जाने कितने समय के अभ्यास के बाद इस योग्य पाया गया होगा कि उसे फॉर्मूला के तौर पर सूचीबद्ध किया जा सके।
एक किताब है- द हिस्ट्री आफ प्लास्टिक सर्जरी। इसे लिखा है इटली के एस. चियारा विश्वविद्यालय एवं अस्पताल में प्लास्टिक सर्जरी विभाग के एमडी पाओलो सैंतोनी रुजियो और ब्रिटेन के मॉरिसन अस्पताल के प्लास्टिक सर्जन फिलिप जे साइक ने। इस किताब में कहा गया है कि प्लास्टिक सर्जरी करके नाक बना देने का पहला उदाहरण भारत में मिलता है। इसमें 1793 में अंग्रेजी समाचारपत्र मद्रास गजेटियर में प्रकाशित एक लेख को उद्धृत किया गया है। यह लेख ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वाले दो डॉक्टरों ने लिखा था जिसमें उन्होंने दावा किया था कि उन्होंने एक व्यक्ति की नाक की प्लास्टिक सर्जरी होते देखी।
उसके अगले साल यानी 1794 में अंग्रेजी अखबार दि जेंटलमैन में एक पत्र प्रकाशित हुआ जिसमें उस घटना का विस्तार से जिक्र किया गया था, जिसका हवाला वे अंग्रेज डॉक्टर दे रहे थे। पत्र के मुताबिक जिसकी नाक की सर्जरी का उल्लेख यहां किया जा रहा है, वह एक किसान था जो अंग्रेजी फौज में बैलगाड़ी चलाता था। 1792 में टीपू सुल्तान के साथ अंग्रेजों का युद्ध हुआ जिसमें उस किसान को बंदी बना लिया गया और फिर टीपू की सेना ने उसकी नाक और एक हाथ काट दिए।
इसी व्यक्ति की नाक दोबारा बनाई गई। उसके बाद इंग्लैंड के एक सर्जन ने इस विधि पर बीस साल तक शवों पर परीक्षण करके अंतत: सर्जरी करने में सफलता पाई। सर्जरी तो एक बात है। भारतीय ज्ञान कोश में ऐसे कई मोती हैं, जिन्हें हम स्वयं देखने से परहेज करते रहे हैं। सोचिए, कितनी मूर्खता की बात है कि जिस पूरी वर्णमाला का हमें पहले से ज्ञान है, विदेशी शिक्षा पद्धति के कारण हम उसी का ककहरा सीख रहे हैं?
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