रूस-यूक्रेन संकट लंबा खिंचता दिख रहा है और इसके साथ ही जो लोग भारत के एक झटके में किसी एक पक्ष के साथ खड़ा होने की वकालत कर रहे थे, वह भी पेसोपेश में हैं या पाला बदलते हुए बेचैन हैं। प्रश्न यह है कि क्या भारत को इसमें पक्ष बनना चाहिए था? इस संकट को हमें किस दृष्टिकोण से देखना चाहिए? जो इसे केवल भौगोलिक विस्तार की आकांक्षाओं का टकराव मानते हैं, वे शायद आकलन में चूक रहे हैं।इस संकट को देखने-समझने के लिए मोटे तौर पर चार आयाम हो सकते हैं।
-
यह संसाधनों पर वर्चस्व पर लड़ाई है, जिसका आधार प्राकृतिक गैस है। एक अनुमान के अनुसार यूक्रेन में नार्वे के बाद यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस भंडार (1.09 ट्रिलियन घन मीटर) है।
-
पश्चिमी दृष्टिकोण जो मानवाधिकार की बात कर रहा है और दूसरे शासन को अधिनायकवादी आरोपित करने पर तुला है।
-
इसका भू-राजनीतिक समीकरण, यूक्रेन के नाटो खेमे में चले जाने पर नाटो का दखल रूस की सीमा तक हो जाएगा, और
-
टकराव के ऐतिहासिक कारण, दुनिया में प्रोटेस्टेंट और आथोर्डाक्स चर्चों के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रही है।
भारत ने चुना कठिन मार्ग
भारत का दृष्टिकोण इन सबसे अलग है। दुनिया इस संकट को जैसे चाहे देखे, हमारे लिए प्रश्न है कि हम इसे कैसे देखेंगे क्योंकि भारत का दृष्टिकोण भारतीय संदर्भों में से ही तलाशना होगा। भारत के लिए किसी एक का पक्ष लेना सरल था परंतु भारत ने इस हिंसाग्रस्त और अत्यंत तनावपूर्ण क्षेत्र में फंसे हजारों छात्रों और भारतीय हितों को ऊपर रखते हुए ज्यादा कठिन मार्ग चुना। अभी भी यूक्रेन से हजारों भारतीयों को बाहर निकालने का काम जारी है। और,इसके लिए सरकार के मंत्री बिल्कुल अग्रिम मोर्चे पर तैनात हैं। पूरी दुनिया में ऐसी संवेदनशीलता, त्वरितता और कूटनीतिक समाधान के प्रयास कहीं नहीं दिख रहे।
दूसरे, कुछ लोगों को लग रहा था कि यह यूक्रेन और रूस के बीच का संकट है। परंतु समझने की बात यह है कि इसका विस्तार महज दो देशों के बीच है या दो महाशक्तियों के बीच? एक ओर रूसी प्रभाव की सीमाएं हैं और दूसरी तरफ नाटो का बढ़ता प्रभाव क्षेत्र है।
कुछ लोग शुरू में भारत के विरोध में दिखने लगे थे। आज जब यह संकट लंबा खिंचा है तो प्रश्न यह है कि क्या इस सुलगते क्षेत्र में भारत को हथियार भेजने चाहिए थे? एक की पीठ पर हाथ रखकर दूसरे को ललकारने का रास्ता भारत ने चुना होता तो इन छात्रों का क्या होता?
भारत ने सुरक्षा परिषद को बताया है कि वह प्रभावित पक्षों के संपर्क में है और वार्ता से इस मुद्दे का हल चाहते हुए प्रभावित पक्षों से वार्ता की मेज पर लौटने का आग्रह करता है। मंगलवार को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति एमैनुएल मैक्रों में बात हुई। दोनों इस पर सहमत हैं कि क्षेत्र में जल्द से जल्द शांति स्थापित हो। भारत के रुख से अमेरिका को, रूस को या फ्रांस को दिक्कत नहीं है परंतु भारत के कुछ बुद्धिजीवियों को दिक्कत अवश्य है।
उनकी दिक्कत पोलैंड के राजदूत ने यह कह कर बढ़ा दी कि यह वैसा ही हमला है जैसे मुगलों ने राजपूतों का नरसंहार किया था। भारत में मानवाधिकार की बात करने वालों को मुगलों का हिंसक स्वरूप रूपक के तौर पर भी स्वीकार नहीं होता। यह बात समझ में आती है। और इससे यह भी समझ में आता है कि यह संकट चुनिंदा चुप्पियों से हल होने वाला नहीं है। सबको इसके लिए मिलकर काम करना पड़ेगा।
भारत का रुख भारतीय हितों के अनुरूप
इस तथ्य को इस संदर्भ में समझना चाहिए कि कुछ लोगों को लग रहा था कि यह सिर्फ कुछ घंटों का खेल है और अब लगातार धमाके और बिगड़ती स्थिति बता रही है कि भारत ने हड़बड़ी में किसी भी तरह की गड़बड़ी करने के बजाय अच्छी तरह सोच-विचार कर जो मार्ग चुना है, वह कूटनीतिक दृष्टि से सही और भारतीय हितों को पूरा करने वाला है। और, भारत का यह राहत अभियान सिर्फ भारतीयों के लिए नहीं है। छात्रों को लाने वाले विमानों में राहत सामग्री जा रही है। तुर्की और पाकिस्तान के छात्र भी आज तिरंगे की ताकत मान रहे हैं और तिरंगे के साथ वहां से निकल कर आ रहे हैं।
भारत ने सही रास्ता चुना है। इस समय जरूरत है कि एक देश की तरह से सोचें न कि उन लोगों की तरह कि जो भारत को बदनाम करने वाले वीडियो को राजनीतिक पूंजी या पांसे की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं। पूरी दुनिया भारत की ओर बड़े प्रशंसा भाव से देख रही है। बाकियों के लिए यह अभियान मिसाल है। और, जो लोग इस पर चयनित तरीके से सोचते हैं, जिनका नैरेटिव इस देश का नहीं है, उनकी चिंताएं भी इस देश के लिए नहीं हैं, उनको सामाजिक विमर्श से किनारे करने, बुहारने की जरूरत है।
@hiteshshankar
टिप्पणियाँ